जलवायु परिवर्तन से चावल में हो रही पोषक तत्वों की कमी, बड़ी तादाद में लोग हो रहे हैं कुपोषित

तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन हमें कुपोषण की तरफ ले जा रहे हैं। हमारे देश के लिए यह खबर अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि पूरी दुनिया में सबसे बड़ी कुपोषित आबादी हमारे देश में ही है। पोषण के नाम पर भले ही अनेक योजनाएं चल रही हों, लेकिन असर कहीं दिखाई नहीं देता।

फोटो: महेंद्र पाण्डेय
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महेन्द्र पांडे

युनिवर्सिटी ऑफ टोक्यो के प्रोफेसर कजुहिको कोबायाशी की अगुवाई में किए गए एक अध्ययन से स्पष्ट होता है कि जैसे-जैसे वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता बढ़ती जाएगी, वैसे-वैसे चावल में पोषक तत्वों की कमी होगी। यह अध्ययन ‘साइंस एडवांसेज जर्नल’ नाम के नए अंक में प्रकाशित किया गया है। ध्यान देने वाला तथ्य यह है कि इसी वर्ष के अप्रैल महीने में कार्बन डाइऑक्साइड की औसत सांद्रता 410 पीपीएम से अधिक थी, जो पिछले 8 लाख वर्षों में इस गैस की वायुमंडल में सबसे अधिक सांद्रता थी। अनुमान है कि इस शताब्दी के उत्तरार्ध में इस गैस की सांद्रता 568 से 590 पीपीएम तक पहुंच जाएगी। यदि ऐसा हुआ तो चावल में प्रोटीन, विटामिन, आयरन और जिंक जैसे पोषक तत्वों की कमी हो जाएगी। सबसे अधिक कमी, 30 प्रतिशत, विटामिन बी9 में होगी। इस विटामिन को फोलेट कहते हैं। इसे गर्भवती महिलाओं को उनके और गर्भ में पल रहे बच्चे के पोषण के लिए दिया जाता है। इसी तरह प्रोटीन में और आयरन में 10 प्रतिशत और जिंक में 5 प्रतिशत की कमी हो सकती है।

जाहिर है चावल में पोषण की कमी से दो अरब से अधिक लोग प्रभावित होंगे, क्योंकि इनके लिए चावल ही मुख्य भोजन है। प्रोफेसर कजुहिको कोबायाशी के अनुसार पूरे विश्व में एक बड़ी आबादी के लिए चावल केवल कैलोरी का स्त्रोत ही नहीं है, बल्कि प्रोटीन और विटामिन का भी प्रमुख स्त्रोत है। एशियाई देशों में तो कृषि का आरम्भ ही धान की खेती से हुआ है और अब यह अफ्रीका के देशों में भी बड़े पैमाने पर पैदा किया जा रहा है। वर्तमान में धान की खेती अंटार्कटिका को छोड़कर शेष सभी महाद्वीपों पर और सभी प्रकार के जलवायु में की जा रही है।

फोटो: महेंद्र पाण्डेय
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कृषि वैज्ञानिक और इतिहासकार इस तथ्य से सहमत हैं कि धान की खेती चीन में शुरू की गई थी। लेकिन इसका विस्तार दूसरे दक्षिण एशियाई देशों में कैसे हुआ इसपर मतभेद है। 17 मई को ‘साइंस एडवांसेज जर्नल’ के अंक में विज्ञान लेखिका लिजी वेड ने इस विषय पर नई जानकारी प्रस्तुत की थी। उनके अनुसार बहुत पुराने मानव अवशेषों के डीएनए अध्ययन से पता चला है कि चीन के कुछ भ्रमण के शौकीन किसान दूसरे देशों की यात्रा के समय अपने साथ धान के बीज ले गए और वहां के लोगों को इसकी खेती से सम्बंधित जानकारी दी। इसका सीधा सा मतलब है कि दक्षिण एशियाई देशों में स्थानीय निवासियों या उनके पड़ोसी देशों को धान के खेती की जानकारी सुदूर चीन से आए मेहमानों ने दी।

यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन की प्रोफेसर क्रिस्टी इबी, जो उपरोक्त अध्ययन की सह लेखिका हैं, उनके अनुसार, चावल में पोषक पदार्थों की कमी से करोड़ों महिलाओं और उनके बच्चों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। पोषक पदार्थों की कमी से बच्चों की सामान्य बृद्धि प्रभावित होगी, पेट की बीमारियों के साथ मलेरिया के मामले भी बढ़ेंगे।

प्रोफेसर कजुहिको कोबायाशी के अनुसार, उन्हें कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता से चावल में पोषक पदार्थों में कमी की आशंका वर्ष 1998 से ही थी, जब उन्होंने देखा कि खुले खेतों में पैदा किया गए चावल की गुणवत्ता और बंद ग्रीनहाउस में पैदा किये गए चावल की गुणवत्ता में अंतर होता है. बंद ग्रीनहाउस में कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता खुले स्थानों की अपेक्षा अधिक होती है। वर्तमान अध्ययन इस दल ने चीन और जापान के खेतों में किया। खेत का कुछ हिस्सा सामान्य रखा गया और शेष हिस्से में ग्रीनहाउस बनाकर प्लास्टिक की पाइप से कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता बढ़ाई गई।

पिछले वर्ष एनवायर्नमेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव नामक जर्नल में प्रकाशित एक लेख के अनुसार तापमान बृद्धि से गेहूं, चावल और जौ जैसी फसलों में प्रोटीन की कमी हो रही है। अभी लगभग 15 प्रतिशत आबादी प्रोटीन की कमी से जूझ रही है और वर्ष 2050 तक लगभग 15 करोड़ अतिरिक्त आबादी इस संख्या में शामिल होगी। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के अनुसार, विश्व की लगभग 76 प्रतिशत आबादी अनाजों से ही प्रोटीन की भरपाई करती है। लेकिन अब मिट्टी में पोषक तत्वों की कमी के कारण इनमें प्रोटीन की कमी आ रही है। इन वैज्ञानिकों ने अपने आलेख का आधार लगभग 100 शोधपत्रों को बनाया जो फसलों पर वायुमंडल में बढ़ते कार्बन डाइऑक्साइड के प्रभावों पर आधारित थे।

तापमान वृद्धि और जलवायु परिवर्तन हमें कुपोषण की तरफ ले जा रहे हैं। हमारे देश के लिए यह खबर अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि पूरी दुनिया में सबसे बड़ी कुपोषित आबादी हमारे देश में ही है। पोषण के नाम पर भले ही अनेकों योजनाएं चल रही हों, लेकिन असर कहीं दिखाई नहीं देता।

वर्ष 2015 की एक रिपोर्ट के अनुसार कुपोषण के कारण देश में 38.7 प्रतिशत बच्चों की पूरी बृद्धि नहीं होती, 29.4 प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम होता है और 15 प्रतिशत बच्चों में लम्बाई के अनुसार, वजन कम रहता है। वैज्ञानिक पत्रिका लांसेट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार हमारे देश में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु में से 45 प्रतिशत का कारण कुपोषण है।

यदि हमें सामाजिक स्तर पर सही में सुधार करना है तो पोषक तत्वों में कमी का विस्तृत आकलन कर इससे निपटने के उपाय शीघ्र खोजने होंगे, वर्ना बहुचर्चित वर्ष 2022 तक भी हमारा देश दुनिया की सबसे बड़ी कुपोषित आबादी का बोझ उठा रहा होगा।

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Published: 03 Jun 2018, 9:05 AM
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