जलवायु परिवर्तन को लेकर दुनियाभर में लापरवाही, इतिहास बन चुका है पेरिस समझौता

पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले कुल 194 देश हैं, पर संयुक्त राष्ट्र में फरवरी 2025 की तय समय सीमा तक देशों की संशोधित कार्य योजना जमा करने वाले महज 15 देश हैं।

जलवायु परिवर्तन से बिगड़ रहा स्वास्थ्य
जलवायु परिवर्तन से बिगड़ रहा स्वास्थ्य
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महेन्द्र पांडे

डोनाल्ड ट्रम्प ने अमेरिका को जलवायु परिवर्तन रोकने से संबंधित पेरिस समझौते से अलग कर लिया है। राष्ट्रपति चुने जाने से पहले ही उन्होंने इसका ऐलान कर दिया था, और तब से तमाम देशों के नेता और मीडिया ट्रम्प के इस कदम की आलोचना कर रहा है। मीडिया के साथ ही तमाम देशों के, विशेषकर यूरोपीय देशों के नेता, लगातार यह बताने में जुटे हैं कि ट्रम्प का यह निर्णय वैश्विक समुदाय के विरुद्ध है। पेरिस समझौते का गहन विश्लेषण करने वाले विशेषज्ञों के अनुसार भले ही दूसरे बड़े देश ट्रम्प की आलोचना कर रहे हों, पर तथ्य यह है कि दुनिया का शायद ही ऐसा कोई देश होगा जो पेरिस समझौते का पालन कर रहा होगा। भारत समेत हरेक देश के नेता अन्तराष्ट्रीय मंचों पर जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने के लिए बोलते बहुत हैं पर वास्तविक तौर पर इसे नियंत्रित करने के लिए कुछ करते नहीं।

पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले कुल 194 देश हैं, पर संयुक्त राष्ट्र में फरवरी 2025 की तय समय सीमा तक देशों की संशोधित कार्य योजना जमा करने वाले महज 15 देश हैं। पेरिस समझौते के तहत हरेक देश को जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने और इसके प्रभावों से निपटने की पंचवर्षीय कार्य योजना, जिसे नेशनली डिटरमाइन्ड कंट्रीब्यूशन यानि एनडीसी कहा जाता है, संयुक्त राष्ट्र में जमा करना पड़ता है। संशोधित एनडीसी को जमा करने की समय सीमा फरवरी 2025 में समाप्त हो गई और अबतक संयुक्त अरब एमीरात, स्विट्ज़रलैंड, यूनाइटेड किंगडम, जापान और प्रशांत क्षेत्र के कुछ देशों समेत कुल 15 देशों ने ही एनडीसी जमा किया है।

सभी देशों के एनडीसी से ही यह पता चलता है कि तमाम देश इस शताब्दी के अंत तक तापमान बृद्धि को 1.5 से 2 डिग्री सेल्सियस तक रोकने के लिए क्या कर रहे हैं। पर, जब इसे जमा ही नहीं किया जाता तब कोई जानकारी नहीं मिलती। अमेरिका ने अपने एनडीसी में वर्ष 2005 की तुलना में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2035 तक 61 से 66 प्रतिशत कटौती की बात कही थी, पर अब ट्रम्प ने अमेरिका को पेरिस समझौते से केवल अलग ही नहीँ किया है बल्कि इसके नाम को भी खत्म कर दिया है। ऐसे दौर में अमेरिका अपने एनडीसी पर कायम रहेगा, इसकी कोई संभावना नहीं है। ट्रम्प ने आते ही पट्रोलियम उद्योग से भी सारी पाबंदियाँ हटा ली हैं, और “ड्रिल, बेबी ड्रिल” का नारा बुलंद किया है।

भारत, चीन और रूस जैसे ग्रीनहाउस गैसों के प्रमुख उत्सर्जक देशों ने एनडीसी को जामा नहीं किया है। भारत ने पिछले एनडीसी में वर्ष 2005 के मुकाबले में वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 35 प्रतिशत कमी लाने का लक्ष्य रखा था, पर सरकारी योजनाओं के संदर्भ में देखने पर इस लक्ष्य को हासिल करना लगभग असंभव है। नवीनीकृत ऊर्जा उत्पादन में बढ़ोत्तरी के तमाम दावों के बीच देश में कोयला और पट्रोलियम का उपयोग भी बढ़ता जा रहा है, पुराने घने जंगल तेजी से काटे जा रहे हैं और पर्यावरण संरक्षण पर किसी का ध्यान नहीं है। भारत ने संयुक्त राष्ट्र में जितने भी एनडीसी जमा किए हैं, सबको विशेषज्ञों द्वारा अपर्याप्त करार दिया गया है, और इस बार के बजट में भी तापमान बृद्धि से निपटने का कोई विशेष प्रावधान नजर नहीं आता।


संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज के इस वर्ष आयोजित किए जाने वाले 30वें अधिवेशन के आयोजक देश ब्राजील ने भी एनडीसी तो जमा नहीं किया है, पर उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य जमा किया है। इसके अनुसार वर्ष 2005 की तुलना में वर्ष 2035 तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को 59 से 67 प्रतिशत तक काम कर दिया जाएगा, पर विशेषज्ञों के अनुसार ब्राजील के लिए ऐसा कर पाना असंभव है। जापान के एनडीसी में वर्ष 2013 की तुलना में वर्ष 2035 तक उत्सर्जन में 60 प्रतिशत कटौती और वर्ष 2040 तक 73 प्रतिशत कटौती का लक्ष्य है। यूनाइटेड किंगडम ने 1990 की तुलना में वर्ष 2035 तक उत्सर्जन में 81 प्रतिशत कटौती का प्रावधान रखा है।

चीन ने वर्ष 2005 की तुलना में वर्ष 2030 तक उत्सर्जन में 65 प्रतिशत कमी लाने का लक्ष्य रखा है, पर पिछले वर्ष वाएमण्डल में कार्बन डाइआक्साइड के उत्सर्जन में जितनी भी बृद्धि दर्ज की गई उसमें से 90 प्रतिशत बृद्धि का जिम्मेदार अकेला चीन ही था। पेरिस समझौते से अमेरिका के बाहर आने के बाद यूरोपीय संघ के देशों को इस विषय पर विश्व की अगुवाई का एक मौका मिला था, पर इन देशों ने अब तक एनडीसी भी नहीं जमा किया है।

जलवायु परिवर्तन और तापमान बृद्धि के घातक प्रभाव लगातार बढ़ते जा रहे हैं तो दूसरी तरफ लगभग सभी देश इस विषय की पूरी तरह उपेक्षा कर रहे हैं। अनेक विशेषज्ञ अब कहने लगे हैं कि पेरिस समझौता अब मर चुका है। इसकी असफलता का एक बड़ा कारण चरम पूंजीवाद है। चैरिटी संस्था ऑक्सफैम ग्रेट ब्रिटेन ने हाल में ही कार्बन उत्सर्जन के संदर्भ में बढ़ती असमानता पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। यदि दुनिया की जनसंख्या को आर्थिक समृद्धि के संदर्भ में बाँट दिया जाए, तब सबसे समृद्ध 1 प्रतिशत आबादी के हरेक व्यक्ति ने अपने वार्षिक कार्बन उत्सर्जन का कोटा वर्ष 2025 के पहले 10 दिनों में ही समाप्त कर डाला है। इस वार्षिक उत्सर्जन के कोटे को संयुक्त राष्ट्र के उत्सर्जन गैप रिपोर्ट में बताए गए तापमान बृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकने के लिए आवश्यक वार्षिक उत्सर्जन को दुनिया की कुल जनसंख्या, 8.5 अरब से, भाग देकर निर्धारित किया गया है। रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी के किसी भी व्यक्ति को कार्बन उत्सर्जन की वार्षिक सीमा तक पहुँचने में कम से कम तीन वर्षों का समय लगेगा। इन आंकड़ों से इतना तो स्पष्ट है कि सबसे अमीर व्यक्तियों का कार्बन उत्सर्जन सबसे गरीब व्यक्ति की तुलना में 100 गुना से भी अधिक है।

भारत समेत दुनिया के हरेक देश में पूंजीवादी ताकतें ही प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर सत्ता पर काबिज हैं और पूंजीवाद को केवल त्वरित फायदा नजर आता है। यही कारण है कि जो अरबपति नवीनीकृत ऊर्जा को बढ़ा रहे हैं वही कोयले का उपयोग भी बढ़ाते जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन को रोकने से देशों का फायदा होगा पर इसे नहीं रोककर पूंजीपति सरकारों से अधिक मुनाफा कमा रहे हैं। दुनिया के हरेक देश में देश की वार्षिक जीडीपी वृद्धि की तुलना में पूँजीपतियों की आमदनी कई गुना अधिक बढ़ रही है। तमाम वैज्ञानिक और संस्थान यह बता रहे हैं कि तापमान वृद्धि को नियंत्रित करने से देशों की जीडीपी बढ़ेगी, पर पूंजीवाद केवल अपना मुनाफा चाहता है।

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