पीएम मोदी ने नीति आयोग की बैठक में कोशिश तो बहुत की, लेकिन एक साथ चुनाव कराने पर नहीं मिला किसी का समर्थन

‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ के अपने सपने को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे मुख्यमंत्रियों को मनाने की कोशिशें कर रहे हैं। लेकिन ये दोनों ही अपने राज्यों को विशेष दर्जा देने की मांगपर अडिग हैं। ऐसे में पीएम का यह सपना पूरा होगा, इसमें शक है।

फोटो : सोशल मीडिया
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लेसली एस्टेवेस

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर एक राष्ट्र एक चुनावका मुद्दा उछाला है। उन्होंने 17 जून को हुई नीति आयोग गवर्निंग काउंसिल की बैठक में कहा कि देश भर में सभी चुनाव एक साथ एक ही वोटर लिस्ट से कराने की जरूरत है। बैठक में शामिल मुख्यमंत्रियों से उन्होंने इस बारे में आम सहमति बनाने की अपील की।

इसी बैठक में पीएम मोदी ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू को मनाने की कोशिशें भी कीं। दोनों ही अपने-अपने राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग कर रहे हैं। मोदी ने कहा कि राज्यों को बंटवारे के लिए जिन संवैधानिक प्रावधान हैं, केंद्र उन्हें पूरा करने के लिए कटिबद्ध है।

चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देशम के एनडीए छोड़ने के महीनों बाद प्रधानमंत्री का यह बयान आया है। तेलुगु देशम पार्टी ने आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न दिए जाने के मुद्दे पर एनडीए से नाता तोड़ लिया था। इस दौरान हाल के लोकसभा और विधानसभा उपचुनावों में बीजेपी और एनडीए के निराशाजनक प्रदर्शन के बाद नीतीश कुमार ने भी बिहार को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग जोर-शोर से उठाना शुरु कर दी है।

सवाल यह है कि अगर प्रधानमंत्री आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने को लेकर गंभीर हैं तो उन्होंने इस पर पहले ध्यान दिया होता न कि साथियों के एनडीए से अलग होने के बाद। ऐसे में समझा जा सकता है कि प्रधानमंत्री के बयान को आंध्र प्रदेश की मांग मानने के बजाय देश भर में सभी चुनाव एक साथ कराने के विचार पर समर्थन हासिल करना है। दरअसल एक नेशन एक इलेक्शन प्रधानमंत्री का एक सपना है, जिसमें उन्हें कई तरह की अड़चनों का सामना करना पड़ रहा है।

गौरतलब है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना अनिवार्य करने के लिए सरकार को संविधान में बदलाव करना पड़ेगा। संविधान संशोधन के लिए संसद में उसके पास पर्याप्त संख्याबल नहीं है। हां, ये हो सकता है कि राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और दूसरे बीजेपी शासित राज्यों को किसी तिकड़मबाज़ी से राजी कर इन राज्यों को चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ कराने की कोशिश जरूर हो सकती है। इससे आभासी तौर पर एक नेशन, एक इलेक्शन के नारे को बल मिल सकता है।

लेकिन, इसमें भी दो दिक्कतें हैं। पहली, यह सारे राज्य वह हैं जहां बीजेपी को जबरदस्त सत्ता विरोधी माहौल का सामना करना पड़ रहा है। ऐसे में मोदी को बिहार, बंगाल, ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों को मनाना होगा, क्योंकि इन राज्यों में बीजेपी को अपने लिए संभावनाएं नजर आती हैं। दरअसल बीजेपी इन राज्यों से उस अपरिहार्य नुकसान की भरपाई करना चाहती है जो उसे अगले लोकसभा चुनाव उत्तरी और पश्चिमी राज्यों में साफ नजर आ रहा है।

ऐसे में बीजेपी के पूर्ण बहुमत वाले राज्य तो इस आभासी वन नेशन, वन इलेक्शन की धुन पर नृत्य करने को तैयार हो जाएंगे, लेकिन नीतीश कुमार को उनका कार्यकाल खत्म होने से 18 महीने पहले चुनावी दांव खेलने के लिए मनाना टेढ़ी खीर है। वह भी खासतौर से तब, जबकि पीएम मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह उनके साथ बुरा बर्ताव कर चुके हों।

