देश में ऑक्सीजन की कमी नहीं, सरकार ने की घोर लापरवाही, आपूर्ति बढ़ाने का फैसला समय से नहीं लिया

ऑक्सीजन संकट अचानक नहीं आया। प्रमुख उत्पादक लिंडे इंडिया के प्रवक्ता ने पिछले साल ही कहा था कि छोटे शहरों और गांवों तक ऑक्सीजन पहुंचाना चुनौती होगी। इसके लिए सुविधाएं नहीं हैं। न तो पर्याप्त सिलेंडर हैं, न पाइप वाले ऑक्सीजन और न लिक्विड ऑक्सीजन निर्माता।

फोटोः सोशल मीडिया
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ए जे प्रबल

सच तो यह है कि देश में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं है। फिर भी लोग मर रहे हैं, क्योंकि अस्पतालों के पास ऑक्सीजन नहीं है। जिन अस्पतालों में ऑक्सीजन है भी, उनमें से अधिकांश में आपको पता नहीं है कि आप ऑक्सीजन ही पा रहे हैं। बड़ी दिक्कत यह भी है कि कई अस्पतालों में ऐसे अप्रशिक्षित कर्मचारियों से भी मरीजों को ऑक्सीजन देने का काम लिया जा रहा है, जिन्हें इस काम के बारे में क,ख,ग भी नहीं मालूम। लेकिन क्या करेंगे? लगभग सारे काम इसी तरह चल रहे हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि कोविड के 15 प्रतिशत मरीज ऐसे हैं जिन्हें सांस लेने में दिक्कत होने पर मदद की जरूरत होती है। मतलब, देश में कोविड से संक्रमित 1.5 करोड़ लोगों में से 22 लाख लोगों को ऑक्सीजन की मदद की जरूरत होगी। इनमें से अधिकांश लोगों को यह नहीं मिल रही। कितने लोगों को सिर्फ इस वजह से जान गंवानी पड़ी, नहीं कहा जा सकता। वैसे भी, कोविड से मरने वाले लोगों की वास्तविक संख्या शायद कभी पता भी नहीं चलेगी, क्योंकि श्मशान और कब्रिस्तान में जितने शव आ रहे हैं, उससे कोविड से मरने वाली सरकारी संख्या मेल नहीं खाती। खैर!

जांच के दौरान कुछ लोगों में श्वसन-संबंधी पीड़ा का कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन उनका ऑक्सीजन लेवल खतरनाक ढंग से नीचे हो सकता है। इसे साइलेंट हाइपोक्सिया कहते हैं। डब्ल्यूएचओ का कहना है कि ‘गंभीर रूप से बीमार लोगों में से कुछ ही लोगों को वेन्टिलेटर की जरूरत होती है।’ फिर भी, पिछले साल सरकार का पूरा फोकस अस्पतालों को वेन्टिलेटरों की आपूर्ति पर रहा। पीएम केयर्स फंड का अच्छा-खासा हिस्सा वेन्टिलेटर निर्माताओं को देने और वेन्टिलेटरों के आयात पर उपयोग किया गया।

वहीं, देश में हवा से ऑक्सीजन खींचने और उनका शोधन करने वाले 500 कारखाने हैं। इस महामारी से पहले मेडिकल उपयोग के लिए ऑक्सीजन की कुल आपूर्ति 15 प्रतिशत थी। बचे हुए- औद्योगिक ऑक्सीजन- की आपूर्ति स्टील और ऑटोमोबाइल उद्योग को होती थी। कारखाने अस्पतालों को क्रायोजेनिक टैंकरों में तरल रूप में ऑक्सीजन पहुंचाते हैं जो बाद में गैस में बदले जाते हैं और पाइप के जरिये अस्पताल बेड तक पहुंचते हैं। कुछ अस्पताल स्टील और एल्युमिनियम सिलेंडरों का भी उपयोग करते हैं। ऑक्सीजन इनमें गैस के तौर पर रहती है। लेकिन वैसी हालत में गैस खत्म हो जाने पर बेड पर सिलेंडरों को बदलना पड़ता है। उद्योग अनुमानों के अनुसार, देश में पिछले साल तक 1,500 क्रायोजेनिक टैंकर थे। ऐसा कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है जिससे पता चले कि इस तरह के टैंकरों के निर्माण को तेजी से बढ़ाने का कोई प्रयास पिछले साल किया गया।


