विशेष जन सुरक्षा कानूनः आखिर किसका डर सता रहा है फडणवीस सरकार को?
वरिष्ठ पत्रकार राजू पारुलेकर को आशंका है कि धारावी में अडानी समूह द्वारा बेशकीमती जमीन पर कब्जा करने के खिलाफ आवाज उठाने वालों को अब नए कानून की मदद से परेशान किया जा सकता है।

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने विधानसभा में कहा है कि हिंसक नक्सली गतिविधियां अब केवल गढ़चिरौली जिले की दो तहसीलों तक सीमित रह गई हैं और वह भी समाप्त होने वाली हैं। खनिजों और वनों से समृद्ध गढ़चिरौली पर खनिकों की निगाहें जमी हैं। इस सबके बीच यहां के मूल निवासी आदिवासी जमीन और जंगल पर अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे हैं। लेकिन मुख्यमंत्री फडणवीस शहरी इलाकों में नक्सली गतिविधियां फैलने को लेकर चिंतित हैं। इससे निपटने के लिए वह महाराष्ट्र विशेष जन सुरक्षा अधिनियम (राज्यपाल द्वारा हस्ताक्षर किए जाने के बाद) ला रहे हैं।
यह सच्चाई है कि महाराष्ट्र ने 1990 के दशक में बस विस्फोट और 26/11 को मुंबई पर आतंकी हमला देखा है। इनसे मौजूदा कानूनों और गैरकानूनी गविविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत निपटा गया। महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका) ने भी आतंकवाद और संगठित हिंसा से निपटने में मदद की। तब फिर फडणवीस को ‘शहरी नक्सलियों’ से निपटने के लिए एक विशेष कानून की आवश्यकता क्यों महसूस हो रही है?
महाराष्ट्र विशेष सुरक्षा विधेयक 11 जुलाई 2025 को विधानसभा और फिर विधान परिषद में पारित हुआ था। इसे जायज ठहराते हुए फडणवीस का कहना है कि यूएपीए का इस्तेमाल ‘सक्रिय नक्सलवाद’ से निपटने के लिए किया जा सकता है लेकिन ‘निष्क्रिय नक्सलवाद’ से नहीं। इस नए विधेयक का उद्देश्य राज्य में वामपंथी उग्रवाद (पहले के मसौदे में प्रयुक्त ‘शहरी नक्सल’ शब्द का स्थान लेते हुए) पर अंकुश लगाना है।
फडणवीस का दावा है कि शहरी इलाकों में निष्क्रिय उग्रवाद तेजी से बढ़ रहा है। इसलिए एक कानून की जरूरत है। खुफिया एजेंसियों ने चेताया है कि शैक्षणिक संस्थानों, छात्रों और गैरसरकारी संगठनों के अलावा सांस्कृतिक समूहों और सामूहिक संगठनों में उग्रवादी विचार खतरनाक तरीके से बढ़ा है। खुद वकील फडणवीस इस पर जोर देते हैं कि नया कानून चार अन्य नक्सल प्रभावित राज्यों- छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, ओडिशा और तेलंगाना द्वारा पारित कानूनों की तुलना में ‘ज्यादा प्रगतिशील’ है।
यह भी कहा कि नए कानून के तहत तब तक किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी नहीं की जा सकती जब तक कि वह किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य न हो। लेकिन यह कानून राज्य को संगठनों को गैरकानूनी घोषित करने और उनके सदस्यों को रातोंरात गिरफ्तार करने का अधिकार देता है। राज्य उन लोगों पर भी मुकदमा चला सकता है और गिरफ्तार कर सकता है जो भले ही सदस्य न हों लेकिन संगठनों और सदस्यों को रसद सहायता, आश्रय और वित्तीय सहायता प्रदान करते हैं।
आखिर, सरकार किस बात से डरी हुई है? बाम्बे हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश गौतम पटेल कहते हैं कि शायद सरकार अपनी गलतियों की जवाबदेही से डर रही है। कई कार्यकर्ताओं का मानना है कि छात्रों, शिक्षकों, किसानों, मजदूरों, राहगीरों और नागरिक समाज समूहों में बढ़ते असंतोष से घबराकर सरकार उन पर कार्रवाई के लिए जमीन तैयार कर रही है। सार्वजनिक धन के दुरुपयोग, शहरी बुनियादी ढांचे की दुर्दशा, बढ़ते भ्रष्टाचार को लेकर असहज करने वाले सवाल उठ रहे हैं। इसलिए सरकार यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रही है कि लोग सवाल पूछना ही बंद कर दें।
सीपीएम विधायक विनोद निकोले कहते हैं कि कई वामपंथी संगठन कर्मचारियों, श्रमिकों और उत्पीड़ितों, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन करते हैं या किसानों के लंबे मार्च आयोजित करते हैं। विनोद निकोले पूछते हैं, क्या यह कानून निकट भविष्य में इस सब पर नए कानून के तहत प्रतिबंध लगाया जाएगा?
