राजस्थान का 'स्वास्थ्य का अधिकार' विधेयक गरीबों के लिए रक्षा कवच, कई राज्यों को मिली दिशा

राजस्थान अपने वार्षिक बजट का 6 प्रतिशत हेल्थकेयर को आवंटित करता है जो कई राज्यों से अधिक है लेकिन फिर भी यह अपर्याप्त है। 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति ने सिफारिश की है कि राज्यों को स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने बजट का कम-से-कम 8 फीसद खर्च करना चाहिए।

फोटोः सोशल मीडिया
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स्वास्थ्य सेवाओं को मूलभूत अधिकार के तौर पर मानने के भारत के लंबे और टेढ़े-मेढ़े रास्ते के संदर्भ में 23 सितंबर कई अर्थों में मील का पत्थर है। उसी दिन अधिकार के तौर पर राजस्थान में सभी लोगों को सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएं देने के खयाल से सभी तरह की स्वास्थ्य सेवाएं मुफ्त में उपलब्ध कराने के लिए राजस्थान विधानसभा में स्वास्थ्य का अधिकार विधेयक पेश किया गया। इसे अगले ही दिन पारित होने की अपेक्षा थी, पर सत्तारूढ़ पार्टी समेत कई दलों के कुछ विधायकों की सलाह पर इसे समीक्षा के लिए प्रवर समिति को भेज दिया गया।

इससे पहले एक प्रशासनिक आदेश से राजस्थान सरकार ने सभी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में डायग्नोस्टिक्स, प्रोसेज्योर, अस्पताल में भर्ती करने और सिर्फ चेक अप कराने समेत सभी सेवाओं को मुफ्त में उपलब्ध करा दिया था। विधेयक आता, उससे पहले ही उसके लिए जमीन तैयार कर दी गई थी और अब यह कानून बनने की दिशा में है।

यह बात सार्वजनिक तौर पर चर्चा में रही है कि सार्वजनिक सुविधाएं काम नहीं करतीं, अधिक लोग स्वास्थ्य सेवाएं पाने के लिए निजी अस्पतालों की शरण लेते हैं और इसलिए सरकारी सुविधाओं का निजीकरण कर दिया जाना चाहिए। नीति आयोग ने इससे पहले असंचारी रोगों के उपचार के लिए जिला अस्पतालों के निजीकरण का प्रस्ताव भी किया हुआ है। लेकिन इस किस्म के तर्कों में कई खामियां हैं। पहली, भारत की अधिकतर ग्रामीण आबादी अधिकांश गंभीर स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरतों के लिए सरकारी सुविधाओं पर निर्भर हैंः उदाहरण के लिए, ग्रामीण राजस्थान में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के जरिये 98% बाल वैक्सिनेशन, 70% गर्भनिरोध और 79% बच्चों की संस्थागत जन्म प्रक्रियाएं होती हैं।

ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के आंकड़ों पर शोधार्थियों के अध्ययन के मुताबिक, भारत में सवास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च की वजह से हर साल 5.5 करोड़ लोग गरीबी में धकेल दिए जाते हैं जो वहनयोग्य स्वास्थ्य सुविधा की जरूरत पर जोर देती है। इसी तरह, स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च गिरता जा रहा है। 2018-19 में अखिल भारतीय स्तर पर जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर स्वास्थ्य सुविधा खर्च कम हो गया और 2004-2005 के बाद से पहली बार 1.3 प्रतिशत से भी नीचे चला गया।


एक तरफ, अधिकतर ग्रामीण आबादी सरकारी सेवाओं पर निर्भर बनी हुई है और दूसरी तरफ, स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च की वजह से वह गरीबी की ओर धकेली जा रही है। इस संदर्भ में सरकारी सेवाओं को लेकर प्रतिबद्धता जताने वाला विधेयक उल्लेखनीय और गरीबों के लिए रक्षा कवच है। इसके अतिरिक्त, यह विधेयक राज्य में न सिर्फ यहां के रहवासियों बल्कि सभी लोगों को सरकारी सुविधाओं में मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं देने की बात करता है। यह बड़ी संख्या में प्रवासियों और ऐसे लोगों के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है जिनके लिए यहां रहने की बात साबित करने में कठिनाई होती है।

विधेयक निजी सुविधाओं समेत सभी जगह मुफ्त आपातकालीन जरूरतों को लेकर लोगों के अधिकारों की सुरक्षा के प्रति प्रतिबद्धता जताता है। हालांकि निजी अस्पतालों से मुफ्त आपातकालीन जरूरतों की प्राप्ति का अधिकार राज्य के रहवासियों तक सीमित है और यह राजस्थान में रह रहे सभी लोगों पर लागू नहीं है। विधेयक रोगियों के निजता के अधिकार, सूचना और गोपनीयता के अधिकार से संबंधित कई अन्य अधिकारों की गारंटी भी देता है।

अर्थपूर्ण बात तो यह है कि स्वास्थ्य सेवाएं आर्थिक तौर पर वहन करने योग्य, ऐसी हों जो सब तक पहुंच सकें, जरूरत के वक्त मिल सकें और अच्छी गुणवत्ता वाली होनी चाहिए। ग्रामीण और दूरस्थ इलाकों में रहने वाली आबादी को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। जहां वे रहते हैं, उसके पास सुविधाएं अगर नहीं मिल पाती हैं, तो उनके लिए स्वास्थ्य के अधिकार का बहुत मतलब नहीं है। इन सबका ध्यान रखा जाना जरूरी है।

यह तो बहुत ही साफ है कि निजी हो या सरकारी- भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं अधिकतर खराब गुणवत्ता वाली हैं और उनमें अच्छी देखभाल नहीं होती। खराब गुणवत्ता वाली सेवाओं के अधिकार मददगार नहीं हैं। अपेक्षा की जाती थी कि विधेयक में सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त चिकित्सा केन्द्रों में स्तरीय गुणवत्ता को लेकर भी प्रतिबद्धता जताई जाती। वैसे, भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य मानकों और राष्ट्रीय गुणवत्ता बीमा मानकों-जैसे मानक उपलब्ध हैं। विधेयक में गुणवत्ता वाले मानकों को विकसित करने की बात छोड़ दी गई है। जिस वजह से यह काफी अप्रभावी और अनिश्चित हो गई है।

इस किस्म की कुछ कमियों के बावजूद अभी जो हाल है, उसमें यह तो कहा ही जा सकता है कि अन्य राज्यों को इस किस्म के प्रावधानों को लेकर कुछ सबक लेने की जरूरत है और उन्हें स्वास्थ्य कानूनों में अधिकार की बातें जोड़नी चाहिए।

(डॉ. पवित्र मोहन राजस्थान में गैरलाभकारी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा केन्द्र- बेसिक हेल्थकेयर सर्विसेज के सहसंस्थापक हैं। नैना सेठ उदयपुर में आईआईएम में रिसर्च असिस्टेंट हैं।)

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