द ट्रुथ पिलः दवाओं के उत्पादन में तो देश अग्रसर, लेकिन 'मेड इन इंडिया' दवाएं कितनी सुरक्षित?

इस किताब को पढ़ना आसान तो नहीं है क्योंकि यह ऐसे देश के लिए बहुत ही परेशान कर देने वाली किताब है जिसे फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड माना जाता है और जहां फार्मास्युटिकल सेक्टर बहुत तेजी से बढ़ रहा है।

फोटोः नवजीवन
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अमिताभ बनर्जी

कुछ लोग मानते हैं कि सच्चाई कभी-कभार बेहतर दवा होती है। इस किताब 'द ट्रुथ पिल' को पढ़ना आसान तो नहीं है लेकिन यह लगभग इसी तरह की है। यह ऐसे देश के लिए बहुत ही परेशान कर देने वाली किताब है जिसे फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड माना जाता है और जहां फार्मास्युटिकल सेक्टर बहुत तेजी से बढ़ रहा है।

पिछले साल अक्तूबर में जब यह किताब लॉन्च की गई, तो इसने भारत को झकझोर दिया। लॉन्च से कुछ दिनों पहले गाम्बिया में किडनी के काम बंद कर देने से 69 बच्चों की मौत के बाद डब्ल्यूएचओ ने भारत में बने चार कफ सिरप को लेकर वैश्विक अलर्ट जारी किया था। लैब जांच में पाया गया कि इन कफ सिरप में अत्यधिक विषाक्त द्रव मिले हुए थेः डायथायल ग्लाइकोल (डीईजी) और एथलीन ग्लायकोल। एक महीने के अंदर उज्बेकिस्तान में हुई 19 बच्चों की मौत को भारत में उसी कंपनी द्वारा बनाए गए कफ सिरप से जोड़ा गया। फिर, मौत की वजह डीईजी सम्मिश्रण होने का संदेह जताया गया।

किताब की प्रस्तावना इस उपशीर्षक से पूर्वकथन के साथ शुरू हुईः 'एन एपिडेमिक ऑफ डीईजी प्वाइजनिंग एंड रेगुलेटरी फेल्योर'। इसमें हाल में और पहले हुई इस तरह की घटनाओं का विवरण दिया गया है। किताब के पहले लेखक दिनेश सिंह ठाकुर केमिकल इंजीनियर हैं जिन्होंने सबसे बड़ी भारतीय फार्मास्युटिकल कंपनी- रैनबेक्सी में हो रहे गलत कामों के खिलाफ 2004 में तब आवाज उठाई जब उन्होंने कंपनी में बड़े पैमाने पर आंकड़ों का हेरफेर होते देखा। रैनबेक्सी को 2013 में अमेरिकी कोर्ट में दोषी पाया गया और उसे 500 मिलियन डॉलर के दंड के भुगतान पर सहमत होना पड़ा।

पश्चिम ने 'मेड इन इंडिया' दवाओं की गुणवत्ता के आधार पर कई भारतीय फार्मास्युटिकल कंपनियों से आयात रोक दिया, फिर भी भारत सरकार ने सुधार के उपाय और नियामक सुधार करने की जगह सभी आरोपों को नकार दिया और इन्हें 'निहित स्वार्थों' द्वारा की गई काल्पनिक बातें बता दीं। अपने देश को लेकर अहंकार और राष्ट्रवाद ने सुधारों की जगह ले ली।


दूसरे लेखक प्रशांत रेड्डी थिक्कावरापू एक लॉ फर्म में थे। उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और भारत की अव्यवस्थित दवा नियामक व्यवस्था के बारे में जानकारी जुटाने के लिए ठाकुर के साथ काम किया। वह अपने मेन्टर भारतीय कानून शिक्षाविद शमनद बशीर से प्रेरित हैं जो मानते हैं कि भारत में भी कानून का उपयोग बेहतरी के लिए किया जा सकता है।

लेखकों के अनुसार, डीईजी विषाक्तता खास तौर से विकासशील देशों में बारंबार होने वाली घटना बनी हुई है। डीईजी विषाक्तता की वजह से अलग-अलग देशों में अलग-अलग समय पर काफी सारे लोगों की मौत के अलावा नाइजीरिया में 2018 में 84 और 2007 में 365 लोगों की मृत्यु हो गई। भारत में भी इस वजह से 1972 में मद्रास में 15 बच्चों, मुंबई के जेजे अस्पताल में 1986 में 14 रोगियों, 1988 में बिहार में 11 रोगियों, 1998 में गुड़गांव में 33 बच्चों और 2019 में जम्मू के रामनगर में 12 बच्चों की मृत्यु हो गई।

लेखकों के अनुसार, ये दुर्घटनाएं पूरी तरह रोकी जा सकती थीं। डीईजी विषाक्तता की पहचान 1937 में ही अमेरिका में कर ली गई थी जिसके बाद वहां कड़े प्रतिबंध लागू कर दिए गए थे। लेकिन भारतीय फार्मास्युटिकल कंपनियां भारतीय कानून में निहित गुड मैन्युफैक्चरिंग प्रैक्टिसेस (जीएमपी) का उल्लंघन करते हुए बाजार में भेजने से पहले अपनी सामग्रियां या अपने उत्पाद की जांच करने में कमोबेश विफल ही रहती हैं जबकि जीएमपी में इसे अनिवार्य बनाया गया है कि उत्पादन में उपयोग किए जाने से पहले कच्चे माल और जनवितरण से पहले अंतिम दवा सैंपल की जांच कर ही ली जाएगी।

कफ सिरप के लिए कच्चे माल की बिक्री करने वाले व्यापारी कई बार अनजाने में डीईजी को प्रोपलीन ग्लाइकोल या कई बार दाम कम करने के खयाल से डीईजी को मिलावट के तौर पर गलत तरीके से लेबल लगा देते हैं। महत्वपूर्ण बिंदुओं पर उत्पादन करने वालों की जांच से इस किस्म की दुर्घटनाएं रोकी जा सकती हैं। लेखकों ने बताया है कि कैसे कई छोटी फार्मा कंपनियों के पास जांच की पर्याप्त सुविधा नहीं है।


किताब के पहले दो अध्यायों में वैश्विक तौर पर और भारत में दवा नियामक का इतिहास बताया गया है। अध्याय 3 से 6 में मानक के अनुरूप गुणवत्ता नहीं वाले (नॉट ऑफ स्टैंडर्ड-क्वालिटी- एनएसक्यू) उत्पाद, नई दवाओं के नियामकों में कमी और जेनरिक दवाओं से संबंधित मुद्दों के इर्दगिर्द नियामक कमियों और विफलताओं के बारे में बताया गया है। अध्याय 7 और 8 में पारंपरिक दवाओं के संवेदनशील मुद्दों को उठाया गया है। बाद के अध्यायों में भारतीय फार्मेसियों, उनके सप्लाई चेन, विज्ञापनों और प्रमोशनों की अराजकता और अंत में, राजनीति, भ्रष्टाचार, पुरातन नियामकों और व्यावसायिक हितों के वातावरण में भारत के दवा नियामक ढांचे में सुधार की चुनौतियों के बारे में बताया गया है।

(लेखक डॉ. अमिताभ बनर्जी महामारीविद हैं। उन्होंने भारतीय सशस्त्र सेना में दो दशकों तक सेवाएं दी हैं। फिलवक्त वह डीवाई पाटिल मेडिकल कॉलेज, पुणे में प्रोफेसर हैं)

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