चौकीदार डरपोक भी है, इसीलिए कभी नहीं किया किसी स्वतंत्र पत्रकार के सवालों का सामना

अपने शासनकाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी न तो कोई प्रेस कांफ्रेंस की और न ही कोई ऐसा इंटरव्यू दिया जिसकी पटकथा पहले से तय न हो। मोदी दुनिया भर में घूमते रहे, लेकिन किसी स्वतंत्र पत्रकार के सीधे सवालों का कभी सामना नहीं किया।

फोटो : सोशल मीडिया
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आशुतोष शर्मा

“नरेंद्र मोदी ने प्रशांत किशोर से कहा था कि वह मुझे कभी माफ नहीं करेंगे और जब भी मौका मिलेगा बदला लेंगे।“ वरिष्ठ पत्रकार करन थापर ने अपनी किताब ‘डेविल्स एडवोकेट द अनटोल्ड स्टोरी’ में जेडीयू नेता पवन वर्मा के हवाले से मोदी के साथ 2007 के उस इंटरव्यू का जिक्र किया है, जिसमें सिर्फ तीन मिनट में ही नरेंद्र मोदी इंटरव्यू छोड़कर उठ खड़े हुए थे।

थापर इस इंटरव्यू के प्रसंग में लिखते हैं कि, “मोदी की यह बात कुछ इस तरह समझ में आती है कि 2016 के आसपास बीजेपी का रवैया एकदम बदल गया। अब कोई शक नहीं रहा कि आखिर क्यों बीजेपी प्रवक्ताओं को मेरे कार्यक्रमों में आने से मना कर दिया गया, मंत्रियों ने इंटरव्यू देने से साफ इनकार कर दिया और अमित शाह ने वादा करने के बावजूद इंटरव्यू नहीं दिया। और तो और उन्होंने मेरा फोन भी उठाना बंद कर दिया।“ गौरतलब है कि करन थापर के साथ नरेंद्र मोदी के तीन मिनट के इंटरव्यू को लाखों बार यू-ट्यूब पर देखा गया है।

लेकिन अकेले थापर ऐसे पत्रकार नहीं है, जिनका बीजेपी प्रवक्ता या नेताओं ने बहिष्कार किया हो। मोदी शासन में कई मीडिया संस्थान और पत्रकारों को अघोषित बहिष्कार का सामना करना पड़ा है।

मोदी शासन में ही 2016 में एनडीटीवी इंडिया पर एक दिन की पाबंदी लगाई गई थी। यहां काम करने वाले कई पत्रकार मोदी सरकार की नीतियों और पार्टी की विचारधार से असहमति जताते रहे हैं, नतीजतन न सिर्फ बीजेपी नेता इस चैनल का बहिष्कार करते रहे हैं बल्कि वहां काम करने वाले पत्रकारों को धमकियां भी मिलती रही हैं। इसी तरह बरखा दत्त और सागरिका घोष जैसी महिला पत्रकारों को भी धमकियां और अश्लील और भद्दे कमेंट का सामना करना पड़ा है।

पीएम मोदी ने अपने विदेशी दौरों में पत्रकारों से साथ ले जाना बंद कर दिया और कोई मीडिया एडवाइज़र भी नियुक्त नहीं किया। हालांकि उनके पहले के सारे प्रधानमंत्री ऐसा करते रहे हैं।

दरअसल मोदी की मीडिया से नाराज़गी को उनके पूर्व के अनुभव से जोड़कर देखा जा सकता है। करन थापर समेत कई पत्रकार थे जिनके साथ बातचीत करते हुए मोदी सकपका चुके हैं। इन पत्रकारों के साथ बातचीत या इंटरव्यू में वे या तो चुप हो गए या फिर अटकने लगे हैं।

यह भी तथ्य है कि पीएम मोदी के शासन में कई संपादकों को सिर्फ इसलिए हटा दिया गया क्योंकि उन्होंने सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए थे। ट्रिब्यून के एडिटर-इन-चीफ हरीश खरे को तो सिर्फ इसलिए हटा दिया गया था कि उनके अखबार ने आधार में हो रही धांधली का खुलासा किया था, इससे सरकार की किरकिरी हुई थी। इसी तरह हिंदुस्तान टाइम्स से बॉबी घोष को भी इस्तीफा देना पड़ा था क्योंकि उन्होंने हेट ट्रैकर शुरु किया था।

