CAA Protest में हिंसा रोकने की कोशिश करने वालों तक को यूपी पुलिस ने जमकर धुना

उत्तर प्रदेश की पुलिस इस कारण भी संदेह के घेरे में हैं कि उन्होंने वैसे लोगों को भी जमकर पीटा जो प्रदर्शनकारियों को हिंसक होने से रोक रहे थे, उन्हें समझाने-बुझाने की कोशिश कर रहे थे। सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या सुरक्षाबल चाह रहे थे कि हिंसा हो?

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के बीच खौफ पसरा हुआ है। जिन परिवारों ने पुलिसिया कार्रवाई में अपनों को खो दिया है, उन्हें छोड़कर शायद ही कोई जुबान खोल रहा हो। विरोध-प्रदर्शन हो या पुलिस की कार्रवाई, लोग इनसे जुड़े सवालों के जवाब देने से कतरा रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और नेताओं तक से मिलने-बात करने से बच रहे हैं। कोई फोन पर भी बात करने को तैयार नहीं। लोग तब तक कुछ कहने से कन्नी काट रहे हैं जब तक कि पुलिस ही किसी को उठाकर न ले जाए और पूछताछ न करे।

यह है योगी आदित्यनाथ के राज में आम लोगों में भय का आलम। क्या इसे ही सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास कहते हैं? इसके साथ ही सुरक्षाबल इस कारण भी संदेह के घेरे में हैं कि उन्होंने वैसे लोगों को भी जमकर पीटा जो प्रदर्शनकारियों को हिंसक होने से रोक रहे थे, उन्हें समझाने-बुझाने की कोशिश कर रहे थे। सबसे बड़ा सवाल ये है कि क्या सुरक्षाबल चाह रहे थे कि हिंसा हो?

लखनऊ, मेरठ, मुजफ्फरनगर, संभल, फीरोजाबाद, कानपुर, बहराइच, वाराणसी, मऊ और आजमगढ़ जैसे तमाम इलाकों में ऐसे कई चश्मदीद सामने आए हैं, जिनका कहना है कि पुलिस और रैपिड एक्शन फोर्स ने वैसे लोगों को निशाना बनाया जो प्रदर्शनकारियों को पत्थर फेंकने से रोकने की कोशिश कर रहे थे, लोगों को हिंसा नहीं करने के लिए समझा-बुझा रहे थे। पूर्व शिक्षक और महिला कार्यकर्ता सदाफ जाफर को लखनऊ में पुलिस ने इसलिए पीटा कि वह हिंसा का मोबाइल फोन पर वीडियो बना रही थीं और उन्होंने पुलिस से सवाल किया था कि आखिर वह हिंसा करने वालों को रोक क्यों नहीं रही।

पुलिस ने पहले तो उनकी बातों को नजरअंदाज किया, लेकिन जब उन्हें अंदाजा हुआ कि वह सोशल मीडिया पर लाइव थीं और वहां की घटना को अपलोड करती जा रही थीं तो पुलिस ने उन पर लाठियों और राइफल के बट से हमला बोल दिया। संभल में एक प्रदर्शनकारी ने बताया कि “19 दिसंबर को कुछ लोग बसों और कारों को फूंक रहे थे और जब हमने उन्हें ऐसा नहीं करने को कहा तो उन्होंने हमें गालियां दीं। उनके हाथ में पिस्तौलें थीं और बीच-बीच में फायर भी कर रहे थे।”


रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जो भी कहें, लोगों के मन में बैठ गया है कि केंद्र सरकार किसी न किसी तरह एनआरसी लेकर आएगी ही और हाल ही में एनपीआर को हरी झंडी दिखाकर सरकार ने अपनी मंशा साफ भी कर दी है। लोगों के कानों में अभी गृहमंत्री अमित शाह के शब्द गूंज ही रहे हैं जो उन्होंने झारखंड में पार्टी का प्रचार करते हुए पूरे जोर देकर कहा था- “2024 तक बीजेपी पूरे देश में एनआरसी लागू करके एक-एक घुसपैठिये की पहचान कर उन्हें देश से बाहर कर चुकी होगी।”

