कश्मीर घाटी में जारी ‘अंधेरे’ का सबसे ज्यादा शिकार बच्चे, डिप्रेशन में जा रहे हैं घरों में कैद मासूम

जम्मू में तो हालात सामान्य हैं, लेकिन घाटी में स्थिति बेहद चिंताजनक है, जिससे बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। घरों में एक तरह से कैद बच्चे सबसे ज्यादा हालात की तपिश झेल रहे हैं। छोटे-छोटे बच्चों को ये भी नहीं पता कि जीवन में इस तरह का तूफान क्यों आया है?

फोटोः सोशल मीडिया
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अमित सेनगुप्ता

यहां श्रीनगर में स्कूल बंद हैं। प्रतिष्ठित और सबसे पुराना स्कूल- प्रेजेंटेशन काॅन्वेंट भी। दिल्ली पब्लिक स्कूल ने अपने बच्चों को वीडियो लेसंस के तौर पर होम वर्क देने की व्यवस्था की है। बच्चे घरों में बंद हैं, स्कूल सुनसान हैं। शिक्षक जरूर स्कूल पहुंचकर बच्चों का इंतजार करते हैं। एक महिला ने सही ही पूछा- “हम अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर क्यों रिस्क लें? क्या सरकार हमारे बच्चों की सुरक्षा की गारंटी ले सकती है? या, वे उनका उपयोग शिकार फंसाने के लिए बकरी की तरह करेंगे? सोचिए, अगर अचानक कर्फ्यू लग जाए या लोग सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन करने निकल आएं या सेना गोलियां या पैलेट गन चलाने लग जाए, तो? क्या आपको याद नहीं है कि हजारों स्कूली बच्चों के चेहरे पैलेट गन से लहूलुहान हो गए थे और इनमें से कई की आंखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गई और सबसे दुखद ये है कि इनमें से कई बच्चे बिल्कुल अबोध थे?”

जम्मू में तो सचमुच हालात सामान्य हैं, लेकिन घाटी में कुल मिलाकर यही स्थिति है। इसीलिए एक अन्य अभिभावक ने कहा, “मोबाइल और लैंडलाइन फोन्स बंद हैं। ऐसे में, मान लीजिए कोई इमरजेंसी हो जाए, तो टीचर्स या स्कूल प्रबंधन अभिभावकों से कैसे संपर्क कर पाएंगे? हम तो रोजाना के संत्रास से जूझ ही रहे हैं, आप चाहते हैं कि अनजान हालात में भेजकर अपने बच्चों को लेकर भी एक अन्य चिंता में डूबे रहें? दिल्ली को भी पूरा जेल बना दिया जाए, तो क्या वहां के बच्चे पढ़ पाएंगे?”

विशेषज्ञों के मुताबिक, भय और दुश्चिंताओं के सबसे अधिक शिकार बच्चे हैं, उसके बाद उनकी मांएं और परिवारों की दूसरी महिलाएं। करीब 99 फीसदी लोग मनोवैज्ञानिक बीमारी- पोस्ट ट्राॅमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीडीएस) से जूझ रहे हैं और घरों में एक तरह से कैद हो गए बच्चे इसकी तपिश महसूस कर रहे हैं। वे घरों से बाहर नहीं जा सकते, उनका खेलना-कूदना बंद है, इंटरनेट तक भी पहुंच नहीं है। छोटे-छोटे बच्चों को तो यह भी नहीं मालूम कि जीवन में इस तरह का तूफान क्यों आ गया है, घर के छज्जे पर जाने से भी उन्हें क्यों मना किया जा रहा है, बिल्कुल पड़ोस में रहने वाले यार-दोस्तों से भी वे क्यों नहीं मिल-जुल सकते, घरवालों ने क्रिकेट-फुटबाॅल खेलने पर अचानक रोक क्यों लगा दी है। एक महिला ने रुंधे गले से कहा- “हमारे बच्चों का जीवन नरक हो गया है। हम अपने बच्चों को क्या कहें? इन सब के बारे में हम उन्हें कैसे बताएं?”

कई पत्रकार इस बात को मिथ बताते हैं कि सिर्फ तथाकथित निम्न वर्ग के लोग ही अपने बच्चों को लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं और ईंट-पत्थर बरसा रहे हैं। उनका कहना है कि सभी आय वर्ग के बच्चे विरोध प्रदर्शनों में खुलकर हिस्सा ले रहे हैं। एक तरह से, विरोध प्रदर्शन करने वाला नया जेनरेशन घरों से सड़कों पर निकल आया है और उन्हें किसी से डर नहीं लगता। वे सुरक्षाबलों के जवानों के सामने उग्रता के साथ जूझने लगे हैं। वे अन्य लोगों के मुकाबले अधिक तेजी से दौड़ते हैं, दीवारें फांद जाते हैं और जब तक कोई सोचे, तब तक आंखों से ओझल हो जाते हैं।


श्रीनगर के बाहरी इलाकों- सौरा और आंचर को वहां के लोगों ने आजाद इलाका घोषित कर दिया है। सड़कें खोद दी गई हैं; सेना न आ पाए, इसके लिए बड़े-बड़े पत्थर रख दिए गए हैं। सेना के वाहन न आ पाएं, इसके लिए कंटीले तार लगा दिए गए हैं। देर रात छापे डालने से रोकने के लिए कई युवा रात भर घूमते रहते हैं। पूरी रात लाउडस्पीकरों से नारे लगाए जाते हैं और इसकी आवाज थोड़ी दूर पर स्थित कथित तौर पर ’शांत’ लाल बाजार में भी सुनी जा सकती है।

