राज्य 360°: उत्तराखंड की वर्षगांठ का खोखला जश्न और भुतहा बनते गांव

उत्तराखंड 25 साल का हुआ, पर हजारों लोग पहाड़ों से पलायन कर रहे और हल्द्वानी सांप्रदायिक तनाव से सुलग रहा।

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रश्मि सहगल

उत्तराखंड ने 9 नवंबर को अपने गठन की 25वीं वर्षगांठ मनाई। पुष्कर सिंह धामी सरकार ने इस दौरान अपनी उपलब्धियों का ’प्रदर्शन’ करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इस भव्य समारोह में तीन दिवसीय हास्य महोत्सव भी शामिल था, जिसने महंगे टिकटों के बावजूद लोगों को आकर्षित किया। वैसे, इन जश्नों से परे एक चिंताजनक और कठोर सच्चाई छिपी है- एक के बाद एक गांवों को उनके निवासी ही अब भी वीरान करते जा रहे हैं जिससे इस क्षेत्र के बड़े हिस्से भूतिया गांवों में तब्दील हो रहे हैं। उत्तराखंड ग्रामीण विकास एवं पलायन आयोग के अनुसार, राज्य के 16,793 गांवों में से 1,700 से ज्यादा अब निर्जन हैं।

इस सूची में सबसे नया नाम अल्मोड़ा जिले के बागेश्वर कस्बे के पास चौनी गांव का है। कभी दर्जनों परिवारों वाले जीवंत और चहल-पहल भरे इस गांव  के पत्थर के घरों पर अब ताले लगे हैं क्योंकि इसके आखिरी निवासी बेहतर जिंदगी की तलाश में नवंबर के आरंभ में मैदानी इलाकों में चले गए हैं। सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य और च ौनी के पहले ग्रैजुएट बंशीधर जोशी कहते हैं कि पलायन तो होना ही था। वह बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने में सरकार की नाकामी की ओर इशारा करते हुए कहते हैं कि ’अपने गांव को इस तरह वीरान होते देखना बहुत दुखद है, लेकिन हमारे पास कोई विकल्प नहीं है। सरकारें तो सड़कें, डॉक्टर और स्कूल देने का वादा करती रहती हैं लेकिन होता कुछ भी नहीं।’

गवर्नमेंट पीजी कॉलेज, कांडा के सहायक प्रोफेसर नागेंद्र पाल ने हाल ही में एक अध्ययन किया जो लिसेयुम इंडिया जर्नल ऑफ सोशल साइंसेज में प्रकाशित हुआ है। इसमें इस प्रवृत्ति के जारी रहने की चेतावनी दी गई है। परंपरागत रूप से इस क्षेत्र की रीढ़ रही खेती खंडित जोत, अनियमित मौसम और सीमित सरकारी सहायता के कारण कमजोर हो रही है। सरकार यह समझने में विफल है कि जलवायु परिवर्तन कृषि उपज को कम कर रहा है और यदि उसने हस्तक्षेप नहीं किया, तो कई और गांव वीरान हो जाएंगे।

यही नहीं, उत्तराखंड के पर्वतीय ज़िलों में बुनियादी सुविधाओं, खासकर स्वास्थ्य सेवाओं का अब भी अभाव है। यहां नौकरियां कम हैं, जिससे युवा मैदानी इलाकों की ओर रुख कर रहे हैं। पर्यावरण कार्यकर्ता और गांव बचाओ आंदोलन के संयोजक अनिल जोशी साफ तौर पर कहते हैं कि ’उत्तराखंड की स्थापना शहरों के विकास के लिए नहीं, बल्कि पहाड़ों में बसे 16,000 से ज्यादा गांवों के विकास के लिए हुई थी। लेकिन उनके लिए कुछ नहीं किया जा रहा है।’


गोदियाल के साथ जुआ

कांग्रेस आंतरिक रूप से नए सिरे से संगठित हो रही है। उसने गणेश गोदियाल को उत्तराखंड में पार्टी अध्यक्ष और हरक सिंह रावत तथा प्रीतम सिंह को क्रमशः प्रचार समिति एवं चुनाव समिति का प्रमुख नियुक्त किया है। इस तिकड़ी की नियुक्ति वरिष्ठ कांग्रेस नेता हरीश रावत की महत्वाकांक्षाओं पर बड़ा झटका है। हरीश रावत ने 2000 में पहली बार अध्यक्ष बनने के बाद से राज्य इकाई पर अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखी है और वह पार्टी अध्यक्ष पद पर फिर से कब्जा करने की उम्मीद कर रहे थे।

