चुनाव आयोग के फैसले पर आक्रामक रुख में उद्धव की शिवसेना, कहा- यह फिक्स मैच है

उद्धव गुट के सांसद अरविंद सावंत ने कहा कि यह फैसला देश के संविधान पर हमला है। जिन संस्थाओं को लोगों के अधिकार की रक्षा करने के लिए बनाया गया है और जिन्हें संविधान का पालन करना है, वही संस्थाएं सरकार के इशारे पर काम कर रही हैं।

फोटोः सोशल मीडिया
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सुजाता आनंदन

चुनाव आयोग ने बीएमसी (बृहन्मुंबई नगर निगम) के महत्वपूर्ण चुनाव से ऐन पहले उद्धव ठाकरे की शिवसेना को झटका दिया है। चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे गुट को बाल ठाकरे की पार्टी का चुनाव चिह्न धनुष और तीर आवंटित करते हुए उसे असली शिवसेना के रूप में मान्यता दे दी।

हालांकि अभी यह पूरी तरह स्पष्ट नहीं है कि इस फैसले पर ठाकरे गुट की कैसी प्रतिक्रिया होगी, लेकिन फैसला आने के बाद उद्धव गुट में अंदरखाने बैठकों का दौर शुरु हो गया है। उद्धव ठाकरे ने प्रेस कांफ्रेंस कर ऐलान किया है कि वह इस फैसले को न सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगे बल्कि इसे जनता की अदालत में भी लेकर जाएंगे। वैसे सुप्रीम कोर्ट ने अभी तक उद्धव गुट की उस याचिका पर फैसला नहीं सुनाया है जिसमें शिंदे गुट के एकनाथ शिंदे समेत 12 विधायकों की सदस्यता रद्द करने की मांग की गई है।

वैसे इस फैसले पर उद्धव गुट आक्रामक रुख अपनाने वाला है इसका संकेत पार्टी सांसद अरविंद सावंत ने नेशनल हेरल्ड से बातचीत में दिया। अरविंद सावंत ने शिवसेना में दो फाड़ होने के बाद मोदी सरकार से 2019 में इस्तीफा दे दिया था। सावंत ने कहा, “यह फैसला देश के संविधान पर हमला है। जिन संस्थाओं को लोगों के अधिकार की रक्षा करने के लिए बनाया गया है और जिन्हें संविधान का पालन करना है, वही संस्थाएं सरकार के इशारे पर काम कर रही हैं।”

उन्होंने आगे कहा कि, “दुर्भाग्यपूर्ण है कि ये संस्थाएं केंद्र सरकार की गुलाम बन चुकी हैं। अगर चुनाव आयोग को यही फैसला सुनाना था तो फिर उसने हमसे पार्टी पदाधिकारियों और पार्टी सदस्यों के शपथपत्र क्यों मांगे थे?” उन्होंने बताया कि, “हमने 20 लाख फॉर्म जमा कराए थे। आयोग को अगर विधायकों और सांसदों की संख्या के ही आधार पर फैसला लेना था तो फिर ऐसा करने के लिए हमसे क्यों कहा?”


सांवत ने सवाल उठाया कि अगर मैच पहले से फिक्स था तो फिर चुनाव आयोग ने यह फैसला लेने में देरी क्यों लगाई, इससे साबित होता है कि यह एक सुनियोजित और साजिश वाला फैसला है। हम इस मामले में न्याय के लिए सुप्रीम कोर्ट जाएंगे।"

उधर उद्धव गुट से राज्यसभा सांसद और पार्टी प्रवक्ता संजय राउत ने कहा है कि, “यह अब अन्याय के खिलाफ खुली जंग है। आज भारतीय राजनीति का एक दुखद दिन है। लोगों को चुनाव आयोग में भरोसा था लेकिन आज वह विश्वास खत्म हो गया। हम जुझारू लोग हैं, हम नए चिह्न के साथ जनता के बीच जाएंगे और महाराष्ट्र के लोग उन्हें बता देंगे कि असली सैनिक कौन हैं।”

चुनाव आयोग के इस फैसले से एक नई परंपरा की शुरुआत हुई है जबकि दो गुटों के बीच असली चुनाव चिह्न को फ्रीज कर दिया गया था और दोनों ही गुटों को नया चुनाव चिह्न आवंटित किया गया था। याद दिला दें कि 1960 और 1970 के दशक में भी कांग्रेस और कम्यूनिस्ट पार्टी में हुए दो फाड़ आयोग ने गुटों को नए चिह्न ही आवंटित किए थे।

उल्लेखनीय है कि शिवसेना में दोफाड़ जुलाई 2022 में उस समय हुआ था जब एकनाथ शिंद ने कांग्रेस-एनसीपी और शिवसेना के गठबंधन वाली उद्धव ठाकरे की महा विकास अघाड़ी सरकार में बगावत कर दी थी। वे 40 विधायकों को लेकर अलग हो गए थे। इसके बाद से ही दोनों गुट मूल शिवसेना के नाम और चुनाव चिह्न के लिए जद्दोजहद कर रहे थे। पिछले साल अक्टूबर में आयोग ने उपचुनाव के दौरान दोनों गुटों को अलग-अलग चुनाव चिह्न नाम आवंटित किए थे। इस चुनाव में उद्धव ठाकरे गुट की जीत हुई थी। उस चुनाव में शिंदे गुट पीछे हट गया था और उसे बीजेपी के लिए रास्ता छोड़ा था। बाद में उद्धव ठाकरे के प्रति लोगों की सहानुभूति देखते हुए बीजेपी ने भी पांव खींच लिए थे।

