इलाहाबाद: सिर्फ गिरफ्तारी नहीं हो सकती दलित छात्र दिलीप की हत्या का इंसाफ

यह महज बर्बरता नहीं है। इसमें नफरती बर्बरता के पूरे संकेत दिख रहे हैं। दबंगों ने रॉड, डंडे, ईंट, पत्थर और कुर्सियों से दिलीप के सिर से लेकर पैर पर हमले किए।

फोटो: सोशल मीडिया
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नासिरुद्दीन

इलाहाबाद से हिंसा की एक दिल दहला देने वाली खबर आ रही है। कानून की पढ़ाई करने वाले एक दलित स्टूडेंट की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई है। वजह क्या थी? खबरों के मुताबिक, एक साहेब का पैर दलित स्टूडेंट के पैर से छू गया। यही पहले, गालीगलौज और फिर मारपीट की वजह बनी। खबर का लाइव वीडियो भी है मारपीट भी ऐसी वैसी नहीं। वीडियो में कैद मारपीट दिखा रही है कि उसे तब तक मारा गया जब तक वह पूरी तरह अचेत नहीं हो गया। इस वीडियो को पूरा देखने के लिए हमें अपने कलेजे पर पत्थर रखना होगा। हमें खुद से यह सवाल बार-बार पूछना होगा कि यह हमला हमारे ऊपर होता तो हम अभी कहां होते। हमें खुद को यकीन दिलाना होगा कि हम यह बर्बरता देखने के लिए जिंदा है।

घटना शुक्रवार की रात की है। दिलीप सरोज नाम के इस छात्र की मौत रविवार की सुबह हुई। इलाहाबाद के बाहर की ज्यादातर दुनिया को यह बात सोमवार की सुबह अखबारों से पता चली।

वीडियो के फुटेज और मारपीट की बर्बरता की खबर की तफसील से ऐसा लग रहा है कि यह घटना कोई दो विरोधी दबंग गुटों की आपसी रंजिश का नतीजा नहीं है। यह भी संकेत दिख रहे हैं कि यह सामान्य झड़प या दबंगों की आम दबंगई नहीं है। यह वर्चस्व की लड़ाई भी नहीं लगती है। जाहिर है, अभी यकीनी तौर पर कुछ कहना मुश्किल है।

यह महज बर्बरता नहीं है। इसमें नफरती बर्बरता के पूरे संकेत दिख रहे हैं। दबंगों के हाथ जो सामान आया, उन्होंने उसका इस्तेमाल दिलीप और उसके दोस्तों पर किया। रॉड, डंडे, ईंट, पत्थर और कुर्सियों से दिलीप के सिर से लेकर पैर तक हमले किए गए। उसके साथ जो हुआ, शायद उस घटना को बयान करने के लिए ‘हमला’ शब्द नाकाफी है। या यूं कहिए कि कोई एक ऐसा शब्द नहीं है, जो इस घटना की सही तस्वीर बयान कर सके।

इस घटना में नफरती हिंसा के पूरे तत्व हैं। इस बात के संकेत और कई बातों से भी जुड़ते हैं। पिछले दिनों जिस तरह से दलितों और खासतौर पर पढ़-लिख रहे दलित युवाओं पर हमले बढ़े हैं, यह उसी की कड़ी तो नहीं है? यही नहीं, उत्तर प्रदेश में जिस तरह दलित युवाओं की आवाज़ को दबाने की कोशि‍श हो रही है, यह उसी का असर तो नहीं है? यह कमजोर लोगों को दबाने राजनीति का हिस्सा तो नहीं है?

दिलीप कानून की पढ़ाई कर रहा था। आम पढ़ने वाले नौजवानों की तरह वह भी एक बेहतर भविष्य की तलाश में पढ़ाई में जुटा था। मगर वह एक मायने में खास भी था। वह दलित नौजवान था। सदियों से नफरत और गैर-बराबरी झेल रहे समुदाय का हिस्सा था।

जाहिर है, पढ़ाई ने उसका आत्मविश्वास बढ़ाया होगा। यही आत्मविश्वास, आत्म सम्मान की वजह भी होती है। दलित नौजवानों की नई पीढ़ी इस आत्म सम्मान के लिए खुल कर संघर्ष कर रही है। उत्तर प्रदेश में चंद्रशेखर आजाद ‘रावण’ और उसकी भीम आर्मी इसी आत्मसम्मान के हक के दावे की उपज है। मगर वह भी नफरती हिंसा का ही शि‍कार है।

बाबा साहेब अम्बेडकर की दलितों को सलाह थी, ‘पढ़ें, संघर्ष करें, संगठित हों।’ मगर पढ़ाई, संघर्ष, संगठन और सम्मान से जिंदगी की चाह दलितों के लिए जानलेवा साबित हो रही है। जैसे-जैसे उनमें सम्मानजनक जिंदगी के हक का इस्तेमाल करने की चाह बढ़ रही है और वे इंसान होने का हक़ जता रहे हैं, वैसे-वैसे उनके साथ हिंसा बढ़ रही है। उनके नैतिक साहस, संगठन और संघर्ष को तोड़ने की रफ्तार भी तेज हो रही है। इस मायने में उत्तर प्रदेश में हाल में घट रही घटनाएं चिंताजनक हैं। दलितों की राजनीति का बड़ा केन्द्र होने के बाद भी यह दलित सम्मान का केन्द्र अब तक नहीं बन पाया है।

इसलिए दिलीप की हत्या का इंसाफ महज चंद गिरफ्तारी नहीं हो सकती। यह सिर्फ और सिर्फ सामाजिक सम्मान, सामाजिक इंसाफ, सामाजिक बराबरी के हक़ की गारंटी से ही हो सकती है।

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