ऐसा ही कुछ चंद्रबाबू नायडू के साथ है, जो कि अब खुलकर फेडरल फ्रंट या इसे कुछ भी नाम दें, नए मोर्चे के साथ खड़े दिख रहे हैं। और इस मोर्चे की अगुवाई बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव कर रहे हैं। और इन दोनों का ही पीएम के वन नेशन, वन इलेक्शन के सपने को मूर्त रूप देने में साथ देना मुमकिन नजर नहीं आता। ममता बनर्जी और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक इस विचार को सिरे से खारिज कर चुके हैं।

प्रधानमंत्री के इस विचार को लेकर विपक्षी दलों की आपत्ति सिर्फ यह नहीं है कि यह पीएम मोदी का सपना है। वे सरकार के इस तर्क से असहमत है कि इससे पैसा बचेगा, क्योंकि मोदी सरकार तो अपने प्रचार पर ही अरबों रुपया खर्च करती है। दूसरा तर्क यह है कि इससे लोगों को निरंतर शासन मिलेगा, जो चुनावों की वजह से बाधित होता है, उससे में दम नहीं है, क्योंकि तय समयावधि के लिए ही सरकारों को चुना जाता है।

हाल में आई रिपोर्ट से पता चलता है कि बीजेपी का चुनावी खजाना किसी भी विपक्षी दल से कहीं बड़ा है। और वह सिर्फ ज्ञात स्रोतों से अर्जित। विपक्ष को यह भी संदेह है कि बीजेपी आम चुनावों को राष्ट्रपतीय चुनावी प्रणाली में बदलना चाहती है, जो कि प्रधानमंत्री मोदी की छवि पर केंद्रित होगा, और इसके लिए वह अपने सभी संसाधनों का इस्तेमाल कर सत्ता विरोधी प्रभाव को कम करने की कोशिश करेगी। विपक्ष का यह भी तर्क है कि एक साथ चुनाव होने से लोग क्षेत्रीय के बजाय राष्ट्रीय पार्टियों को अहमियत देंगे और इससे बीजेपी को उन राज्यों में भी फायदा होगा, जहां वह पिछड़ी हुई है।

मोदी ने पिछले साल अगस्त में हुई नीति आयोग गवर्निंग काउंसिल की बैठक में भी एक साथ चुनाव का मुद्दा उठाया था। एक साल के भीतर टीडीपी ने साथ छोड़ दिया, महाराष्ट्र में शिवसेना ने चुनाव पूर्व गठबंधन खत्म कर दिया, बिहार में उपेंद्र कुशवाहा और उत्तर प्रदेश में ओ पी राजभर आंखें दिखा रहे हैं, और विपक्षी एकता मजबूत होती जा रही है जिसके कारण बीजेपी को उपचुनावों में लगातार हार देखना पड़ रही है, ऐसे में प्रधानमंत्री अपने इस सपने को सच करने के लिए हताश और निराश नजर आ रहे हैं, और वह कुछ भी करके इस पूरा करना चाहते हैं।

ऐसे में रविवार (17 जून) की बैठक में प्रधानमंत्री का फिर से इस मुद्दे को उठाना उनकी बेताबी तो झलकाता ही है, उनकी इस सोच को भी दिखाता है कि वह भले ही विपक्ष और सहयोगियों को कितना भी दुत्कारें, उन्हें मनाकर इस सपने को पूरा किया जा सकता है, ताकि उन्हें दूसरी बार सत्तासीन होने का मौका मिल सके।

ऐसे में यही कहा जा सकता है कि अपने शासन के पांचवे साल में नरेंद्र मोदी को इस सीख की जरूरत है कि आप हर समय हर किसी को मूर्ख नहीं बना सकते और आपने जो बोया है, उसे काटना भी आपको ही पड़ेगा।

(आईएएनएस इनपुट के साथ)

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