उत्तराखंड: तबाह होती नदियां और नंगे होते पहाड़

उत्तराखंड को पर्यटन स्थल के रूप में खूब प्रचारित किया जा रहा है लेकिन हरिद्वार, ऋषिकेश, मसूरी, नैनीताल और रानीखेत-जैसे प्रमुख पर्यटन स्थलों के साथ-साथ दून घाटी लगातार कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होती गई है। पढ़िए इस सप्ताह की उत्तराखंड डायरी

टाइम्स प्रॉपर्टी पर प्रकाशित देहरादून स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट की सांकेतिक तस्वीर
टाइम्स प्रॉपर्टी पर प्रकाशित देहरादून स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट की सांकेतिक तस्वीर
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रश्मि सहगल

ऑपरेशन स्मार्ट सिटी मूर्खता से भरी कहानी 

मोदी सरकार के पसंदीदा विषयों में से एक रहा है हमारे राजधानी शहरों को ‘स्मार्ट सिटी’ में बदलना। इसमें देहरादून कोई अपवाद नहीं था और जून, 2017 में स्मार्ट सिटी मिशन में इसे भी शामिल कर लिया गया। जाहिर तौर पर, मिशन का ‘मुख्य बुनियादी ढांचे’ और ‘स्वच्छ और टिकाऊ वातावरण’ पर ध्यान है जो ‘स्मार्ट समाधान’ के जरिये लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी को बेहतर बनाए। दूसरे शब्दों में, पानी, बिजली और परिवहन सेवाओं में सुधार से शहर को रहने के लिए एक बेहतर जगह बनाना। लेकिन क्या ऐसा हुआ? क्या देहरादून अब स्मार्ट सिटी की श्रेणी में आ गया है?

वह शहर कितना स्मार्ट हो सकता है जहां बीस-बीस दिनों तक इंटरनेट सेवाएं बंद रहती हों? इस ‘इंटरनेट बंदी’ की वजह क्या है? 8-9 दिसंबर को दून में आयोजित वैश्विक निवेशक शिखर सम्मेलन के मौके पर नगरपालिका ने शहर में सौंदर्यीकरण अभियान शुरू किया। शहर बेतरतीब न दिखे, इसके लिए इधर-उधर झूलते-लटकते तारों को काट दिया गया। नतीजा, इंटरनेट सेवा ठप हो गई और यह खबर लिखे जाने तक यही स्थिति थी। तथ्य यह है कि इस कारण आरटीओ विभाग, बैंकों, जीएसटी कार्यालयों, दुकानों और व्यावसायिक परिसरों में भुगतान गेट-वे जैसे महत्वपूर्ण कार्य प्रभावित हुए हैं जिसकी राज्य प्रशासन को कोई चिंता नहीं है।

इन सबके पीछे निस्संदेह प्रधानमंत्री और गृहमंत्री को खुश करना था जो इस अंतरराष्ट्रीय बैठक में मौजूद थे। लेकिन किसने परवाह की कि इसकी वजह से उन हजारों लोगों की आजीविका गंभीर रूप से प्रभावित हो जाएगी जिन्हें काम और अन्य दैनिक गतिविधियों के लिए इंटरनेट की जरूरत होती है।

कहानी यहीं खत्म नहीं होती। उत्तराखंड को पर्यटन स्थल के रूप में खूब प्रचारित किया जा रहा है लेकिन हरिद्वार, ऋषिकेश, मसूरी, नैनीताल और रानीखेत-जैसे प्रमुख पर्यटन स्थलों के साथ-साथ दून घाटी लगातार कंक्रीट के जंगलों में तब्दील होती गई है। बदसूरत शॉपिंग मॉल और अनियोजित कॉलोनियों के लिए रास्ता बनाने के लिए स्थानीय नगर निगम अधिकारियों द्वारा हरित स्थानों पर अंधाधुंध तरीके से कब्जा कर लिया गया है।

जिस तरह यातायात बढ़ा है, उसी स्तर पर वायु प्रदूषण में भी इजाफा हुआ है। पहले, लोग इस आशा से दून आते थे कि स्वास्थ्यप्रद जलवायु में स्वास्थ्य और उत्साह- दोनों को नई ऊर्जा मिलेगी। लेकिन हुआ इसका उलटा। दून उन तमाम शहरों की भीड़ में शामिल हो गया है जहां इस तरह की वैधानिक चेतावनी देना शायद अच्छा हो कि यहां रहना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है! 