ईद-मुहर्रम में भी ढील न मिलने से लोग खासे नाराज हैं। ईद की बात तो, खैर, पुरानी हो गई और इसकी काफी चर्चा भी हो गई है। लेकिन अभी बीते मुहर्रम में भी यही सब हुआ। ऐसे में, लोगों ने भी तरीके निकाल लिए हैं। अभी 31 अगस्त की रात श्रीनगर के लाल बाजार इलाके में शिया समुदाय के लोग एक हाॅल में जमा हुए। महिला-पुरुष सभी काले कपड़े पहने हुए थे। उन लोगों ने कर्बला में बलिदान की कहानियां सुनीं। लेकिन इन सबके बीच शायद ही कहीं बत्ती जलाई गई। वैसे, कई युवक मोटरसाइकिलों पर पेट्रोलिंग भी करते रहे। सब कुछ बंद था और घरों में भी बत्तियां नहीं जलाई गईं। अगर किसी ने अपने वाहन की बत्ती जला दी, तो उसे तोड़फोड़ दिया गया।

ऐसी हालत की वजह से स्थानीय लोग गुस्से में नजर आते हैं। काले कपड़े पहने एक युवक ने कहा भी- “ये लोग इस बार मुहर्रम का जुलूस भी निकालने नहीं दे रहे। काले झंडे और बैनर लगाना भी मना है। यह तो बिल्कुल गलत है।” संयोगवश अब तक जेल जाने से बचे रह गए एक युवा नेता ने कहा- “ये लोग हमें शांतिपूर्ण ढंग से मुहर्रम मनाने से क्यों रोक रहे हैं? क्या हम पहले ही दुख नहीं झेल रहे हैं? हमारा व्यापार चौपट है। हम एक-दूसरे से संपर्क नहीं कर पा रहे हैं। सेना के कब्जे के कारण हमारी ईद चैपट हो गई। हमारे इलाके में हिंसा की कोई घटना हुई क्या? हमने तो कभी विरोध-प्रदर्शन भी नहीं किया। हम पाकिस्तान के साथ नहीं जाना चाहते, न हमें स्वायत्तता चाहिए। फिर भी, वे आखिर क्यों हमें अपने संवैधानिक अधिकारों से वंचित कर दे रहे हैं? हम तो देशभक्त भारतीय हैं।”

सड़कों पर वज्र और अन्य सैन्य वाहन घूमते रहते हैं। उनमें सवार सेना के जवान हर वक्त बंदूकें ताने रहते हैं और चारों ओर घुमाते रहते हैं। कई इलाकों में हर पांच फीट पर सेना का एक जवान तैनात दिखता है। गलियों तक पर भी यही हाल है। ऐसा नहीं है कि सरकार ने दुकानें बंद कर रखी हैं। एक तो खौफ है; दूसरे, लोगों ने भी विरोध में बंद रखा हुआ है। वे खुद भी दुकानें बंद रख रहे हैं। यह नागरिक कर्फ्यू की तरह है। दुकानें सुबह और शाम थोड़ी-थोड़ी देर के लिए खुलती हैं। इनमें भी केवल वे दुकानें खुलती हैं, जिनमें रोजाना के उपयोग वाली चीजें मिलती हैं या जो मेडिकल शाॅप हैं।


प्रसिद्ध लाल चौक के पास के प्रेस एरिया में भी सन्नाटा है। इसकी भी बैरिकेडिंग की हुई है। ग्रेटर कश्मीर, कश्मीर रीडर, राइजिंग कश्मीर पहले स्टाॅल्स पर मिल जाते थे। अब नहीं मिलते, क्योंकि स्टाॅल्स खुलते ही नहीं। हां, हाॅकर्स इन्हें कितने घरों में पहुंचा रहे होंगे, यह कहना मुश्किल है। असंख्य बैरिकेड, कंटीले तारों के घेरों और चेक पोस्टों को वे किस तरह पार कर अपने ग्राहकों तक किस तरह पहुंच पाते होंगे, यह सिर्फ सोचा जा सकता है।

अखबार भी चार पन्ने के निकल रहे हैं। आखिर, वे छापें भी क्या? उन्होंने संपादकीय लिखना बंद कर दिया है। कहीं लिखा-पढ़ी नहीं है, लेकिन अखबारों को देखकर कोई भी समझ सकता है कि सेंसरशिप लागू है। सरकार जो चाहती है, वही बातें पहले से आखिरी पेज तक दिखती हैं। कोई भी न तो ग्राउंड रिपोर्ट छाप रहा है, न कोई ऐसी तस्वीर जिससे जनजीवन की वास्तविक स्थिति का पता चले।

एक दिन एक अखबार ने अपने ओपेड पेज पर चेहरे को चमकाने वाले तरह-तरह के उत्पादों के लाभ के बारे में लेख छापा। इसे पढ़ते हुए नेपाल के अखबारों की याद आई। जब वहां राजा ज्ञानेंद्र ने आपातकाल लागू किया था और सेना ने अखबारों के दफ्तरों को अपने कब्जे में रखा हुआ था, तो एक अखबार ने जुराबों और शैम्पू पर व्यंग्यात्मक संपादकीय लिखकर अपना विरोध दर्ज किया था।

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Published: 13 Sep 2019, 7:59 PM
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