उत्तराखंड: पर्यावरण से खतरनाक छेड़छाड़, संवेदनशील क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई

1970 के दशक में चिपको आंदोलन के दौरान तो इस समय से कम पेड़ कट रहे थे, फिर भी आंदोलन की बात सुनकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कटान रुकवाने में व्यक्तिगत रुचि दिखाई थी। अब उससे कहीं अधिक पेड़ कटने पर भी केंद्र सरकार में कोई संवेदनशीलता नजर नहीं आ रही है।

फोटो: सोशल मीडिया 
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भारत डोगरा

वैसे तो गंगा और सहायक नदियों का पूरा जल-ग्रहण क्षेत्र ही पर्यावरण की दृष्टि से बहुत संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है, पर गंगा के जन्मस्थान गंगोत्री और उसके नीचे के कुछ क्षेत्र को तो पर्यावरण और नदी रक्षा की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है। इसे विशेष तौर पर इको-सेंसिटिव क्षेत्र का दर्जा दिया भी गया है। इसलिए यह गहरे दुख की बात है कि गंगोत्री और उसके पास के क्षेत्रों जैसे हरसिल में भी बड़ी संख्या में पेड़ कट रहे हैं या उनके कटने की तैयारी है। इसके अतिरिक्त गढ़वाल हिमालय में गंगा और सहायक नदियों के अनेक अन्य जल-ग्रहण क्षेत्रों में भी यही स्थिति है कि बड़े पैमाने पर पेड़ कट रहे हैं या कटने की तैयारी है।

उत्तराखंड के कुछ प्रमुख गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ताओं जैसे सुरेश भाई और राधा भट्ट ने केदारनाथ मार्ग, बद्रीनाथ मार्ग जैसे अनेक क्षेत्रों का दौरा कर और स्थानीय लोगों से बातचीत कर यहां की स्थिति की रिपोर्ट तैयार की है। इन रिपोर्टों में बताया गया है कि हाईवे को चौड़ा करने का कार्य स्थानीय स्थितियों को समझे बिना किया जा रहा है। जितनी जमीन की जरूरत है उससे अधिक जमीन इस कार्य के लिए ली जा रही है। इस कारण हजारों पेड़ कट रहे हैं जिन्हें बचाया जा सकता था। हजारों अन्य पेड़ों की कटान के लिए पहचान हो चुकी है।

यदि आवागमन को ठीक करना है तो इन मार्गों पर जो भूस्खलन के क्षेत्र हैं या डेंजर जोन हैं उनका उपचार करना सबसे महत्त्वपूर्ण है। अनेक अन्य छोटी-बड़ी कमियों को भी दूर किया जा सकता है। पर हजारों पेड़ों को काटना कतई उचित नहीं है क्योंकि इससे तो और पहाड़ और अधिक अस्थिर होंगे तथा भू-स्खलन जगह-जगह पर और बढ़ेगा।

सुरेश भट्ट कहते हैं, “यहां एक पहाड़ी ढलान पर एक पेड़ कटने से आसपास के कितने ही पेड़ क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। सरकारी सूत्रों का कहना है कि चार धाम सड़कों के चैड़ा होने में कुल 46000 पेड़ कटेंगे जिनमें से 25000 पेड़ कट चुके हैं। पर हमारा मानना है कि 25000 पेड़ कटने से लगभग दस गुणा पेड़ क्षतिग्रस्त हो चुके हैं। बड़े पैमाने पर पेड़ कट रहे हैं तो केन्द्रीय सरकार के पर्यावरण मंत्रालय को कम से कम ठीक से जांच तो करनी चाहिए। निर्माण कार्य का मलबा वनों व नदी में फैंकने से भी वनों व नदी की बहुत क्षति हो रही है। निर्माण कार्य के विस्फोट पहाड़ों को बुरी तरह हिला रहे हैं व हादसों की संभावना बढ़ रही है।”

ध्यान देने की बात है कि हिमालय पर्यावरण की दृष्टि से बहुत संवेदनशील क्षेत्र है और वहां इतने विस्फोट करना और इतने पेड़ काटना आपदाओं की स्थिति को पहले से भी और विकट कर सकता है।

इस लेखक को याद है कि 1970 के दशक में चिपको आंदोलन में ग्रामीण महिलाओं ने पेड़ों से चिपक कर यहां पेड़ बचाए थे तो उन वनों में जाकर इसकी रिपोर्ट लिखना एक बहुत प्रेरणादायक अनुभव था। उस समय तो इससे कम पेड़ कट रहे थे पर आंदोलन की बात सुनकर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कटान रुकवाने में व्यक्तिगत रुचि दिखाई थी पर अब उससे कहीं अधिक पेड़ कटने पर भी केन्द्रीय सरकार में कोई संवेदनशीलता नजर नहीं आ रही है। हिमालय के पर्यावरण की रक्षा के लिए देश भर से उठने वाली आवाज ही इस विध्वंस को रोक सकती है।

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