टीवी चैनलों की बात करें तो एबीपी न्यूजं चैनल के एंकर पुण्य प्रसून वाजपेयी को भी हटना पड़ा था, क्योंकि वे भी मोदी की आलोचना करने वालों में थे। चैनल ने उन्हें विकल्प दिया था कि वे या तो अपने कार्यक्रम में मोदी का नाम लेना बंद करें या बाहर का रास्ता देखें। वाजपेयी ने द वायर के लिए लिखे एक लेख में कहा था कि, “करीब 200 लोगों की टीम मीडिया पर नजर रखती है और मीडिया संस्थानों को मोदी की कवरेज के दिशा निर्देश दिए जाते हैं।” इसी चैनल के मैनेजिंग एडिटर मिलिंद खांडेकर को भी इस्तीफा देना पड़ा था।

इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के संपादक प्रॉंजय गुहा ठाकुरता को भी अडानी समूह पर एक रिपोर्ट प्रकाशित करने पर हटना पड़ा था। इस समूह के मालिक पीएम मोदी के नजदीकी हैं।

मोदी शासन में मीडिया संस्थानों पर छापेमारी भी हुई और कई संस्थानों के सरकारी विज्ञापन भी रोक दिए गए। सरकारी विज्ञापन मीडिया संस्थान के चलाने के लिए बेहद अहम होते हैं।

पैरिस की संस्थान रिपोर्ट्स विदाउट बॉर्डर की द वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स रिपोर्ट में भारत 180 देशों में पिछले साल 138वें नंबर था। इस मोर्चे पर भारत के मुकाबले जिम्बाबवे, अफगानिस्तान और म्यांमार जैसे छोटे देश कहीं बेहतर स्थिति में हैं। गौरतलब है कि 2002 की रिपोर्ट में भारत 139 देशों में 80वें नंबर पर था।

लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। ऐसे पत्रकार और मीडिया संस्थान जो मोदी सरकार को लेकर बाकी दलों से पक्षपात करते हैं उन्हें मोदी शासन में इनाम भी मिले हैं। मससन उद्यमी और बीजेपी सांसद राजीव चंद्रशेखर के स्वामित्व वाले रिपब्लिक टीवी और बाद में इसके हिंदी चैनल रिपब्लिक भारत को तुरंत चैनल चलाने की इजाज़त मिल गई, जबकि कई संस्थानों की अर्जी बीते कई सालों से धूल खा रही है।

पिछले साल बरखा दत्त ने लिखा था कि, “बीते कई महीनों से सत्तारुढ़ दल से जुड़े नेता मुझे विनम्रता से चेतावनी दे रहे हैं कि मैं किसी टीवी प्रोजेक्ट पर काम न करूं। मुझे बताया गया कि इस सिलसिले में 45 मिनट की एक बैठक हुई जिसमें कहा गया कि ‘हम ऐसा हरगिज़ नहीं होने देंगे’ और कहा गया कि मुझे किस तरह परेशान किया जाएगा।”

रोचक बात यह भी है कि प्रधानमंत्री ने कुछ मनपसंद पत्रकारों को ही इंटरव्यू दिए हैं। इनमें टाइम्स नाउ, रिपब्लिक, ज़ी न्यूज के अलावा एएनआई और स्वराज्य पत्रिका शामिल है। लेकिन भारतीय मीडिया पर नजर रखने वाले मानते हैं कि सारे के सारे इंटरव्यू पूर्व निर्धारित और तय सवालों के आधार पर किए गए। इन इंटव्यू के दौरान कोई भी तीखा सवाल नहीं पूछा गया और जवाब पर बनते सवाल को बिल्कुल ही नहीं पूछे गए।

हद तो यह है कि अब न्यूज चैनलों के ऐंकर इस बात के लिए पीएम मोदी की तारीफ कर रहे हैं कि उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस नहीं की। सीएनएन-न्यूज़18 के एंकर भूपेंद्र चौबे ने तो बाकायदा इसे मोदी शासन द्वारा अपनाया गया संवाद का नया तरीका करार दिया।

लेकिन, चौबे का संदेश शायद अभी विश्व के बाकी नेताओं तक नहीं पहुंचा है, जो न सिर्फ प्रेस कांफ्रेंस करते हैं बल्कि तीखे और चुभते हुए सवालों का सामना भी करते हैं। इनमें अमेरिकी राष्ट्रपति से लेकर जर्मनी की चांसलर एंगेला मार्केज़ तक शामिल हैं।

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