एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट का फैसला: क्या है सरकार की मंशा?

नरेंद्र मोदी की सरकार के आने के बाद दलित उत्पीड़न की घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ी हैं। सरकारी सेवाओं और शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों के आरक्षण के प्रावधानों को लगातार कमजोर होता हुआ देखा जा रहा है।

फोटोः ,सोशल मीडिया
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अनिल चमड़िया

सुप्रीम कोर्ट ने डॉ सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले (क्रिमिनल अपील नंबर 416/2018) के बहाने अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (उत्पीड़न रोकथाम) कानून 1989 को लेकर 20 मार्च 2018 को जो दिशा निर्देश जारी किया है, उसकी पृष्ठभूमि पर गौर करना जरुरी है।

सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में दलित और आदिवासी उत्पीड़न विरोधी इस कानून के प्रावधानों की नई व्याख्याएं पेश की हैं। एक मामले में पूरे कानून पर सवाल खड़ा करने की मिसाल इन दिनों बढ़ रही है। वंचित वर्गों के सशक्तिकरण से जुड़े कानूनों के साथ खासतौर से ऐसा देखा जा रहा है। दलित-आदिवासी उत्पीड़न विरोधी कानून पर टिप्पणी से पहले सुप्रीम कोर्ट के इन्हीं दो जजों की पीठ ने महिलाओं के उत्पीड़न संबंधी कानून की भी लगभग इसी तरह व्याख्या की थी।

सुप्रीम कोर्ट कोई टापू पर बैठी संस्था नहीं है। जिस तरह से लंबे समय से चले राजनीतिक, सामाजिक आंदोलनों के दबाव में आकर संसद को इस तरह का कानून बनाना पड़ा था, ठीक उसी तरह उसके उलट राजनीतिक, सामाजिक दबावों में वंचितों की सुरक्षा और हितों में बनाए गए प्रावधानों पर हमले हो रहे हैं। ये राजनीतिक, सामाजिक दबाव क्या है? यह दबाव क्या समाज के वंचित वर्गों के हितों की सुरक्षा का है या फिर ये दबाव वंचितों के हितों से नाराज होने वाले समाज के वर्चस्ववादी समूहों का दबाव है?

क्या है पूरा मामला

यह मामला 2009 में महाराष्ट्र के कराड स्थित सरकारी फार्मेसी कॉलेज में एक दलित कर्मचारी द्वारा प्रथम श्रेणी के दो अधिकारियों के खिलाफ उक्त कानून की धाराओं के तहत शिकायत दर्ज कराने का है। डीएसपी स्तर के पुलिस अधिकारी ने इस मामले की जांच की और चार्जशीट दायर करने के लिए आला अधिकारियों से लिखित निर्देश मांगा। उस संस्थान के प्रभारी डॉ सुभाष काशीनाथ महाजन ने अपने अधिकारों का दुरुपयोग किया और जिसकी वजह से चार्जशीट दायर नहीं की जा सकी। इसके बाद दलित कर्मचारी ने डॉ महाजन के खिलाफ शिकायत दर्ज कराया। डॉ महाजन ने हाई कोर्ट में उस एफआईआर को रद्द करने की मांग की, जिसे हाई कोर्ट ने ठुकरा दिया। इसके बाद डॉ महाजन ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की।

इस तरह उत्पीड़न का शिकार होने वाले कर्मचारी के बजाय यह मामला सरकार बनाम डॉ महाजन के रूप में सुप्रीम कोर्ट के सामने आया।

फैसले के वक्त की सामाजिक-राजनीतिक हालात

केन्द्र में जो भी पार्टी सत्ता में होती है, उस पार्टी का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आधार उस दौरान सत्ता की पूरी प्रक्रिया को संचालित करता है। नरेंद्र मोदी की सरकार के आने के बाद से देश में दलित उत्पीड़न की घटनाएं बहुत तेजी के साथ बढ़ी हैं। वंचित वर्गों के लिए सरकारी सेवाओं में और शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों के आरक्षण के प्रावधानों को लगातार कमजोर होते महसूस किया जा रहा है। यूजीसी ने विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षकों की नियुक्तियों में आरक्षण के प्रावधान को इस तरह से कर दिया है कि वंचित वर्गों में असुरक्षा की भावना और बढ़ गई है। इन सभी हालातों के बीच रखकर ही सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की समीक्षा की जा सकती है।

