समुद्री जीवों के लिए काल बना रहा प्लास्टिक का कचरा, पक्षियों में पनप रही बीमारी

प्लास्टिक प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य पर चर्चा के बीच लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक युक्त भोजन खाने के कारण समुद्री पक्षियों में पनपने वाली बीमारी के बारे में बताया है और इस बीमारी को प्लास्टिकोसिस का नाम दिया है।

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महेन्द्र पांडे

प्लास्टिक के कचरे से पूरी दुनिया भर गयी है। हिमालय की चोटियों से लेकर महासागर की गहराइयों तक प्लास्टिक पहुंच चुका है। प्लास्टिक का कचरा महासागर के जीवों से लेकर वन्यजीवों के पेट तक पहुंच रहा है। इन सबकी खूब चर्चा भी की जाती है। एक अनुसंधान यह बताता है कि एक औसत मनुष्य प्रतिवर्ष भोजन के साथ और सांस के साथ प्रतिवर्ष लगभग सवा लाख प्लास्टिक के टुकड़े को अपने शरीर के अन्दर पहुंचा रहा है। यह अनुसंधान एनवायर्नमेंटल साइंस एंड टेक्नोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित किया गया था।

प्लास्टिक प्रदूषण और मानव स्वास्थ्य पर चर्चा के बीच लंदन के नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के वैज्ञानिकों ने प्लास्टिक युक्त भोजन खाने के कारण समुद्री पक्षियों में पनपने वाली बीमारी के बारे में बताया है और इस बीमारी को प्लास्टिकोसिस का नाम दिया है। यह अनुसंधान ऑस्ट्रेलिया के लार्ड हॉवे आइलैंड पर मिलने वाले “फ्लेश-फूटेड शियरवाटर्स” नामक पक्षियों पर किया गया है और समुद्री पक्षियों के स्वास्थ्य पर प्लास्टिक के प्रभाव से सम्बंधित पहला व्यापक अध्ययन है। इस अध्ययन को जर्नल ऑफ हेजार्दस मटेरियल में प्रकाशित किया गया है।

अध्ययन के अनुसार प्लास्टिक खाने वाले पक्षियों के आंतों के शुरुआती भाग, प्रोवेंटरीक्युलस, में सूजन आ जाती है और इसके टूब्युलर ग्लैंड्स काम करना बंद कर देते हैं। इससे पक्षी दूसरी बीमारियों से और परजीवियों से आसानी से संक्रमित हो जाते हैं, इनकी भोजन अवशोषित करने की क्षमता प्रभावित होती है और कुछ विटामिनों के अवशोषण पर भी असर पड़ता है। इसके बाद आंतें अपना आकार बदलने लगती हैं और इनपर घाव हो जाता है। इन पक्षियों की सामान्य वृद्धि प्रभावित होती है और इनका जीवन खतरे में पड़ जाता है।

नेचुरल हिस्ट्री म्यूजियम के वैज्ञानिक डॉ अलेक्स बांड और सहयोगी डॉ जेनिफर लावेर्स के अनुसार इन पक्षियों में प्लास्टिक की मात्रा का ग्रहण और इससे पनपने वाली बीमारी के स्तर का आकलन किया गया, जिसके अनुसार इन दोनों का सीधा सम्बन्ध है। महासागरों और द्वीपों पर प्लास्टिक कचरा इतना सामान्य है कि इन पक्षियों में मादा अपने बच्चों को भी चोंच से जो खाना खिलाती है, उसमें भी प्लास्टिक मौजूद रहता है। इस कारण बच्चे पक्षी भी इस रोग का शिकार हो रहे हैं। अनुसंधान के दौरान यह तथ्य स्पष्ट हुआ कि इन पक्षियों के भोजन में दूसरे पदार्थों, जैसे पुमिक स्टोन या रेत की उपस्थिति से पक्षियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह प्रभाव केवल प्लास्टिक से ही पड़ता है, इसीलिए इस रोग को प्लास्टिकोसिस का नाम दिया गया है।


