एसआईआर और डिटेंशन सेंटर के अंदेशे में दोस्त का उलाहना, 'आपको अपनी राष्ट्रीयता थोड़े ही साबित करनी है...'
यह ख़ौफ़ का वही चेहरा है। ऐसे लोगों की बड़ी तादाद है, जो एसआईआर को केवल वोट देने के अधिकार से जोड़कर नहीं देख रहे हैं, उन्हें डर है कि यह एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) लागू करने के सरकारी मंसूबे का बहाना न हो।

उस रोज़ घेर जाफ़र ख़ां इलाक़े में एक तस्वीर बनाकर लौटते हुए गली के नुक्कड़ पर एक जगह ख़ासी गहमागहमी दिखाई दी, पूछने पर मालूम हुआ कि एसआईआर के फार्म बांटे जा रहे हैं। मेज़ पर झुके उन चेहरों को तो नहीं देख पाया, मगर हाथ में काग़ज़ लेकर तेज़ी से इधर-उधर दौड़ने वालों के ख़ामोश चेहरों पर तनाव और गंभीरता साफ़ झलकती थी। इन दिनों शहर में जगह-जगह यह मंज़र आम है, कि सरकार अपनी अवाम की वोट डालने की क़ाबिलियत की गहरी पड़ताल करा रही है और अवाम सिर्फ़ वोटर बने रहने की जद्दोजहद से आगे अपने मुस्तक़बिल को लेकर हलकान हुई जा रही है।
बरसों से बरेली के पुराने बस अड्डे पर घूम-घूमकर सुरमे के फ़ायदे बताने वाले शायर उस्मान आरिफ़ को खोजते हुए कांशीराम कॉलोनी में उनके घर पहुंचा तो मालूम हुआ कि कूल्हे की हड्डी टूटने की वजह से वह कई महीनों से बिस्तर पर हैं। मैं उनकी तकलीफ़ और इलाज के बाबत पूछ रहा था और उनकी फ़िक्र यह थी कि फूटा दरवाज़ा की ओर की पुरानी वोटर लिस्ट कैसे हासिल होगी, क्योंकि बीस बरस पहले तो वह वहीं रहते थे।
बाल कटाने गया तो कैंची-कंघी उठाते हुए मोहम्मद क़मर ने बड़ी बेचारगी से पूछा था कि आधार कार्ड मान नहीं रहे हैं। वालिद को गए ज़माना हुआ। गांव में पैदा हुआ था, सन् ’84 में, तब बर्थ सर्टिफ़िकेट तो कोई जानता भी नहीं था। अब बताइए कि मैं क्या करूं? मिलने के लिए दफ़्तर आए एक पुराने दोस्त ने कुछ खीझ और बेचैनी के साथ सवाल किया कि ग़रीब और मज़दूर तबक़े के लोग ये फ़ार्म भरने के लिए ज़रूरी काग़ज़ात कहां से लाएंगे?

इन दिनों जहां जाइए, जिससे मिलिए, चर्चा एसआईआर की है। पुराने शहर, या यों कहें कि मुस्लिम बहुल आबादी वाले इलाक़ों में इसे लेकर जितनी हड़बड़ी और सरगर्मी दिखाई देती है, उसके पीछे काम कर रहा ख़ौफ़ और अंदेशा ज़रा देर बात करने पर नुमायां हो जाता है।
मेरे वह दोस्त ख़ासे तालीमयाफ़्ता, ख़ुशदिल और खुली ज़ेहनियत वाले इंसान हैं। उन्हें इतने तैश में मैंने पहले कभी नहीं देखा था। उस दिन की उनकी झुंझलाहट भी ख़ुद अपने बारे में नहीं थी, बल्कि अपने आसपास के लोगों की बेबसी देखकर वह बेचैन थे। बरसों से घरों में काम करने वालों, मज़दूर या फिर सड़क की पटरी पर बेर-जामुन, मेंहदी की पत्तियां बेचने जैसा बेहद मामूली काम करने वालों की ज़िंदगी का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि ये सब आख़िर क्या करेंगे, कहां जाएंगे? पकड़कर वहीं कैंपों में भर दिए जाएंगे, जहां पचास-पचास लोगों के लिए एक संडास और ग़ुसलख़ाना होगा।

