तख्तों के टकराव के केंद्र में शिरोमणि प्रबंधक कमेटी
किसी बड़े मर्ज की ओर इशारा कर रहा है अमृतसर के अकाल तख्त और बिहार के तख्त श्री पटना साहिब के बीच का ताजा विवाद।

यह पुरानी कहानी का नया अध्याय भर नहीं है। अमृतसर के अकाल तख्त और बिहार के तख्त श्री पटना साहिब के बीच टकराव की स्थितियां पहले भी कई बार सामने आई हैं । इस बार हालात अलग इसलिए हैं कि पिछले कुछ समय से लगातार जत्थेदारों की नियुक्ति और उन्हें हटाए जाने को लेकर शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी यानी एसजीपीसी जिस तरह विवादों में घिरी रही है, ताजा टकराव भी उसी की अगली कड़ी बन गया है। यह किसी बड़े मर्ज की ओर भी इशारा कर रहा है।
ताजा विवाद कुछ समय पहले तब शुरू हुआ जब तख्त श्री पटना साहिब के जत्थेदार ज्ञानी रंजीत सिंह गौहर को वित्तीय गड़बड़ियों के आरोप में उनके पद से हटा दिया गया। गौहर बादल परिवार के नजदीकी माने जाते हैं। एसजीपीसी पर बादल परिवार की पकड़ के कारण पंजाब के तीनों तख्तों के जत्थेदार मिले और गौहर को बहाल कर दिया गया।
यह बहाली सिख पंथ के पांचों तख्तों के बीच 2008 में बनी एक सहमति के विपरीत थी। उस समय भी पटना साहिब और अकाल तख्त के बीच विवाद काफी गर्म हो गया था। बाद में बीच बचाव हुआ और तय किया गया कि पांचों तख्त स्थानीय प्रबंधन के मामले में अपने फैसले लेने को स्वतंत्र होंगे। लेकिन अगर पंथ से जुड़ा कोई व्यापक मसला आएगा, तो पांचों तख्त मिलकर फैसला करेंगे या फिर अकाल तख्त का फैसला सर्वमान्य होगा।
स्थानीय प्रबंधन से जुड़े फैसले को पंजाब में पलट दिया जाना तख्त श्री पटना साहिब को नागवार गुजरा और वहां भी इसका बदला लेने की ठान ली गई। ऐसे मामलों में फैसले का काम रहत-मर्यादा का नियमित पालन करने वाले पांच सिखों को दिया जाता है जिन्हें पंज प्यारे कहा जाता है। सो, पटना साहिब में पंज प्यारे बैठे और उन्होंने अकाल तख्त के कार्यकारी जत्थेदार कुलदीप सिंह गड़गज, दमदमा साहिब के टेक सिंह धुलाणा को तो तनखैया घोषित किया ही, अकाली दल के नेता सुखबीर सिंह बादल को भी तनखैया घोषित कर दिया।
इसके जवाब में पंजाब स्थित तीनों तख्त - अकाल तख्त, तख्त श्री केसगढ़ साहिब और दमदमा साहिब के धर्मिक अगुवा बैैठे और पटना साहिब में यह फैसला लेने वालों को ही तनखैया घोषित कर दिया। जवाब में पटना साहिब की ओर से कहा गया कि जो लोग पहले ही तनखैया घोषित हो चुके हैं, उन्हे किसी के बारे में फैसला लेने का कोई अधिकार नहीं, इसलिए यह फैसला निरर्थक है।
यह लड़ाई कहां पहुंचेगी या मध्यस्थता करके मामले को इस बार भी शांत करा दिया जाएगा, यह अभी नहीं कहा जा सकता। लेकिन इस मामले ने सिख राजनीति के वे सारे अंतर्विरोध सतह पर ला दिए हैं जो इस साल के शुरू से ही काफी उग्र होने लगे थे।
