370 हटने का एक साल: कश्मीर में न हिंसा रुकी, न आतंकवाद और न ही फूटी विकास की किरण 

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म हुए एक साल हो गया है और इस क्षेत्र में शांति और विकास की नई सुबह की कोई किरण अब तक नहीं फूटी है। हिंसा में कोई कमी नहीं आई है। भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के बीच रोजाना झड़प हो रही है। लोगों में दबा हुआ गुस्सा है।

Photo : Adil Abass/Barcroft Media via Getty Images
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गुलजार बट

केंद्र की बीजेपी सरकार ने 5 अगस्त, 2019 को जब अचानक जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करते हुए राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख, में बांटा तो केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने संसद में कहा था कि इससे क्षेत्र में लंबे समय से हो रहा खून-खराबा रुकेगा और विकास की एक नई सुबह आएगी। आरएसएस और बीजेपी ने देशभर में इस कदम का जश्न मनाया। हालांकि एक साल बाद कश्मीर की स्थिति में कुल मिलाकर गिरावट ही आई है और सामान्य हालात तो दूर की कौड़ी है। आतंकवादियों की भर्तियों में जरूर कमी आई है लेकिन हिंसा में तो कतई नहीं।

श्रीनगर स्थित मानवाधिकार संगठनों- जम्मू कश्मीर कोअलिशन ऑफ सिविल सोसाइटी (जेकेसीसीएस) और एसोसिएशन ऑफ पेरेंट्स ऑफ डिसएपियर्ड पर्सन्स (एपीडीपी) द्वारा तैयार की गई द्वि- वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, इस साल जनवरी से जून के दौरान 32 नागरिक, 143 आतंकवादी और 54 सुरक्षा कर्मी मारे गए। इसी तरह, पाकिस्तान द्वारा संघर्ष विराम उल्लंघन की घटनाओं में भी खासा इजाफा हुआ।

24 जुलाई को पुलिस महानिदेशक दिलबाग सिंह ने बताया कि पाकिस्तान द्वारा संघर्ष विराम उल्लंघन के मामले पिछले साल की तुलना में 50-60 फीसदी बढ़े हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल 5 अगस्त के कदम से खून-खराबे में कोई कमी नहीं आई। घाटी में रहने वाले राजनीतिक पर्यवेक्षक प्रोफेसर नूर अहमद बाबा कहते हैं, “हमें बड़ी ईमानदारी से यह मानना चाहिए कि सरकार ने उस समय जो भी वादे किए, जमीनी हालात उनकी तस्दीक नहीं करते। सामान्य स्थिति अब भी दूर की कौड़ी है। कोई खुशहाली नहीं आई, कहीं कोई विकास नहीं हुआ।”


सियासत के लिए जगह नहीं

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने के कुछ घंटे पहले तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों- डॉ. फारूक अब्दुल्ला, उनके बेटे उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती- को हिरासत में ले लिया गया था। जहां फारुक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला को कई महीनों बाद रिहा कर दिया गया, मुफ्ती को अब भी हिरासत में रखा गया है। तब से कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य पर एक मनहूस सन्नाटा पसरा हुआ है। नेशनल कांफ्रेंस के ये दोनों नेता कुछ छिटपुट बयानों को छोड़कर 5 अगस्त के फैसले पर खुलकर बोलने से परहेज करते हैं। 26 जुलाई को जरूर सीनियर अब्दुल्ला ने मीडिया से बातचीत में अनुच्छेद-370 को खत्म करने को जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ धोखा करार दिया।

रिहा किए गए पीडीपी नेताओं ने भी विशेष दर्जा खत्म करने और उसके बाद की स्थिति पर मुंह सिल रखे हैं। घाटी के राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मुख्यधारा के नेताओं के लिए अब बोलने को कुछ रहा नहीं क्योंकि जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करके सरकार ने अलगाववादियों के नजरिये को ही पुख्ता किया है। घाटी के शाहनवाज मंटू कहते हैं, “इस कदम से अलगाववादियों को बढ़ावा मिला है और सरकार ने खुद कश्मीर में मुख्यधारा की राजनीति की हत्या कर दी है।” नेशनल कॉन्फ्रेंस के प्रवक्ता इमरान नबी डार ने ‘नवजीवन’ को बताया कि नई दिल्ली ने जम्मू-कश्मीर में मुख्यधारा के नेताओं को बदनाम कर रखा है। डार कहते हैं, “मुख्यधारा के राजनीतिक दलों, विशेष रूप से एनसी ने नब्बे के अशांत दशक में चुनाव लड़ा। यह हमें महंगा पड़ा और हमारे हजारों कार्यकर्ता आतंकवादियों की गोलियों में मारे गए। नई दिल्ली ने जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म करके हमारी तमाम कुर्बानियों को खारिज कर दिया है।”

