पानी ही उतार रहा बड़े और स्मार्ट शहरों का पानी, विकास के नाम पर प्रकृति का दोहन पड़ रहा भारी
किसी ने भी प्रकृति का आदर नहीं किया, निचले इलाकों पर अतिक्रमण कर लिए गए और इलाकाई जमीन की रूपरेखा में बदलाव कर दिया गया। सरोवर-तालाब पाट दिए गए और जिन रास्तों से बरसात का पानी जमीन में जाता था, उन पर कंक्रीट के निर्माण कर दिए गए।
![फोटोः gettyimages](https://media.assettype.com/navjivanindia%2F2022-09%2F4399977d-710b-4dd4-b7b8-794968318f07%2FBengaluru_Water_Logging.jpg?rect=0%2C52%2C1000%2C563&auto=format%2Ccompress&fmt=webp)
अभी हाल में बेंगलुरु के उन इलाकों के वीडियो आपने सोशल मीडिया पर खूब देखे होंगे जो भारी बारिश के बाद डूब गए थे। वहां 10 से 12 करोड़ में खरीदे गए घरों तक में पानी घुस आया था, बड़े वाहन डूबे थे, सड़कों पर नावें चल रही थीं, लोगों को ट्रैक्टर ट्रॉली से बचाया जा रहा था और ऐसे में, कई बड़ी कंपनियों को भी अपने कर्मचारियों को वर्क फ्रॉम होम करने को कहना पड़ा था।
हाल यह है कि राहत कार्य का जायजा लेने गए कर्नाटक के मुख्यमंत्री बसवराव बोम्मई तक को आईटी (इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी) और कस्टमर सर्विस कंपनियों के अधिकारियों ने धमकी दी कि अगर स्थिति में सुधार नहीं हुआ, तो उन्हें अपने ऑफिस यहां से दूसरे राज्य में ले जाने होंगे। करीब एक हफ्ते बाद ही यहां से करीब 800 किलोमीटर दूर एक अन्य आईटी शहर- महाराष्ट्र के पुणे में भी कुल मिलाकर यही दृश्य था। इन दोनों शहरों का यह हाल सितंबर के पहले दो हफ्ते में हुआ।
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वैसे तो बोम्मई ने इसके लिए अतिक्रमण को जिम्मेदार ठहराते हुए पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों को दोषी ठहरा दिया और बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका (बीबीएमपी) ने अतिक्रमण हटाओ अभियान शुरू कर दिया। लेकिन बेंगलुरु, पुणे और मुंबई में इन स्थितियों के लिए असली दोषियों पर न तो कार्रवाई हो रही है और न ऐसे कदम उठाए जा रहे कि भविष्य में ऐसे हालात पैदा न हों।
दरअसल, इन शहरों के पुराने बसे इलाकों की तुलना में पिछले दो-ढाई दशक में बसे नए इलाकों में बारिश ज्यादा कहर ढा रही है जबकि नए इलाकों में बेहतर नागरिक इन्फ्रास्ट्रक्चर होना चाहिए था क्योंकि इन्हें सोच-समझकर और नियोजित तरीके से विकसित किया गया था। यही हालत उन सभी कथित स्मार्ट सिटी की है जिनके ‘विकास’ के लिए करोड़ों रुपये झोंके जा रहे हैं।
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इसकी समान्य-सी वजह यह है कि यहां बारिश के पानी के ड्रेनेज सिस्टम पर न तो ध्यान दिया गया है, न दिया जा रहा। मुंबुई का तो हाल यह है कि पिछले साल क्लाइमेट एक्शन प्लान फॉर मुंबई सिटी को लॉन्च करते हुए तत्कालीन नगरपालिका आयुक्त इकबाल सिंह चहल ने यह तक कह दिया था कि 2050 तक समुद्र का जलस्तर बढ़ने की वजह से नरीमन प्वाइंट और राज्य सचिवालय, मंत्रालय समेत दक्षिण मुंबई के इलाके डूब जाएंगे।