बहुत सख्त विरोध के कारण इस विधेयक को पिछले साल विधायी समिति को भेज दिया गया था जिसने जनता की प्रतिक्रिया आमंत्रित की थी। कुल 12,400 प्राप्त हुईं। सरकार ने स्वीकार किया कि उनमें से 7,500 ने विधेयक रद्द करने की वकालत की थी। इसके बावजूद सरकार ने विधेयक को वापस लेने से इनकार कर दिया। अन्य आपत्तियों और सुझावों के बारे में तो पता नहीं, लेकिन नए मसौदे में केवल तीन बदलाव किए गए थे। यह भी पता नहीं कि इनमें से कोई भी सुझाव जनता द्वारा दिया गया था या नहीं।
पहले बदलाव में विधेयक का नाम छोटा और संशोधित किया गया। दूसरा बदलाव सलाहकार बोर्ड के गठन से संबंधित था जो किसी संगठन पर प्रतिबंध लगाने के राज्य सरकार के प्रस्ताव की जांच करेगा। पहले इस समिति में हाईकोर्ट के न्यायाधीश बनने के योग्य तीन सदस्य होने थे। संशोधित मसौदे में कहा गया है कि एक सदस्य हाईकोर्ट का सेवानिवृत्त न्यायाधीश, दूसरा सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश और तीसरा सरकारी वकील होगा। अंतिम बदलाव में प्रावधान किया गया कि जांच अधिकारी उप निरीक्षक नहीं, बल्कि एक डीएसपी होगा।
नया कानून न केवल सरकार को निगरानी के लिए व्यापक अधिकार प्रदान करता है, बल्कि संपत्ति जब्त करने, बैंक खाते फ्रीज करने और चल-अचल संपत्ति को 'बिना किसी सूचना के' कुर्क करने का भी अधिकार देता है। इस कानून के तहत अपराध गैर-जमानती हैं, यानी पुलिस अदालती वारंट के बिना भी लोगों को गिरफ्तार कर सकती है, जिसके लिए 2-7 साल की कैद और 2-5 लाख रुपये का जुर्माना हो सकता है। गिरफ्तार लोगों को उनके किराये के मकान से भी बेदखल किया जा सकता है।
कुछ पर्यवेक्षकों का मानना है कि भीमा कोरेगांव मामले में आरोपियों की गिरफ्तारी के सात साल बाद भी उन पर मुकदमा चलाने के लिए पुख्ता सबूत पेश करने में महाराष्ट्र पुलिस की विफलता ने ही राज्य सरकार को यह कानून लाने के लिए उकसाया होगा। भीमा-कोरेगांव के आरोपियों में देश भर से वकील, प्रोफेसर, पुजारी, कार्यकर्ता और गायक शामिल थे, जिनमें से कई न तो पुणे के पास भीमा कोरेगांव गए थे और न ही स्वर्गीय फादर स्टेन स्वामी की तरह उस जगह के बारे में जानते थे। फिर भी, उन पर प्रतिबंधित संगठनों से संबंध रखने और 1 जनवरी 2018 को भीमा कोरेगांव में हिंसा भड़काने का आरोप लगाया गया था।
सरकार के पास हिंसा और उग्रवाद से निपटने के लिए पहले से ही कई कानून हैं। क्या सरकार को यह स्पष्ट नहीं करना चाहिए कि अब तक इन कानूनों के तहत कितने मामले दर्ज किए गए हैं और कितनों में दोषसिद्धि हुई है? फडणवीस ने विधानसभा में संकेत दिया कि उनका तात्कालिक लक्ष्य राज्य में सक्रिय छह संगठनों पर लगाम लगाना है। विधानसभा के अंदर या बाहर उनके नाम लेने से इनकार करने पर आक्रोश फैल गया है। हालांकि, राजनीतिक हलकों में इन संगठनों के नाम चर्चा में हैं: दंडकारण्य आदिवासी किसान मज़दूर संगठन, क्रांतिकारी आदिवासी महिला संगठन, रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेटिक फ्रंट, विरोधी सांस्कृतिक संगठन, इंडियन एसोसिएशन ऑफ पीपुल्स लॉयर्स, कमेटी अगेंस्ट वायलेंस अगेंस्ट वीमेन और कबीर कला मंच।