कानून की सुरक्षा करने में सरकार की विफलता

इस मामले में केंद्र सरकार के एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ने जिस तरह से अपनी दलीलों को पेश किया, उससे इस मुकदमे के प्रति सरकार की संजीदगी का साफ पता चल जाता है। दरअसल एक कानून जब बनता है तो उसके लिए तथ्यों को आधार बनाया जाता है और संविधान के मुताबिक समाज के दबे-कुचले लोगों के पक्ष में उन तथ्यों की व्याख्या की जाती है। लेकिन इस समय की सच्चाई यह है कि दलितों और आदिवासियों के उत्पीड़न की शिकायतें तेजी से बढ़ी हैं। लेकिन उन शिकायतों पर सरकार कार्रवाई करने में विफल हो रही है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में पुलिस में 2016 में की गई शिकायतों का एक आंकड़ा और उसके नतीजों का हवाला दिया है कि दलितों के उत्पीड़न के कुल मामलों में 5347 मामले और आदिवासियों के उत्पीड़न की कुल शिकायतों में से 912 शिकायतें झुठी पाई गईं। 2015 में 15638 मुकदमों में 11024 मुकदमों में सजा नहीं हुई या आरोप मुक्त कर दिया गया। 495 मामले वापस ले लिये गए। केवल 4119 मामलों में सजा हुई।

इन तथ्यों की व्याख्या इस रूप में की जा सकती है कि इन सालों में दलितों और आदिवासियों के उत्पीड़न के खिलाफ कार्रवाई के मामले में सत्ता का तंत्र ढीला पड़ा है। यह आंकड़े शिकायतों के फर्जी होने से ज्यादा सत्ता की मशीनरी पर सवाल खड़े करते हैं। लेकिन मजेदार यह है कि जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने इन आंकड़ों की व्याख्याओं को अपने फैसले के अनुकूल करने की कोशिश की है, उसी तरह से सरकार के वकील की दलीलों ने भी उन व्याख्याओं को मजबूत करने में मदद पहुंचाई। सरकार के वकील ने भी कहा कि 2015 के 75 प्रतिशत मामलों में आरोपियों को दोषमुक्त कर दिया गया और उन्हें वापस ले लिया गया। 15-16 प्रतिशत मामलों में पुलिस अधिकारियों ने मुकदमे को बंद करने की रिपोर्ट पेश की।

कमजोर वर्गों के लिए प्रावधानों की व्याख्या

इन तर्कों के आधार पर क्या उन कानूनों की भी व्याख्या कर सकते हैं, जिन्हें सत्ता की मशीनरी अल्पसंख्यकों के खिलाफ लगातार इस्तेमाल करती रही है। जब वे आरोप न्यायालय में साबित नहीं हो पाते हैं तो क्या उन कानूनों और प्रावधानों को भी समाप्त कर देना चाहिए? दलितों और आदिवासियों का उत्पीड़न बहुस्तरीय होता है और उनकी शिकायतों पर कार्रवाई नहीं होने के भी बहुस्तरीय ढांचे मौजूद हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में हवाला दिया है कि कैसे समाज के प्रभावशाली लोगों के खिलाफ इस कानून के तहत शिकायतें दर्ज करायी जाती हैं। लेकिन उत्पीड़न तो बराबर समाज पर वर्चस्व रखने वाला समूह, समुदाय और संस्कृति ही करती है? राजनीतिक स्थितियां यह तय करती हैं कि किन आंकड़ों की किस तरह से व्याख्या की जाए। समाज के कमजोर वर्गों के लोकतंत्रीकरण, आर्थिक, राजनीतिक अधिकारों पर हमला करने की दृष्टि से कानून समेत उन तमाम प्रावधानों की व्याख्याएं की जा रही हैं। जिसे लंबे संघर्षों के बाद वंचितों ने हासिल किया है। यह संयोग नहीं है कि महिलाओं, वंचितों और अल्पसंख्यकों में असुरक्षा की भावना बढ़ी है। दरअसल इस तरह के फैसले असुरक्षा की भावना को और तेज करते हैं।

दलित उत्पीड़न कानून को ही जातिवाद बढ़ाने वाले कानून के रूप में देखा गया है, जबकि यह जातीय उत्पीड़न के विरुद्ध कानून के रुप में सामने आया है। इस फैसले में कई मजेदार पहलू हैं, उनमें एक पूर्व पीएम अटल बिहारी वाजपेयी के भाषण के एक हिस्से को भी उद्धृत किया गया है। आमतौर पर जिस तरह से डॉ अंबेडकर से लेकर मानवाधिकार घोषणा पत्र की व्याख्या वर्चस्ववादी राजनीतिक-सामाजिक समूह इन दिनों करता है। लगभग उन्हें उसी तरह से इस फैसले में दोहराया गया है। यह फैसला न्यायालयों द्वारा नहीं बल्कि न्यायाधीशों द्वारा फैसलों के लिखे जाने में सामाजिक, राजनीतिक पृष्ठभूमि के प्रभाव का अध्ययन करने के लिए एक उदाहरण के रुप में याद किया जाएगा।

नरेंद्र मोदी की सरकार के आने के बाद दलित उत्पीड़न की घटनाएं बहुत तेजी के साथ बढ़ी हैं। वंचित वर्गों के लिए सरकारी सेवाओं में और शैक्षणिक संस्थानों में छात्रों के आरक्षण के प्रावधानों को लगातार कमजोर होते महसूस किया जा रहा है।

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