इसी वजह से उत्तर प्रदेश के लोगों, खास तौर पर मुस्लिमों में असुरक्षा की भावना घर कर गई और वे विरोध जताने सड़कों पर निकले, लेकिन सुरक्षाबल ने लोगों की आवाज दबाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी। पुलिस का कहना है कि पूरे राज्य में धारा 144 लगी हुई है जिसमें शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने की भी इजाजत नहीं। इसी क्रम में लखनऊ में भारी हिंसा हुई। वैसे, पूरे प्रदेश में 144 लगाने का फैसला अपने आप में विवादास्पद है, क्योंकि144 को किसी वैसे इलाके में लगाया जाता है, जहां अशांति की आशंका हो और भला पूरे प्रदेश में एक जैसी स्थिति कैसे हो सकती है।

पुलिस ने यह भी दावा किया है कि उसे इस बात की पुख्ता जानकारी है कि 19 दिसंबर को लखनऊ में हुई हिंसा के पीछे कश्मीरियों का हाथ है। पुलिस तो जो कर रही है, कर ही रही है, सीआरपीएफ की रैपिड ऐक्शन फोर्स प्रदर्शनकारियों के साथ वैसा ही सलूक कर रही है, जैसा वह कश्मीर में पत्थरबाजों के साथ करती है। अगर आने वाले समय में यूपी में कश्मीरियों का जीना मुहाल हो जाए तो हैरत नहीं।

सूबे के तमाम जिलों में पत्थरबाजी और पुलिस अत्याचार की बातें सामने आ रही हैं। लेकिन स्मार्ट फोन के इस दौर का एक फायदा यह भी हुआ कि तमाम पुलिसिया सावधानियों के बाद भी ऐसे कई वीडियो सामने आ रहे हैं जिनसे यूपी में पुलिस और रैपिड ऐक्शन फोर्स की बर्बरता की कहानी सामने आ रही है। बड़ी संख्या में लोगों को पुलिस उठाकर ले गई है, जिनका अता-पता नहीं। कई लोगों को बुरी तरह डरा-धमकाकर छोड़ा जा रहा है कि अगर उन्होंने दोबारा प्रदर्शन में भाग लिया तो उनके और उनके परिवार के लिए बहुत बुरा होगा।


मुजफ्फरनगर शहर के आसपास की हालत बुरी है। पुलिस ने मुस्लमानों की तमाम दुकानों को इस आरोप में सील कर दिया है कि उन्हें चलाने वाले हिंसा भड़का रहे थे। इसके साथ ही जबसे योगी ने ऐलान किया कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वालों से इसकी भरपाई की जाएगी, बिना सोचे-समझे तमाम लोगों पर जुर्माना लगाया जा रहा है। यह विडंबना ही है कि 1992 में जिन उपद्रवियों ने बाबरी को गिरा दिया या उसके बाद फैले सांप्रदायिक दंगों में सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया, वे तो खुले घूम रहे हैं, लेकिन राज्य में ताजा विरोध-प्रदर्शन के दौरान हुए नुकसान की बिना तफ्तीश भरपाई करने की कोशिश की जा रही है।

कानून के जानकार बताते हैं कि सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई किसी व्यक्ति से तभी की जा सकती है, जब मामले का ट्रायल हो और उसमें उस व्यक्ति की संलिप्तता साबित हो जाए। यह भी गौर करने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान की स्थिति में भरपाई किए जाने की जो व्यवस्था थी, वह राजनीतिक दल अथवा किसी जनप्रतिनिधि के संदर्भ में थी और यह सिविल सोसाइटी के प्रदर्शन पर लागू नहीं होती।

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