यह महामारी जब शुरू हुई, तब से ही पता था कि कोविड पीड़ितों के इलाज के लिए मेडिकल ऑक्सीजन महत्वपूर्ण होगी। लेकिन जब पिछले साल भारी-भरकम बिलों की वजह से लोगों ने निजी अस्पतालों की तरफ जाना कम कर दिया और वहां रोगियों की संख्या कम होने लगी, तो सरकारी अस्पतालों में ऑक्सीजन की आपूर्ति नहीं बढ़ाई गई। ऐसा नहीं है कि पिछले साल इसकी मांग नहीं बढ़ी थी। मेडिकल ऑक्सीजन की मांग पिछले साल अप्रैल में 750 टन रोजाना थी, जो जुलाई में बढ़कर 2,700 टन हो गई थी। एक अनुमानित आंकड़े के अनुसार, देश में रोजाना 7,000 मीट्रिक टन ऑक्सीजन उत्पादन की क्षमता है।

जब महामारी शुरू हुई तो न तो औद्योगिक गैस उत्पादकों और न सरकार को कोई अंदाजा था कि सिलेंडरों के मार्फत कितने ऑक्सीजन की आपूर्ति हो रही है और टैंकों के जरिये कितनी। जब जांच-पड़ताल हुई, तब पता चला कि जम्मू-कश्मीर में कोई लिक्विड ऑक्सीजन कारखाना नहीं है और अंडमान में कोई मेडिकल ऑक्सीजन निर्माता नहीं है। दिल्ली के खयाल से सुदूर पूर्वोत्तर राज्यों में इसकी आपूर्ति छिटपुट ही है। दिल्ली समेत अधिकांश राज्यों में कोई उत्पादक नहीं है और इसकी आपूर्ति पड़ोसी राज्यों से होती है। फिर भी, सरकार ने अक्टूबर, 2020 में जिला अस्पतालों में 162 ऑक्सीजन प्लांट लगाने के लिए निविदाएं आमंत्रित की। इसके लिए 200 करोड़ निवेश की जरूरत थी। सरकार का कहना है कि इस साल अप्रैल में इनमें से सिर्फ 32 प्लांट लगाए गए।

तब भी जरा-सी सक्रियता से हालात अब जैसे होने से आसानी से रोका जा सकता था। करना यह था कि औद्योगिक ऑक्सीजन के मेडिकल उपयोग की अनुमति दिए जाने की जरूरत थी। दोनों में थोड़ा ही अंतर है। मेडिकल ऑक्सीजन अधिक शुद्ध होती है और इनकी कड़ी देखरेख में आपूर्ति की जाती है और उसे रोगी तक पहुंचाने में भी सतर्कता बरतनी होती है। दूसरी लहर आने पर ऑक्सीजन की घोर कमी से लोगों की इतनी भारी संख्या में मौत से बचने का तरीका यह था कि इस बारे में फैसला लिया जाता। वैसे, यह संकट अचानक नहीं आया है। एक प्रमुख उत्पादक लिंडे इंडिया के प्रवक्ता ने पिछले साल की गर्मियों में ही कहा था कि ‘छोटे शहरों और गांवों तक ऑक्सीजन पहुंचाना चुनौती होगी। इसके लिए सुविधाएं हैं ही नहीं। न तो पर्याप्त सिलेंडर हैं, न पाइप वाले ऑक्सीजन और न लिक्विड ऑक्सीजन निर्माता।’

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