जुलाई में बगावत करने के बाद एकनाथ शिंदे ने बीजेपी के साथ महाराष्ट्र में सरकार बना ली थी। इस दौरान शिंदे सरकार मुंबई में नगर निगम चुनाव को लगातार टालती रही है। गौरतलब है कि उद्धव ठाकरे के पुत्र और महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री आदित्य ठाकरे ने शिंदे को खुली चुनौती दी है कि वे आमने-सामने की चुनावी लड़ाई में उतरें।


चुनाव आयोग के इस फैसले के बाद फिलहाल उद्धव ठाकरे गुट के लिए नई चुनौती सामने है क्योंकि पार्टी का पुराना चुनाव चिह्न किसी भी चुनाव में काफी अहम भूमिका निभाता है।

सूत्रों का कहना है कि ठाकरे गुट को चुनाव आयोग से ऐसे ही किसी फैसले की पहले से आशंका थी और वह इससे निपटने की तैयारी भी कर रहा था। चुनाव विश्लेषकों का कहना है कि फिलहाल पीड़ित पक्ष के तौर पर उद्धव को सहानुभूति का फायदा मिलने की संभावना है।

लेकिन सबसे भ्रामक बात यह है कि चुनाव आयोग ने शिवसेना के संविधान का हवाला दिया है, इससे यह संकेत मिलता है कि चुनाव आयोग उद्धव ठाकरे को मूल शिवसेना का प्रमुख मानता है। शिवसेना का संविधान इमरजेंसी के दौरान लिखा गया था ताकि पार्टी की मान्यता रद्द होने से रोका जाए। उस दौरान शिवसेना खुद को एक समाज सेवा वाली संस्था के तौर पर पेश करती थी। लेकिन बाद मे जब उसने चुनावी राजनीति में उतरने का फैसला किया तभी पार्टी का संविधान लिखा गया था।

बता दें कि शिवसेना प्रमुख का चुनाव पार्टी की शाखाओं और विभाग प्रमुखों द्वारा किया जाता है। और शिवसेना संस्थापक बाला साहेब के दौर में बनी राजनीतिक पार्टी में शिवसेना प्रमुख को सारे अधिकार थे और उनके पास असीमित शक्तियां थीं। यहां यह बताना भी जरूरी है कि पार्टी में बगावत कर सरकार बनाने वाले एकनाथ शिंदे तमाम कोशिशों के बावजूद खुद को पार्टी की कार्यकारिणी में निर्वाचित नहीं करवा पाए हैं। वे उन पांच नामित सदस्यों में हैं जिन्हें खुद उद्धव ठाकरे ने नामित किया था।

चुनाव आयोग के फैसले से अब महाराष्ट्र की चुनावी राजनीति की दिशा बदलने के आसार हैं। चूंकि बीएमसी चुनाव प्रतिष्ठा की लड़ाई माना जाता है इसलिए संभावना है कि शिंदे गुट इस चुनाव को जीतने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगा और आयोग  मिले मूल शिवसेना के नाम और चुनाव चिह्न को भुनाने की कोशिश करेगा। लेकिन इन चुनावों के नतीजे दोनों गुटों की लोकप्रियता और मतदाताओं द्वारा मान्यता का रुख भी साफ कर देंगे।


याद दिला दें कि जब इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी के पुराने नेताओं ने पार्टी से निकाला था तो उन्हें भी ऐसी ही परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था जैसा कि आज उद्धव ठाकरे के सामने हैं। उन्हें उस समय अपने गुट के लिए गाय-बछड़े का चुनाव चिह्न चुनना पड़ा था जबकि कांग्रेस का मूल निशान बैल के साथ खेत जोतता किसान था। इंदिरा गांधी ने इसके बाद हुए चुनावों में भारी जीत हासिल की थी और मूल चुनाव चिह्न हमेशा के लिए फ्रीज कर दिया गया था। इसी तरह जब दोबारा कांग्रेस में फूट पड़ी तो गाय बछड़े का निशान भी फ्रीज कर दिया गया था।

इसके अलावा कम्यूनिस्ट पार्टी मे भी ऐसा ही हुआ था जिसमें कम्यूनिस्ट पार्टी का मूल निशान हंसिया-हथौड़ा भी पार्टी में दो फाड़ के बाद फ्रीज कर दिया गया था और दोनों गुटों को इसके अन्य रूप वाले चिह्न आवंटित हुए थे जो आज भी दोनों धड़े इस्तेमाल करते हैं।

लेकिन आयोग के फैसले को उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना के लिए आखिरी शब्द मान लेना फिलहाल थोड़ी जल्दबाजी होगी।

(संतोषी गुलाबकली मिश्रा के इनपुट के साथ)

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