सर्दी का सितम और खुला आसमान: बेघरों की सुध लेने वाला कोई नहीं, शेल्टर होम नाकाफी और बेहाल

लुटियंस दिल्ली में ही गोल मार्केट‚ बाबा खड़क सिंह मार्ग‚ बंगला साहिब‚ मिंटो रोड आदि इलाकों में खुले में रात बिताने वाले दिख जाते हैं। इसके अलावा कड़कड़डूमा‚ आईटीओ‚ यमुना बैंक‚ लक्ष्मी नगर‚ विवेक विहार समेत कई ऐसे इलाके हैं‚ जहां बेघर फुटपाथ पर सोते हैं।

दिल्ली में सराय कालेखां बस अड्डे के नजदीक फ्लाईओवर के नीचे रात गुजारते लोग (फोटो : Getty Images)
दिल्ली में सराय कालेखां बस अड्डे के नजदीक फ्लाईओवर के नीचे रात गुजारते लोग (फोटो : Getty Images)
user

पंकज चतुर्वेदी

राजधानी दिल्ली इन दिनों कड़ाके की सर्दी से ठिठुर रही है । हवा इतनी सरद है कि वहहड्डियों पर चोट कर रही है । यह सुनना शायद सभी समाज के लिए शर्मनाक होगा कि सत्ता के केंद्र इस महानगर में कई लोग जाड़े के कारण दम तोड़ चुके हैं । खुद दिल्ली सरकार ने आंकड़ों को स्वीकार किया हैै कि पिछले दो सालों की तुलना में इस बार सर्दी से मरने वालों की संख्या अधिक है।

विभिन्न सरकारी एजेंसियों से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार एक से 22 जनवरी के बीच दिल्ली में तकरीबन 180 लोग जाड़े के चलते अपनी जान से हाथ धो बैठे। इनमें से 80  फीसदी लोग बेघर थे। उनके शवों को लावारिस मानकर अंतिम संस्कार कर दिया गया। इनमें से 30 फीसदी ऐसे थे जो पहले से बीमार थे और इस बार की सर्दी बरदाश्त नहीं कर पाए।

सेंटर फॉर हॉलिस्टिक डेवलपमेंट (सीएचडी) से मिले आंकड़ों के अनुसार एक से 22 जनवरी के बीच अकेले दिल्ली में हुई इतनीे बेघरों की मौत सरकार के “हर एक को पक्का घर” के दावों की पोल खोलती है । सीएचडी और दिल्ली सरकार की स्वायत्त संस्था दिल्ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड साथ मिलकर बेघरों की मौतों का आंकड़ा एकत्रित करते हैं। इसमें दिल्ली पुलिस और अन्य एजेंसियां विभिन्न अस्पतालों के पोस्टमार्टम हाउस में रखे गए शवों की शिनाख्त के जरिए पहचान करती हैं। 

एम्स के बाहर खुले में रात गुजारने वालों की संख्या हजारों में है (Getty Images)
एम्स के बाहर खुले में रात गुजारने वालों की संख्या हजारों में है (Getty Images)
Hindustan Times

कितना दुखद है कि सरकारी उदासीनता के चलते संसद भवन से कुछ ही दूरी पर मौसम की मार से इंसानी जिंदगी दम तोड़ रही है। बात शेल्टर होम्स या आश्रय गृहों की करें तो वहां सीलन‚ बदबू के साथ ही पानी की कमी जैसी बुनियादी सुविधाएं तक पर्याप्त नहीं हैं।

यह कड़वा सच है कि इन रैनबसेरों में मूल भूत सुविधाएं तक नहीं हैं। खासकर औरतों के लिए शौचालय, कपड़े बदलने की जगह  या अपना सामान सुरक्षित रखने की कोई व्यवस्था नहीं है।इनआश्रय घरों में सुरक्षा की भी व्यवस्था नदारद है, यही नहीं, बहुत से नशेड़ी और असामाजिक तत्वों ने इन रैन बसेरों पर कब्जा कर लिया है।

सत्ता के केंद्र लुटियंस दिल्ली में ही गोल मार्केट‚ बाबा खड़क सिंह मार्ग‚ बंगला साहिब‚ मिंटो रोड आदि इलाकों में खुले में रात बिताने वाले दिख जाते हैं। इसके अलावा  कड़कड़डूमा‚ आईटीओ‚ यमुना बैंक‚ लक्ष्मी नगर‚ विवेक विहार समेत कई ऐसे इलाके हैं‚ जहां बेघर फुटपाथ पर सोते और अलाव के सहारे रात गुजारते दिख जाएंगे।

दिल्ली सरकार का दावा है कि महानगर में स्थापित रैन बसेरों में हर रात बीस हजार लोग आश्रय पा रहे हैं । इनमें स्थाई भवन केवल 82 हैं। पोर्टा केबिन वाले 103 और अस्थाई टेंट वाले 134  रैन बसेरे सरकारी रिकार्ड में है। इसके बावजूद  आईएसबीटी, उसके पास निगम बोध घाट,  हनुमान मंदिर, कनॉट प्लेस से ले कर मूलचंद, आईआईटी और  धौलाकुआं के फ्लाईओवर के नीचे हजारों लोग रात काटते मिल जाएंगे ।

लुटियंस दिल्ली में सड़क किनारे रात गुजारते लोग दिख जाना आम बात है (Getty Images)
लुटियंस दिल्ली में सड़क किनारे रात गुजारते लोग दिख जाना आम बात है (Getty Images)