भारत समेत कई देशों में पर्यावरण और सामाजिक विषयों पर काम करने वाले इन्वायरमेन्ट सपोर्ट ग्रुप (ईएसजी) की ट्रस्टी भार्गवी एस राव समस्या की मूल वजह बताते हुए कहती हैं, ‘बेंगलुरु के पुराने इलाके ब्रिटिश मॉडल पर बनाए गए थे जहां ड्रेनेज और सीवेज व्यवस्था का ध्यान रखा गया था जबकि नए बसे इलाकों में कर्नाटक टाउन कंट्री प्लानिंग कानून का उल्लंघन किया गया।’ उन्होंने बताया कि ‘सरोवरों और तालाबों पर नए इलाके बसा दिए गए क्योंकि आईटी कंपनियां कर्नाटक की जीडीपी बढ़ा रही थीं और 1990 और 2000 के दशकों में इनके साथ प्यारे-दुलारे बच्चों की हर जिद पूरी करने की तरह बरताव किया गया।’
ईएसजी की रिपोर्ट के अनुसार, कर्नाटक में कभी 40,000 तालाब और हजारों किलोमीटर की नहरें थीं। हाल के दशकों में 10,000 से ज्ययादा तालाब नष्ट हो गए हैं। बेंगलुरु में भी 400 तालाब थे जिनमें से, सरकारी आकलन के अनुसार, 200 से अधिक तालाब या तो नष्ट हो गए हैं या उन पर अतिक्रमण का गंभीर खतरा है।
राव ने कहा कि नए विकसित इलाकों में कई पूल और खूबसूरत पेन्ट हाउस बना दिए गए हैं, अपार्टमेंट और भवनों में दो से तीन लेवल में पार्किंग की जगहें हैं लेकिन पानी निकासी और ड्रेनेज-सीवर की व्यवस्था ही नहीं है। समस्या इसलिए बढ़ती गई है क्योंकि बेंगलुरु विकास प्राधिकरण, कर्नाटक उद्योग और क्षेत्रीय विकास बोर्ड, बेंगलुरु महानगर क्षेत्रीय विकास प्राधिकरण-जैसी एजेंसियों के बीच तालमेल ही नहीं है।
नागरिक विषयों के लेखक वी रविचंदर ने भी कहा कि ‘किसी ने भी प्रकृति का आदर नहीं किया, निचले इलाकों पर अतिक्रमण कर लिए गए और इलाकाई जमीन की रूपरेखा में बदलाव कर दिया गया। सरोवर-तालाब पाट दिए गए और जिन रास्तों से बरसात का पानी जमीन में जाता था, उन पर कंक्रीट के निर्माण कर दिए गए।’
पुणे में दूसरी स्थिति हो रही है। ब्रिटिश काल में बने कैन्टोनमेंट क्षेत्र के मकानों में इस बार भारी बारिश के दौरान पानी घुस गया। यहां भी वजह यही है कि पिछले लगभग 50 साल में आसपास विकसित किए गए इलाकों में ड्रेनेज इन्फ्रास्ट्रक्चर का ध्यान तो नहीं ही रखा गया, इनकी सफाई पर भी तवज्जो नहीं दी गई। प्रमुख नागरिक अधिकार संगठन- सिटिजन्स ऑफ एरिया सभा के संयोजकों में से एक रवीन्द्र सिन्हा ने कहा भी कि ‘पुणे नगरपालिका निगम (पीएमसी) ने पूरे शहर में फैली ड्रेनेज व्यवस्था के अध्ययन का दायित्व एक प्राइवेट एजेंसी को सौंपा। आश्चर्यजनक तरीके से पीएमसी की विकास योजना से नालियां गायब थीं। इन पर अतिक्रमण हो गए और अवैध निर्माण कर दिए गए। शहर में जगह-जगह पानी भर जाने की यही वजह है।’
पीएमसी के पूर्व आयुक्त महेश जगाडे भी कहते हैं कि ‘विकास योजना में 1987 के बाद से भूमि के उपयोग के आवंटन में मनमानी और पानी के प्राकृतिक बहाव की अनदेखी होती रही। हमने 2011 में शहर के इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए एक योजना तैयार की थी लेकिन स्टैंडिंग कमेटी ने इसे ठुकरा दिया।
(साथ में मुंबई से संतोषी गुलाबकली मिश्र)
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Published: 18 Sep 2022, 7:11 PM