नए कानून से बढ़ी असुरक्षा की भावना

कोविड-19 महामारी ने सरकार को नए कानूनों को लागू करने का मौका दे दिया। सीपीएम नेता मोहम्मद यूसुफ तारिगामी ने कहा, “जब सरकार को कोविड-19 के संक्रमण को खत्म करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए था, उसने इसका इस्तेमाल विवादित कानूनों को अमल में लाने में किया क्योंकि लॉकडाउन के कारण कोई विरोध करने की स्थिति में नहीं था। 1 अप्रैल को सरकार ने नया डोमिसाइल कानून लागू किया। इसने दोनों क्षेत्रों के लोगों में असुरक्षा की भावना को बढ़ा दिया है। जम्मू के स्नातकोत्तर छात्र संजय कोतवाल ने कहा, “बाहरी लोग अब हमारी नौकरियां खा जाएंगे, हमें विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में जगह नहीं मिलेगी।”

2 जून को लाई गई नई मीडिया नीति अधिकारियों को यह तय करने का अधिकार देती है कि कौन-सी खबर “फेक या राष्ट्र- विरोधी” है। यूएपीए के तहत दो पत्रकारों पर मामला दर्ज किया जाता है। 5 अगस्त से सरकार लगातार पत्रकारों को अंगूठे के नीचे लाने की कोशिश कर रही है। घाटी के कई वरिष्ठ पत्रकारों को पुलिस ने तलब किया और उनसे घंटों पूछताछ की गई। इसके अलावा शिक्षा क्षेत्र भी बुरी तरह प्रभावित हुआ है।


व्यापार और निवेश प्रभावित

घाटी को ‘लॉकडाउन’ में रहते एक साल हो गया है। इसने व्यापारियों की कमर तोड़ दी है और उन्हें अरबों डॉलर का नुकसान हुआ है। कश्मीर चैंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष शेख आशिक के मुताबिक अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद से 5.3 अरब डॉलर का नुकसान हो चुका है। वह कहते हैं, “पिछले साल 5 अगस्त के बाद शायद ही कोई कारोबार हुआ।” बड़ी संख्या में लोगों ने नौकरी खो दी है। डाटा सेवा के प्रतिबंधित होने से तमाम छोटी आईटी कंपनियां बंद हो गईं। नाम जाहिर न करने की शर्त पर एक अर्थशास्त्री ने कहा, “निवेशक आमतौर पर संघर्षग्रस्त क्षेत्रों में निवेश से बचते हैं। जब तक वहां स्थायी शांति नहीं होगी, बड़े पैमाने पर निवेश संभव नहीं।”

मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण

विशेष दर्जा खत्म करने का एक असर यह हुआ कि इसने कश्मीर मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण कर दिया और कश्मीर में पाक समर्थक भावना को लोकप्रिय बना दिया। पाकिस्तान और चीन ने विभिन्न मंचों पर इस मुद्दे को पहले की तुलना में अधिक मजबूती से उठाया। प्रो. बाबा ने कहा, “यहां तक कि अमेरिकी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार ने भी अपनी चुनावी रैलियों के दौरान कश्मीर के बारे में जो बातें की हैं, वह असाधारण हैं।” पिछले साल संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के भाषण ने न केवल उन्हें कश्मीर में लोकप्रिय बनाया बल्कि घाटी के एक वर्ग में पाक समर्थक भावना को फिर से जिंदा कर दिया।

जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म हुए एक साल हो गया है और इस क्षेत्र में शांतिऔर विकास की नई सुबह की कोई किरण अब तक नहीं फूटी है। हिंसा में कोई कमी नहीं आई है। भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के बीच रोजाना झड़प हो रही है। जम्मू- कश्मीर के लोगों में दबा हुआ गुस्सा है। तारिगामी कहते हैं, “भारी तादाद में सैनिकों की तैनाती से सरकार जरूर लोगों की आवाज दबाने में कामयाब रही है लेकिन आम लोगों में विश्वासघात और असंतोष का भाव गहरा गया है। 5 अगस्त ऐतिहासिक भूल थी।”

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