सबसे दर्दनाक हालात एम्स व सफदरजंग अस्पताल के पास के हैं, वहां बीमार और उनके साथ आए तीमारदारों की संख्या हजारों में है, जबकि दो रैन बसेरों की क्षमता बमुश्किल 150 है । लोग सारी रात ओस और कोहरे में भीगते दिखते हैं। मीना बाजार व जामा मस्जिद के रैन बसेरों में सात से आठ सौ लोगों के सोने की जगह है।

दिल्ली की त्रासदी है कि यहाँ के रैनबसेरे गैर सरकारी संगठनों के बदौलत हैं और वहां काम करने वाले कर्मचारी बहुत मामूली वेतन पाते हैं। सरकारी प्रश्रय वाले संगठनों को ये रैन बसेरे बांट दिए जाते हैं और फिर कोई उनकी सुध लेता नहीं ।

एक तो कड़ाके का जादा, ऊपर से न ओढ़ने बिछाने को पर्याप्त  साधन, न ही पौष्टिक भोजन,  न्यूनतम स्वास्थ्य सेवा की तो बात ही क्या की जाए। अनुमान है कि दिल्ली और उससे सटे यूपी-हरियाणा के जिले, जिन्हें एनसीआर कहा जाता है, में कोई दो लाख लोग बेघर हैं। हाल ही में गाजियाबाद में तो प्रशासन ने आदेश दिया है कि रैन बसेरों में रहने वालों की नियमित स्वास्थ्य जांच हो। दिल्ली के सब्जी मंडी मोर्चरी के रिकार्ड में दर्ज है कि वहां रखे  लावारिस शवों में साथ-आठ ऐसे हैं जो जाड़े और भूख की दोहरी मार के कारण जान गंवा बैठे।

Getty Images
Getty Images

आखिर इतने सारे लोग क्यों आसमान तले सोते हैं? यह सवाल करने वाले पुलिस वाले भी होते हैं। इस क्यों का जवाब पुरानी दिल्ली की पतली-संकरी गलियों में जमाने से थोक का व्यापार करने वाले कुशल व्यापारियों के पास हो सकता है। इन व्यापारियों के लिए काम करने वाले मजदूर अगर झुग्गी किराए पर लेंगे तो कहीं दूर से आना होगा। फिर आने-जाने का खर्च बढ़ेगा, समय लगेगा।

राजधानी की सड़कों पर कई तरह के भारी ट्रैफिक पर पाबंदी के बाद लाल किले के सामने फैले चांदनी चौक से पहाड़ गंज तक के सीताराम बाजार और उससे आगे मुल्तानी ढांडा और चूना मंडी तक के थोक बाजार में सामान को लाने-ले जाने का जरिया सिर्फ मजदूरों के कंधे और रेहड़ी ही रह गए हैं। यह काम कभी देर रात होता है तो कभी अल्लसुबह। ऐसे में उन्हीं मजदूरों को काम मिलता है जो वहां तत्काल मिल जाएं। फिर यदि काम करने वाला दुकान का शटर बंद होने के बाद वहीं चबूतरे या फुटपाथ पर सोता हो तो बात ही क्या है? मुफ्त का चौकीदार। अब बाहर खुले में सोने वाले को पैसा रखने की कोई सुरक्षित जगह तो है नहीं, यानि अपनी बचत भी सेठजी के पास  ही रखेगा। एक तो पूंजी जुट गई, साथ में मजदूर की जमानत भी हो गई।


Getty Images
Getty Images

एक और कारण भी है कि बहुत से लोग तो रैन बसेरे में इसलिए नहीं घुस पाते क्योंकि उनके पास आधार कार्ड नहीं होता और बगैर आधार के यहां जगह मिलती नहीं।  एक गैरसरकारी संगठन की सर्वे रिपोर्ट से पता चलता है कि इन बेघरों में से 23.9 प्रतिशत लोग ठेला खींचते हैं व 19.8 की जीविका का साधन रिक्शा है। इसके अलावा ये रंगाई-पुताई, कैटरिंग, सामान की ढुलाई, कूड़ा बीनने, निर्माण कार्य में मजदूरी जैसे काम करते हैं। इनमें कुछ सुनार और बढ़ई भी हैं। इनमें भिखारियों की संख्या 0.25 भी नहीं थी । ये सभी सुदूर राज्यों से काम की तलाश  में राजधानी आए हैं या आते रहते हैं।

ऐसे में जरूरत है ऐसी नीति की है, जो लोकतंत्र में निहित मूलभूत अधिकारों में से एक ‘मकान’ के लिए शहरी परिपेक्ष्य में सोच सके। रैनबसेरों के अस्थाई तंबू या पोर्टा केबिन के मुकाबले हर एक को मकान की योजना ज्यादा कारगर होगी और इसके लिए जरूरी है कि हर एक बेघर का बाकायदा सर्वे हो कि कौन स्थाई तौर पर किसी स्थान पर बसने जा रहा है या फिर कुछ दिनों के लिए। रैन बसेरे भी मामूली शुल्क ले कर इंसानियत के मुताबिक न्यूनतम सुविधा के साथ ही हों ।

Google न्यूज़नवजीवन फेसबुक पेज और नवजीवन ट्विटर हैंडल पर जुड़ें

प्रिय पाठकों हमारे टेलीग्राम (Telegram) चैनल से जुड़िए और पल-पल की ताज़ा खबरें पाइए, यहां क्लिक करें @navjivanindia