यह ख़ौफ़ का वही चेहरा है। ऐसे लोगों की बड़ी तादाद है, जो एसआईआर को केवल वोट देने के अधिकार से जोड़कर नहीं देख रहे हैं, उन्हें डर है कि यह एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) लागू करने के सरकारी मंसूबे का बहाना न हो। और कहीं वे छूट गए, तो फ़ज़ीहत होनी तय है। मुख्यमंत्री ने अफ़सरों से कह ही दिया है कि सूबे के हर ज़िले में डिटेंशन सेंटर बनाए जाएं। बरेली में भी बरसों से ख़ाली पड़ी ज़िला जेल को डिटेंशन सेंटर बनाने की कवायद चल रही है। कलेक्टर और एसपी ख़ुद जाकर झोपड़पट्टियों में बंगलादेशियों और रोहिंग्याओं की तलाश कर रहे हैं।
दोस्त को तसल्ली देने की मंशा से मैंने बताया कि दस्तावेज़ में मेरे घर के दो लोगों के नाम के हिज्जे ग़लत होने की वजह से उनके फ़ार्म भी जमा नहीं हो पाए हैं, उन्होंने झट से जवाब दिया, ‘आपको अपनी राष्ट्रीयता थोड़े ही साबित करनी है!’ मैं हक्का-बक्का रह गया।
एसआईआर में लोगों की मदद के लिए काम कर रही आम औरत सेवा समिति की अध्यक्ष समयुन ख़ान के पास ऐसे लोगों की तमाम कहानियां हैं, जिनके लिए फ़ार्म भरना किसी अज़ाब से कम से नहीं। जलपाईगुड़ी की ज़ुलैख़ा बी के बारे में उन्होंने ही बताया, वह क़रीब 35 साल पहले ब्याह करके बरेली आई थीं। ज़ुलैख़ा के पति मज़दूरी करते थे। काफ़ी समय पहले वह गुज़र गए तो पेट पालने के लिए जुलेखा लोगों के घरों में काम करने लगीं। पिछले दिनों मायके से लोगों ने उन्हें ख़बर दी कि वहां फ़ार्म भरे जा रहे हैं, फ़ार्म नहीं भरा तो उन्हें भगा दिया जाएगा। किसी तरह वह जलपाईगुड़ी पहुंच गईं। वापस लौटीं तो मालूम हुआ कि उन्हें फ़ार्म यहां भरना था। बक़ौल समयुन, बीएलओ से बात करके वहां उन्हें ‘अनमैप’ कराया और उनका फ़ार्म जमा कराया। फिर भी वह जब-तब रोती हुई यह मालूम करने आ जाती हैं कि उनके फ़ार्म का क्या हुआ? डर उन्हें सोने नहीं दे रहा है।
नज़मा का मायका कोकराझार (असम) में है। 2003 में उनकी शादी बरेली के तस्लीम से हुई। तब से वह यहीं रहती हैं। वर्षों से बरेली की कैंट विधानसभा की मतदाता भी हैं। उन्होंने फ़ार्म भरा ज़रूर, मगर 2003 के रिकॉर्ड में नाम नहीं होने की वजह से वापस आ गया। अब वह पुराना रिकॉर्ड जुटाने की जद्दोजहद कर रही हैं। कोशिश कर रही हैं कि असम के एनआरसी से उनके मां-बाप का ब्यौरा मिल जाए, तो शायद वोट डालने का अपना हक़ बचाने और अपने ही देश का नागरिक कहलाने की सहूलियत मिल जाए।
बाकरगंज, हजियापुर, लीची बाग़, स्वाले नगर, क़िला और पुराने शहर के बड़े हिस्से में ज़ुलैख़ा जैसे कितने ही लोग इसी ख़ौफ़ में जी रहे हैं। भाग-दौड़ करके, भरोसे के लोगों से मिलकर भरसक जतन कर रहे हैं कि किसी तरह ज़रूरी काग़ज़ात जुटा लें। बरेली ही क्यों, सूबे के दूसरे ज़िलों का भी कमोबेश यही हाल है।
मोहनपुर ठिरिया में बतौर बीएलओ काम कर रही एक शिक्षक (उनके कहने पर उनकी पहचान ज़ाहिर नहीं की जा रही है) ने बताया कि उनके इलाक़े में आधे से ज़्यादा आबादी के पास आधार कार्ड के सिवाय पहचान का कोई और दस्तावेज़ नहीं है। आधार को पहचान पत्र माना नहीं गया है। तमाम ट्रांसजेंडर हैं, जिनके पास पहचान के दर्जन भर दस्तावेज़ में से एक भी नहीं है। ढंग का कमाते-खाते हैं, मगर बैंक की पासबुक या एलआईसी की कोई पॉलिसी भी नहीं। वह कहती हैं “आबादी का एक बड़ा हिस्सा अनपढ़ है। वे मज़दूरी करते हैं। सर्टिफिकेट कैसे बनवा सकते हैं?”
अगर ये ख़बरें सही हैं कि हर ज़िले में बड़ी तादाद में वोट कटेंगे, तो यह अंदाज़ लगाना बहुत मुश्किल नहीं कि ऐसे लोग कौन होंगे। कौन जाने कि नोटिस की मार्फ़त उन्हें एक मौक़ा और मिलने तक वे यह साबित करने के लायक़ हो ही जाएं कि वे कहीं और के नहीं, यहीं के हैं। शायदऐसे ही लोगों के लिए निदा फ़ाज़ली ने कहा होगा –
किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं...
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