महानगर के पूर्व संपादक निखिल वागले, वरिष्ठ पत्रकार राजू पारुलेकर, बॉम्बे हाईकोर्ट की वकील लारा जेसानी, वरिष्ठ पत्रकार गीता शेषु और राजनीतिक विश्लेषक विवेक भावसार ने भी नए कानून का विरोध किया है। भावसार कहते हैं कि राज्य में दलितों और आम्बेडकरवादियों को जाति भेदभाव के खिलाफ और उनके अधिकारों की लड़ाई के लिए भी इस कानून के तहत फंसाया जा सकता है।
सरकार की असली मंशा पर संदेह करते हुए उनका मानना है कि इस कानून का इस्तेमाल असहमति को दबाने के लिए किया जाएगा। जेसानी का मानना है कि नए कानून की कोई जरूरत नहीं है। वागले का सवाल है कि अगर राज्य में नक्सलवाद खत्म हो चुका है या खत्म हो रहा है, तो फिर एक और कानून लाने की क्या जरूरत थी? इन सभी का कहना है कि मुख्यमंत्री ने छह 'वामपंथी' संगठनों का जिक्र किया है, तो उन्हें सदन में उनका नाम लेना चाहिए था।
पारुलेकर कहते हैं कि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने आधिकारिक तौर पर कहा है कि देश में लगभग तीन-चौथाई नक्सली गतिविधियां खत्म हो गई हैं। उनका तर्क है कि अगर बिना किसी और विशेष कानून के यह परिणाम हासिल हो गया है, तो नए कानून की क्या जरूरत है? उन्हें आशंका है कि धारावी में अडानी समूह द्वारा बेशकीमती जमीन पर कब्जा करने के खिलाफ आवाज उठाने वालों को अब नए कानून की मदद से परेशान किया जा सकता है।
फडणवीस ने दलील दी कि यह विधेयक केन्द्र सरकार के निर्देश पर पेश किया गया है। उन्होंने सदन को बताया, "मैं राज्य को आश्वस्त करना चाहता हूं कि व्यवस्था के खिलाफ बोलने के लोगों के मौलिक अधिकार पर इस कानून का कोई असर नहीं पड़ेगा। यह न तो वामपंथी दलों के खिलाफ है और न ही विपक्षी दलों के खिलाफ कार्रवाई के लिए है।" यह पूछे जाने पर कि मौजूदा कानून पर्याप्त क्यों नहीं हैं, उन्होंने कहा, "यूएपीए केवल तभी लागू किया जा सकता है, जब किसी व्यक्ति या संगठन पर इसके तहत मामला दर्ज करने के लिए हथियारों का इस्तेमाल और 'सक्रिय हिंसा' हो।" इस प्रक्रिया में, वह इस कानून के बारे में लोगों के सबसे बुरे संदेह को ही पुष्ट कर रहे हैं।
बॉम्बे हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश गौतम पटेल के हवाले से मीडिया में कहा गया है कि यह विधेयक संवैधानिक कसौटी पर खरा नहीं उतर सकता। वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत दवे ने भी कहा है कि अगर विधेयक को 'किसी पूर्णतः स्वतंत्र अदालत' में चुनौती दी जाती है, तो यह संविधान के विरुद्ध ही साबित होगा।
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