धर्मांतरण के खिलाफ कानूनों की समीक्षा करेगा सुप्रीम कोर्ट, यूपी-उत्तराखंड को नोटिस जारी, फिलहाल रोक से इनकार

सुप्रीम कोर्ट ने आज कथित लव-जिहाद के खिलाफ उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में लागू धर्मांतरण विरोधी कानूनों की समीक्षा के लिए सहमति देते हुए दोनों राज्यों को नोटिस जारी किया है। हालांकि, सीजेआई की पीठ ने फिलहाल इन दोनों कानूनों पर रोक लगाने से इनकार कर दिया।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

सुप्रीम कोर्ट में बुधवार को कथित लव जिहाद रोकने के नाम पर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अंतर धार्मिक शादी को रोकने के लिए बनाए गए कानूनों के खिलाफ दायर याचिकाओं पर सुनवाई हुई। इस दौरान सीजेआई एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने 'उत्तर प्रदेश गैरकानूनी धर्मातरण निषेध अध्यादेश- 2020' और 'उत्तराखंड धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम- 2018' की संवैधानिक वैधता की समीक्षा करने पर सहमति देते हुए दोनों राज्यों को नोटिस जारी करते हुए जवाब तलब किया है।

हालांकि, आज की सुनवाई में सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में धर्मांतरण रोकने के लिए लागू कानूनों के विवादास्पद प्रावधानों पर तुरंत रोक लगाने से इनकार कर दिया। पीठ ने कानूनों को लेकर उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड की सरकार को नोटिस जारी कर चार हफ्ते में जवाब देने को कहा है। अब इस मामले पर चार हफ्तों के बाद सुनवाई होगी। सुनवाई के दौरान सीजेआई एस ए बोबडे ने कहा कि अच्छा होता, यदि याचिकाकर्ता शीर्ष अदालत में आने की बजाय संबंधित उच्च न्यायालय जाते।

सुनवाई के दौरान वरिष्ठ अधिवक्ता सी.यू. सिंह ने याचिकाकर्ताओं में से एक का प्रतिनिधित्व करते हुए कहा कि विवाहित जोड़े को इस बात का प्रमाण देना कि यह विवाह धर्मातरण नहीं है, यह उनपर एक तरह का दबाव डालने जैसा होगा। सिंह ने कहा कि कई घटनाएं रिकॉर्ड में आई हैं जहां भीड़ ने अंतरधार्मिक विवाह में बाधा पहुंचाई और इन कानूनों के तहत कठोर सजा का भी हवाला दिया।

सुनवाई के दौरान एक अन्य याचिकाकर्ता के वकील ने पीठ को बताया कि मध्य प्रदेश और हरियाणा में इस तरह का कानून लाने की कवायद चल रही है। इस पर पीठ में शामिल न्यायमूर्ति ए.एस. बोपन्ना और वी. रामसुब्रमण्यम ने कहा कि वे कानून के खिलाफ याचिकाकर्ताओं की दलीलें सुनेंगे और फिर कानून पर नोटिस जारी करेंगे।

बता दें कि इन कानूनों के खिलाफ दो अधिवक्ताओं- विशाल ठाकरे और अभय सिंह यादव और एक कानून शोधकर्ता प्राणवेश द्वारा दायर याचिकाओं में कहा गया है कि ये कानून संविधान के मूल ढांचे में हस्तक्षेप करते हैं। सबसे अहम मुद्दा यह है कि क्या संसद के पास संविधान के भाग तीन के तहत निहित मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की शक्ति है। याचिकाकर्ताओं ने दलील दी कि संसद के पास मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की कोई शक्ति नहीं है और यदि इन कानूनों को लागू किया जाता है तो यह बड़े पैमाने पर जनता को नुकसान पहुंचाएगा और समाज में अराजकता की स्थिति पैदा होगी।

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