देश की आत्मा बहुलता में है, वैचारिक मतभेदों और संवादहीनता से बढ़ रही है हिंसा: प्रणब मुखर्जी

पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने लोगों के वैचारिक मतभेदों और इंसानी जिंदगी की बेइंतिहा अनदेखी से देश में बढ़ती हिंसा पर गहरी चिंता जताई है। उनका कहना है कि इससे देश के सद्भाव का नुकसान हो रहा है। उन्होंने कहा कि देश की आत्मा बहुलता में है।

फोटो : Getty Images
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नवजीवन डेस्क

नॉर्थ ईस्ट इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज के स्थापना दिवस पर वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए दिए एक लेक्चर में प्रणब मुखर्जी ने कहा कि भारत की आत्मा बहुलता और विविधता के उत्सव में है। पूर्व राष्ट्रपति ने कहा, “जब भी किसी व्यक्ति, बच्चे या महिला की क्रूरता से हत्या होती है, तो इसके साथ ही भारत की आत्मा भी घायल हो जाती है। लोगों में बढ़ते गुस्से और रोष से हमारा सामाजिक ताना-बाना छिन्न भिन्न हो रहा है। हर रोज हमारे आसपार हिंसा बढ़ती जा रही है। और इस हिंसा के मूल में सिर्फ अंधेरा, भय और अविश्वास है।”

प्रणब मुखर्जी ने यह भी कहा कि राष्ट्रीय महत्व के सभी मुद्दों पर सार्वजनिक जुड़ाव और संवाद को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए संवाद जरूरी है।

उन्होंने कहा “सार्वजनिक जीवन में अलग-अलग विचारों और राय को अहमियत दी जानी चाहिए। हम सहमत हों या न हों, लेकिन हमें विमर्श करना चाहिए। हमारे समाज की बहुलता सदियों से विचारों को आत्मसात करने के माध्यम से आई है। धर्मनिरपेक्षता और समावेश हमारे लिए आस्था का विषय है। यह हमारी समग्र संस्कृति है जो हमें एक राष्ट्र बनाती है”।

सार्वजनिक विमर्श में किसी भी प्रकार की हिंसा की जगह न होने की वकालत करते हुए प्रणब मुखर्जी ने कहा कि, “केवल अहिंसक समाज ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सभी वर्गों के लोगों की भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है, खासतौर से हाशिए के और बिखरे हुए लोगों के लिए। हमें क्रोध, हिंसा और संघर्ष का रास्ता छोड़कर शांति, सद्भाव और खुशी की ओर बढ़ना चाहिए।“ उन्होंने कहा “हिंसा न केवल शारीरिक नुकसान करती है, बल्कि मानसिक, बौद्धिक और सामाजिक-आर्थिक समझ को भी खत्म कर देती है।”


पूर्व राष्ट्रपति ने कहा, “परिस्थितियों ने आज हमें अपने आप को यह पूछने के लिए मजबूर कर दिया है कि क्या हम राष्ट्रपिता की आकांक्षाओं पर खरे उतरे हैं?” मेरा दृढ़ विश्वास है कि यह अहिंसा में हमारे सदियों पुराने विश्वास का प्रकटीकरण है। आज, पहले से कहीं ज्यादा, हमें अपने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के उस विश्वास को याद करने की जरूरत है, जो उनका अहिंसा, सहिष्णुता और आपसी सम्मान में था।”

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