इस साल मार्च में एसजीपीसी ने अचानक ही अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी रघुबीर सिंह को उनके पद से हटाकर उनकी जगह ज्ञानी कुलदीप सिंह गड़गज को कार्यकारी जत्थेदार बनाने का ऐलान कर दिया था। इस फैसले की कई संगठनों ने आलोचना की। निहंग जत्थेबंदियों ने तो यहां तक कह दिया कि वे नई नियुक्ति का सक्रिय विरोध करेंगे। कोई बाधा न आए, इसके लिए गड़गज को रात 2.50 बजे ही पदभार ग्रहण करवाया गया।
तख्तों की इस लड़ाई में उंगली उठ रही है एसजीपीसी पर। एसजीपीसी ही जत्थेदारों की नियुक्ति करती है। वह पंजाब के सभी गुरुद्वारों और पूरे देश के ऐतिहासिक गुरुद्वारों का प्रबंधन संभालती है। पहले हरियाणा के गुरुद्वारों का कार्य भी उसी के जिम्मे था। अब वहां अलग प्रबंधक समिति बन गई है।
एसजीपीसी की राजनीति पर हमेशा से ही अकाली दल हावी रहा है। लेकिन जब अकाली राजनीति पूरी तरह बादल परिवार के कब्जे में चली गई, तो इस पर भी बादल परिवार हावी हो गया। 1999 में यह स्थिति तब और स्पष्ट हो गई जब एसजीपीसी के अध्यक्ष गुरचरण सिंह तोहड़ा का प्रकाश सिंह बादल से मतभेद हुआ। बादल ने तोहड़ा की जगह जागीर कौर को एसजीपीसी अध्यक्ष बनवा दिया। तोहड़ा फिर बादल से मतभेद खत्म करने के बाद ही इस पद पर लौट सके।
अब जब अकाली दल तेजी से अपना जनाधार खोता जा रहा है, एसजीपीसी के राजनीतिक तनाव और बढ़ गए हैं। कुछ ही महीने पहले अकाल तख्त ने सुखबीर सिंह बादल को तनखैया घोषित किया था। दोषमुक्त होने के लिए सुखबीर सिंह बादल ने तख्त द्वारा दी गई सजा को स्वीकार किया था। माना जाता है कि यह सब कुछ इसलिए हुआ कि सुखबीर बादल की गिर चुकी साख को पंथक वोटरों के बीच फिर से स्थापित किया जा सके।
अकाली दल ही नहीं, इस समय एसजीपीसी खुद भी साख के संकट से गुजर रही है। कभी देश की सबसे लोकतांत्रिक धार्मिक संस्थाओं में गिनी जाने वाली एसजीपीसी में पिछले लगभग डेढ़ दशक से चुनाव ही नहीं हुए हैं। एसजीपीसी के अध्यक्ष और इसकी कार्यकारिणी का चुनाव मतदान से होता है जिसमें आम सिख मतदान करते हैं। लेकिन 2011 के बाद 2016 में होने वाले चुनाव हुए ही नहीं।
चुनाव न होने के कारण बहुत सारे हैं। सबसे बड़ा तो यह है कि सहजधारी सिखों से इस चुनाव में वोट डालने का अधिकार छीन लिया गया। यह मामला अदालत में है। इसके अलावा, मतदाता सूचियां बनाने जैसे काम नहीं हुए हैं। हरियाणा की कमेटी अलग बन जाने के बाद अब नए सिरे से निर्वाचन क्षेत्र भी बनाने होंगे। यह काम भी नहीं हो सका है। सबसे बड़ी बात है कि इसके चुनाव हो सकें, यह चिंता भी कहीं नहीं दिख रही है।
तख्तों का टकराव और एसजीपीसी की साख दोनों ही पंथक नेतृत्व की गड़बड़ियों की ओर इशारा कर रहे हैं। कभी जो एक भरोसेमंद संस्था थी, अब उसमें धड़ेबंदी, बिखराव और राजनीतिक हस्तक्षेप सतह पर है। एसजीपीसी के पूर्व महासचिव सुखदेव सिंह बहूर कहते हैं, "जब शिरोमणि प्रबंधक कमेटी ही रास्ते से भटकती दिख रही है, तो किसे क्या दोष दिया जाए?"
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