सवाल यह है कि प्लास्टिक के ये टुकड़े आते कहां से हैं? प्लास्टिक अपशिस्ट, जो इधर-उधर बिखरा पड़ा होता है वह समय के साथ और धूप के कारण छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो जाता है, फिर और छोटे टुकड़े होते हैं और अंत में पाउडर जैसा हो जाता है। यह हल्का होता है, इसलिए हवा के साथ दूर तक फैलता है और अंत में खाद्य-चक्र का हिस्सा बन जाता है। यह हवा में मिलकर श्वांस के साथ फेफड़े तक भी पहुंच जाता है। प्लास्टिक के छोटे टुकड़ों को माइक्रो-प्लास्टिक कहा जाता है, जबकि बहुत छोटे टुकड़े जो आँखों से नहीं दिखाते हैं, वे नैनो-प्लास्टिक हैं। यही नैनो-प्लास्टिक सारी समस्या की जड़ हैं और ये अब पूरी दुनिया की हवा और पानी तक पहुँच चुके हैं। यही खाद्य पदार्थों में, पानी में और हवा में फैल गए हैं। अब इनसे मुक्त न तो हवा है, न ही पानी और ना ही खाने का कोई सामान।

हाल में ही पलोस वन नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार महासागरों में तैरने वाले प्लास्टिक के टुकडों की संख्या 170 खराब से भी अधिक है और इनका सम्मिलित वजन 20 लाख टन से भी अधिक है। इस अध्ययन के अनुसार इस समय महासागरों को प्लास्टिक-मुक्त करने के लिए किनारों की सफाई पर जोर दिया जा रहा है, पर यह बेकार की कवायद है क्योंकि जब तक वैश्विक स्तर पर प्लास्टिक का उत्पादन कम नहीं किया जाएगा तबतक या समस्या ऐसे ही विकराल रहेगी।

इस अध्ययन के लिए महासागरों में वर्ष 1979 से 2019 तक बहने वाले प्लास्टिक का आकलन किया गया है, और इसके अनुसार वर्ष 2005 के बाद से महासागरों में यह समस्या तेजी से बढी है। अनुमान है कि, यदि दुनिया इसी तरह प्लास्टिक का उपयोग करती रही तो वर्ष 2040 तक महासागरों में प्लास्टिक की मात्रा 2.6 गुना बढ़ जायेगी। एक दूसरे अध्ययन के अनुसार केवल कोविड 19 के दौर में ही महासागरों में 26000 तक प्लास्टिक कचरा पहुंच गया। कोविड 19 से बचाव के लिए उपयोग में आने वाले अधिकतर उपकरण – फेसमास्क और ऐप्रेन इत्यादि – प्लास्टिक से ही बने थे, जिन्हें एक बार उपयोग में लाकर फेंकना था।


साइंस नामक जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार महासागरों में प्लास्टिक का अबतक का आकलन सटीक नहीं था, और प्लास्टिक की मात्रा अबतक के आकलन से कहीं अधिक है। अनेक वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार महासागरों में प्रति वर्ष 80 लाख टन प्लास्टिक मिलता है, पर साइंस में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार यह मात्रा 1 करोड़ 10 लाख टन से भी अधिक है। अनुमान है कि अगले 20 वर्षों में इसकी मात्रा तीन गुना बढ़ जायेगी और तब वैश्विक स्तर पर हरेक मीटर सागर तट पर औसतन 50 किलो से अधिक प्लास्टिक कचरा होगा।

दुनिया जितना प्लास्टिक कचरे को कम करने की बात करती है, प्लास्टिक कचरा उतना ही बढ़ता जा रहा है, और अब केवल प्लास्टिक के सेवन से पक्षियों में बीमारियां भी पनप रही हैं। यह एक खतरनाक संकेत है, क्योंकि प्लास्टिक से मनुष्य भी बीमार हो सकता है।

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