कोरोना मरीज़ों की तो हर कोई कर रहा बात, लेकिन इलाज करने वालों का भी तो कोई पूछे हाल!

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के आंकड़े बताते हैं कि कोविड के दौरान काम करते हुए एक हजार से अधिक डॉक्टरों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। अग्रिम पंक्ति के हेल्थ वर्करों की कोविड से मृत्यु होने पर 50 लाख रुपये के मुआवजे की घोषणा की गई थी, पर इस तरह की राशि पाने वाले गिने-चुने ही हैं।

फोटो : Getty Images
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डॉ वी के सिन्हा

डॉ सिराजुद्दीन अपने परिवार, बल्कि कुटुंब में पोस्टर ब्वॉय की तरह थे। अपनी लगन और आत्मविश्वास के बूते उन्होंने सरकारी मेडिकल कॉलेज में पोस्ट ग्रेजुएट में सीट पाने में कामयाबी हासिल की थी। यह वह निर्णायक मोड़ था जिसका उनका पूरा परिवार इंतजार कर रहा था। उनके उत्साह का कोई ओर-छोर न था। उन्होंने दूसरे डॉक्टरों को जैसा देखा, उसी तरह वह भी कोविड वार्ड में दिन-रात सेवाएं देने लगे। संभवतः इसी वजह से वह खुद कोविड के शिकार हो गए। लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि जिस अस्पताल में रोगियों के लिए उन्होंने अपनी कई रातें खराब कर दीं, वह बीमार हुए, तो वहां उन्हें कोई बेड नहीं मिल पाया। उनकी सांसें अब-तब करती रहीं और उन्हें उनके परिजन इलाज के लिए एक से दूसरे अस्पताल ले जाते रहे। बिल्कुल आखिरी वक्त वह जिस अस्पताल में गए, वहां का बिल भी मेडिकल समुदाय की उदारता से ही जमा हो पाया।

कोई सैनिक युद्ध में अपनी आहुति इस भरोसे पर ही देता है कि कृतज्ञ राष्ट्र उसकी पीठ पर है। मेडिकल कर्मियों- कोराना योद्धाओं के मामले में गीत रचे गए हैं, आकाश से फूल बरसाए गए हैं। लेकिन कोई यह नहीं पूछ रहा है कि इन नायकों को अस्पताल में बेड और उपचार की सुविधाएं क्यों नहीं मिल पा रहीं। हाल यह तक कि देश की राजधानी में ही उन्हें पिछले साल का बकाया भी तब मिल पाया जब न्यायालय ने इस मामले में हस्तक्षेप किया।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के जुटाए डेटा बताते हैं कि कोविड के दौरान काम करते हुए एक हजार से अधिक डॉक्टरों को अपनी जान गंवानी पड़ी है। अग्रिम पंक्ति के हेल्थ वर्करों की कोविड की वजह से मृत्यु होने पर 50 लाख रुपये के मुआवजे की घोषणा की गई थी, पर इस तरह की राशि पाने वाले गिने-चुने ही हैं। इस स्थिति से नाराज आईएमए, बिहार के अध्यक्ष डॉ. अजय कुमार बताते हैं कि सिर्फ बिहार में पिछले 11 अप्रैल तक इस संक्रमण की वजह से 111 डॉक्टर अपनी जान गंवा बैठे हैं। इनमें से आधे से कम ही सरकारी सेवा में थे। सरकार ने निजी डॉक्टरों को सिर्फ तब ही बीमा कंपनी के जरिये 50 लाख मुआवजे की घोषणा की थी ‘जब वे कोविड सेवा में लगे होंगे।’


जब सरकार ने सभी निजी अस्पतालों को कोविड बेड रखने का आदेश दे दिया और सभी प्राइवेट क्लीनिकों को इस चेतावनी के साथ खुला रखने का आदेश दे दिया कि ऐसा न करने पर उन पर प्राथमिकी दर्ज की जाएगी, तो इसका मतलब है कि सभी डॉक्टर कोविड मरीजों की सेवा में लगे हैं। पर हाल यह है कि सरकारी सेवा में रहते हुए जान गंवाने वाले डॉक्टरों के परिजनों को भी भारी मशक्कत करनी पड़ रही है। बीमा कंपनियां जानना चाहती हैं कि गुजर गए डॉक्टर अगर कोविड ड्यूटी पर थे, तो क्या उन्हें कोई और बीमारी तो नहीं थी, उन्होंने पहले अपनी जांच कराई थी या नहीं और उन्होंने सतर्कताएं बरती थीं या नहीं। संक्षेप में कहें, तो बीमा कंपनी बीमित राशि को देने से मना करने का कोई-न-कोई आधार खोज निकालने का हर संभव प्रयास करती है। बीजेपी के ही एक राज्यसभा सदस्य डीपी वत्स ने सदन में इस मामले को उठाया भी था लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला।

सबसे अच्छे दिनों में भी मेडिकल प्रोफेशन से जुड़े लोगों के लिए जीवन-मृत्यु से जूझने और रोग का शिकार हो जाने के खतरे की बातें जुड़ी रहती हैं। लंदन के किंग्स कॉलेज के नील ग्रीनबर्ग ने ब्रिटिश मेडिकल जर्नल (बीएमजे) में प्रकाशित एक विद्वत्तापूर्ण विश्लेषण में एक अन्य चिंता की बात कही हैः ‘नैतिक या सैद्धांतिक नियमों के उल्लंघन वाले कामों या उनकी कमी से होने वाला मनोवैज्ञानिक कष्ट नैतिक आघात करता है जिससे शर्म, ग्लानि या विरक्ति का गहरा भाव पैदा होता है। व्यग्रता और विषाद के मिल-जुल जाने पर वह गहरे आघात के बाद वाला गहरा विकार पैदा करता है जो कई बार आत्महत्या की स्थिति की ओर धकेलने वाला होता है।’

दिल्ली के होली फैमिली अस्पताल में 26 साल के डॉक्टर रोहन अग्रवाल की स्थिति इसका बिल्कुल प्रत्यक्ष प्रमाण है। भले ही कई लोगों को बेड की सख्त जरूरत हो, उन्हें ही फैसला करना है कि उस वक्त किस एक व्यक्ति को खाली बेड देना है। वह जानते हैं कि बाकी लोगों को भी बेड की उतनी ही जरूरत है लेकिन वह बेबस हो जाते हैं। ये बातें शेष जीवन उनका पीछा करती रहेंगी। आश्चर्य नहीं है कि इस सेवा को छोड़कर भी जीवन-यापन करने में सक्षम ऐसे कई लोगों ने इस पेशे को ही त्याग देने का फैसला किया है।

किसी योद्धा की सबसे बड़ी पूंजी उसका हौसला है। सिर्फ लच्छेदार बातों से कुछनहीं होने वाला।

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