गोदियाल कभी हरीश रावत के खास रहे हैं। वह कांग्रेस पर उनकी 25 साल पुरानी ’प्रधानता’ को तोड़ने के लिए कृतसंकल्प हैं। गोदियाल जानते हैं कि उन्हें हरीश रावत को मात देनी होगी। वैसे, यह भी माना जाता है कि हरीश रावत ने इसकी पूरी व्यवस्था कर रखी है कि कोई भी उत्तराधिकारी स्वतंत्र रूप से काम न कर सके। लेकिन हरीश रावत भूल जाते हैं कि उन्होंने बार-बार चुनावी हार का ही नेतृत्व किया है। 2014, 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस एक भी सीट नहीं जीत पाई। जब भी आलाकमान किसी नेता को आगे बढ़ाता है, तो कथित तौर पर रावत की पर्दे के पीछे की चालें उसे कमजोर कर देती हैं। उन्होंने अपने परिवार को भी नहीं बख्शा है। जब उनके अपने बहनोई किरण महारा को कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त किया गया था, तो उनके रिश्ते ठंडे पड़ गए थे।

बीजेपी में कुछ समय बिताने के बाद हरक सिंह रावत की कांग्रेस में वापसी ने मामले में एक और पेचीदगी पैदा कर दी है। हरीश रावत ने 2016 में कांग्रेस सरकार गिराने के लिए पार्टी के नौ विधायकों को भाजपा से मिलाने की साजिश रचने के लिए हरक सिंह को माफ नहीं किया है। वैसे, हरक सिंह ने माफी मांग ली है, लेकिन तनाव बरकरार है। भ्रष्टाचार के मामलों में अब सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय की जांच का सामना कर रहे हरक सिंह भाजपा के सबसे मुखर आलोचकों में से एक बनकर उभरे हैं।

इसी पृष्ठभूमि में गोदियाल 2027 के विधानसभा चुनाव से 13 महीने पहले कार्यभार संभाल रहे हैं। देखना होगा कि नेतृत्व का यह दांव कितना कारगर होता है।


हल्द्वानी में उपद्रव

राज्य में सांप्रदायिक तनाव फिर से बढ़ गया है। हल्द्वानी के बनभूलपुरा इलाके में एक मंदिर के सामने स्कूल के पास बछड़े का सिर मिलने की अफवाह के बाद फिर से अशांति फैल गई। इसके तुरंत बाद हिन्दुत्व ब्रिगेड हरकत में आ गई और उसने 16 नवंबर को बड़ी संख्या में मुसलमानों की दुकानों और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों में तोड़फोड़ की। स्थानीय निवासियों की शिकायत के बाद नैनीताल जिले के एसएसपी ने जांच के आदेश दिए। हालांकि, सीसीटीवी फुटेज से पता चला कि ’अपराधी’ एक कुत्ता था जिसने जंगल से एक जानवर के अवशेष घसीटे थे। इस जानवर के अवशेषों को अब फोरेंसिक जांच के लिए भेज दिया गया है। तोड़फोड़ करने वाली भीड़ को नियंत्रित करने के लिए बड़ी संख्या में पुलिस बल तैनात किया गया। शांति और सांप्रदायिक सद्भाव को नष्ट करने की कोशिश करने वाले अज्ञात उपद्रवियों के खिलाफ 50 से अधिक एफआईआर दर्ज की गईं।

बनबूलपुरा इलाका फरवरी 2024 से ही उबल रहा है, जब अधिकारियों ने एक मदरसा और एक मस्जिद वाली इमारत को ध्वस्त कर दिया था। सोशल मीडिया पर फैलाई गई गलत सूचनाओं ने तनाव को और बढ़ा दिया है, जिनमें हल्द्वानी में मुस्लिम जनसंख्या वृद्धि के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर किए गए दावे भी शामिल हैं। जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 2001 से 2011 तक मुस्लिम जनसंख्या में मामूली वृद्धि- 1 प्रतिशत से बढ़कर 2.5 प्रतिशत हो गई, और वह भी उस तरह नहीं जैसा ऑनलाइन दावा किया जा रहा है।

राजनीतिक हस्तक्षेप ने इस आग में और घी ही डाला है। इस साल की शुरुआत में जिला पंचायत सदस्यों को अध्यक्ष पद के चुनाव में भाग लेने से रोकने के लिए उनका अपहरण कर लिया गया था जिसके बाद नैनीताल उच्च न्यायालय ने पुलिस की चूक की कड़ी आलोचना की थी। एक नाबालिग के कथित यौन उत्पीड़न से जुड़ी एक और घटना ने भीड़ की हिंसा को भड़का दिया जिसके लिए पुलिस की लचर कार्रवाई के लिए एक बार फिर न्यायिक आलोचना हुई।

कई पर्यवेक्षकों की नजर में, बार-बार होने वाली ये झड़पें एक राजनीतिक रणनीति को दिखाती हैं। उनका तर्क है कि पुष्कर सिंह धामी सरकार अन्य जगहों पर शासन की नाकामियों से ध्यान हटाने के लिए सांप्रदायिकता का मुद्दा गरमा रही है- खासकर पहाड़ों में, जहां गांव लगातार खाली हो रहे हैं और विकास ठप पड़ा है।