बीजेपी के लिए गोरखपुर की हार के मायने

योगी आदित्यनाथ ने चुनावों के नतीजे आने के बाद स्वीकार किया कि एसपी-बीएसपी के गठजोड़ की कामयाबी की उन्होंने कल्पना नहीं की थी और वे अति आत्मविश्वास से भरे हुए थे।

फोटो: IANS
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तसलीम खान

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में बीजेपी का किला ढहने की कंपकपाहट चारों तरफ महसूस की जा रही है।

बीजेपी इस उपचुनाव में तीनों लोकसभा सीटें हार गई, लेकिन गोरखपुर की हार के अर्थ बहुत व्यापक हैं। 1989 के बाद से गोरखपुर में बीजेपी या उसकी विचारधारा का ही कब्जा रहा है।

1989 में गोरखनाथ मठ के महंत अवैद्यनाथ हिंदू महासभा के उम्मीदवार के तौर पर जीते थे। 1991 में उन्होंने बीजेपी को समर्थन देते हुए उसी के टिकट पर जीत हासिल की थी। उनकी इसी विरासत को योगी आदित्यनाथ 1998 से सफलतापूर्वक संभाले हुए थे। 1952 के बाद गोरखपुर में लोकसभा के लिए हुए 18 चुनावों में गोरखनाथ मठ का ही दबदबा रहा। दिग्विजयनाथ, अवैद्यनाथ और फिर आदित्यनाथ। इन तीनों ने मिलकर 10 बार यहां से चुनाव जीता। इतना जरूर है कि 1991 में जीत का अंतर बहुत मामूली था। लेकिन उसके बाद भारी वोटों से मठ की जीत होती रही।

इस बात पर बहस की जा सकती है कि क्या वोटर गोरखनाथ मठ और उसके मंहतों पर भरोसा जता रहे थे या फिर बीजेपी पर। उस दौर में भी जब बीजेपी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से भी पिछड़कर चौथे नंबर पर पहुंच गई थी, गोरखपुर सीट उसके हिस्से में आती रही। लेकिन इस बहस पर पिछले साल विराम लग गया जब योगी आदित्यनाथ का कद अचानक बढ़ा और उन्हें देश के सबसे बड़े राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया गया। इस तरह चुनावी राजनीति, धर्म और मठ के अपार संभावनाओं भरे योग का नया स्वरूप सामने आया।

बीजेपी में योगी आदित्यनाथ के उदय के कई कारण रहे हैं। भले ही उन्होंने विधानसभा चुनाव न लड़ा हो, लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की शानदार कामयाबी में उनकी हिस्सेदारी जरूर रही है। इसके बाद से योगी को एक मॉडल सीएम के तौर पर गुजरात, केरल, पूर्वोत्तर और कर्नाटक में भी प्रचार के लिए उतारा गया। यूपी का सीएम बनने के बाद से योगी वह सबकुछ करते रहे हैं जो नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने से पहले करते रहे थे।

लोग इन उपचुनावों में माया-अखिलेश की सोशल इंजीनियरिंग की दुहाई देते हैं, लेकिन बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में जो सोशल इंजीनियरिंग की है, उसे पूरी तरह अनदेखा किया जाता रहा है। बीजेपी ने अगड़ी जातियों, गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को मिलाकर एक गठजोड़ तैयार किया, जिसमें मुसलमानों को पूरी तरह दरकिनार कर दिया गया। इससे न सिर्फ चुनावी राजनीति में कामयाबी मिली, बल्कि हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य को पूरा करने का रास्ता भी बीजेपी को मिला।

लेकिन गोरखपुर के नतीजों ने कम से कम बीजेपी के उस मॉडल को तो खारिज कर ही दिया जिसमें अगड़ों, गैर यादव-गैर जाटव ओबीसी-दलित का रणनीतिक गठजोड़ चुनाव जीतने की गारंटी थी। गोरखपुर ने जबरदस्ती बनाए गए उस भ्रम को भी तोड़ दिया है जिसमें कहा जाता रहा है कि उत्तर प्रदेश के पिछड़े और दलित एक कट्टर हिंदुवादी छवि के उच्च जाति मुख्यमंत्री के राज में खुश हैं।

योगी आदित्यनाथ ने चुनावों के नतीजे आने के बाद स्वीकार किया कि एसपी-बीएसपी के गठजोड़ की कामयाबी की उन्होंने कल्पना नहीं की थी और वे अति आत्मविश्वास से भरे हुए थे, लेकिन जो बात उन्होंने साफ तौर पर नहीं मानी है, वह यह है कि इस चुनाव ने उनकी कैमिस्ट्री और मैथ दोनों को ही बेकार कर दिया है। 2019 का चुनाव ज्यादा दूर नहीं है और एसपी-बीएसपी यूपी में साथ मिलकर क्या कर सकते हैं, इसकी बानगी दिख चुकी है। अखिलेश यादव ने भले ही अभी सार्वजनिक तौर पर कुछ न कहा हो, लेकिन बुधवार रात जब वे खिले हुए चेहरे के साथ मायावती के घर पहुंचे थे और मायावती ने सीढ़ियों पर आकर उनका स्वागत किया था, तो उसके राजनीतिक अर्थ लोगों को समझ आ रहे थे।

एसपी-बीएसपी के बीच पहली बार गठबंधन 1993 में हुआ था। उस वक्त नारा दिया गया थ, ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गया जय श्री राम…।’ लेकिन यह गठबंधन दो साल भी मुश्किल से चल पाया था।

देश के सियासी इतिहास में कुछ चीजें खुद को दोहराती चलती रहती हैं। 90 के दशक में जब राम मंदिर आंदोलन सिर चढ़कर बोल रहा था, और लाल कृष्ण आडवाणी का रथ निर्बाध आगे बढ़ रहा था, तो उत्तर प्रदेश में उस समय मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव ने गोरखपुर से सटे देवरिया में इस रथ को रोकने की तैयारी कर रखी थी। लेकिन ये नौबत आने से पहले ही बिहार में लालू यादव ने इस रथ को समस्तीपुर में रोक कर सियासी गणित को नई दिशा दे दी थी। इस बार मुलायम के बेटे अखिलेश ने नए सियासी गणित के आधार पर बीजेपी के कथित अजेय रथ को गोरखपुर में ही रोका है, तो लालू यादव के बेटे ने बिहार के अररिया में। इन दोनों ही राज्यों से ही लोकसभा की करीब एक चौथाई सीटें आती हैं। पिछली बार इन दोनों राज्यों से बीजेपी को कुल मिलाकर 105 सीटें मिली थीं, जो उसकी कुल सीटों का करीब 40 फीसदी थीं।

लेकिन उपचुनाव के परिणाम से ऐसा लगता है कि बीजेपी को सत्ता के केंद्र में बने रहने के लिए उत्तर प्रदेश से इतर भी बहुत कुछ करने की जरूरत होगी। ऐसे में अब निगाहें इस पर हैं कि इन नतीजों पर बीजेपी की क्या प्रतिक्रिया होगी। क्या वह नए सिरे से मंदिर मुद्दे को उछालकर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण करने की कोशिश करेगी? या फिर 2019 को ध्यान में रखते हुए किसी नए सामाजिक प्रयोग या सोशल इंजीनियरिंग पर ध्यान देगी?

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Published: 15 Mar 2018, 3:58 PM