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विनाशकारी निर्णय

हिमालय को तीसरे ध्रुव के रूप में जाना जाता है। यह आर्कटिक और अंटार्कटिक के बाद दुनिया में बर्फ का तीसरा सबसे बड़ा भंडार है। उत्तराखंड में बंदरपूंछ, चौखंबा, सतोपंथ, केदारनाथ और कामेट सहित दुनिया की कई सबसे ऊंची चोटियां हैं।

भारत का कोई भी राज्य, यहां तक कि केरल भी, इतनी सारी नदियों का दावा नहीं कर सकता। इनमें गंगा, यमुना, अलकनंदा, भागीरथी और हिंडन जैसे कुछ नाम शामिल हैं। जंगलों और पहाड़ियों से होकर बहने वाली हजारों छोटी-छोटी जलधाराओं की तो बात ही छोड़िए। 

एक बेहद विवादास्पद फैसले में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने इन नदियों में मशीनी ड्रेजिंग की इजाजत दे दी है। घोषित उद्देश्य तो नदी चैनलों को साफ करना है लेकिन वास्तविक उद्देश्य कंस्ट्रक्शन लॉबी को बड़ी मात्रा में रेत उपलब्ध कराना है।

ड्रेजिंग को नदियों के लिए हानिकारक माना जाता है। यह न केवल जलीय जीवन, बल्कि तटीय प्राकृतिक आवास को भी बाधित करता है। यह नदी के किनारों को अस्थिर बना देता है और इससे भी बुरी बात यह है कि उत्तराखंड जैसे पहले से ही बाढ़-प्रवण क्षेत्र में यह नदी में बाढ़ की प्रवृत्ति को बढ़ा देता है। एक और संभावित खतरा यह है कि यह उन पुलों, नदी की दीवारों और पुलियों को अस्थिर करने में तेजी लाएगा जिनकी नींव नदी चैनलों के गहरे होने से कमजोर हो गई है।

कुल मिलाकर, पर्यावरण की दृष्टि से यह एक विनाशकारी निर्णय है जिसे बिना किसी स्वीकार्य कारण के हरी झंडी दे दी गई।

उत्तराखंड के जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में एक हाथी (फोटो - Getty Images)
उत्तराखंड के जिम कॉर्बेट नेशनल पार्क में एक हाथी (फोटो - Getty Images)
Aditya Singh

हाथियों का मार्ग बाधित 

उत्तराखंड के जंगली हाथियों के लिए दिसंबर का महीना भयानक साबित हुआ है। बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे के विस्तार के कारण न केवल उनका निवास इलाका सिकुड़ता जा रहा है बल्कि तेजी से बनाई जा रही नई सड़कों और रेल परियोजनाओं के नेटवर्क के कारण मौजूदा हाथी गलियारे भी खतरे में पड़ गए हैं। यह जानकारी होने के बावजूद कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी हाथी की आनुवंशिक स्मृति में सुरक्षित गलियारों का नक्शा रहता है और जब इस नक्शे में नाटकीय बदलाव किया जाता है, तो इसका नतीजा इंसान और हाथी- दोनों के लिए समान रूप से खतरनाक होता है, वन विभाग ने इस पर आपत्ति नहीं जताई। 

अभी कुछ दिन पहले ही हाथियों के झुंड ने हरिद्वार जिलाधिकारी आवास की दीवार तोड़ दी थी। नवंबर में हाथियों के मुख्य राजमार्गों को पार करने के तमाम वाकये देखने को मिले। ऐसे मामले कोटद्वार से लेकर तमाम दूसरी जगहों पर दिखे। कुछ दिन पहले हाथियों का एक बड़ा झुंड हरिद्वार की मुख्य सड़क पर चहलकदमी करता पाया गया। वन विभाग को बुलाने के बजाय पुलिस पहुंची और उन्हें तितर-बितर करने के लिए तेज हूटर का इस्तेमाल किया। हाथी घबराकर भागने लगे और इस बेवजह की भगदड़ में एक हाथी गिरकर घायल हो गया।

अभी 12 दिसंबर को लालकुआं-बरेली रेलवे ट्रैक पर एक हाथी की तेज रफ्तार ट्रेन से कुचलकर मौत हो गई। इस टक्कर में मां हथिनी के साथ चल रहा बच्चा हाथी गंभीर रूप से घायल हो गया। सौभाग्य से वन अधिकारी समय पर पहुंचे और हाथी के बच्चे को बचाने में कामयाब रहे जिसका फिलहाल इलाज किया जा रहा है। इस दुर्घटना से एक सप्ताह पहले एक और हाथी तेज रफ्तार ट्रेन की चपेट में आ गया था और बताया जाता है कि उसकी मौके पर ही मौत हो गई थी।

रेलवे को स्पष्ट निर्देश मिले हैं कि जंगली इलाकों से गुजरते समय ट्रेनों की गति धीमी होनी चाहिए। रेलवे अधिकारी यह सुनिश्चित करने में क्यों विफल हो रहे हैं कि इस गति सीमा का कड़ाई से पालन किया जाए?


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गायब होती वन भूमि 

पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय में राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने 6 दिसंबर को राज्यसभा को जानकारी दी कि पिछले बारह महीनों के दौरान उत्तराखंड ने 11,814,47 हेक्टेयर वन भूमि खो दी है। इतने छोटे राज्य के लिए यह चौंका देने वाला आंकड़ा है। यह घोषणा करना कि अन्य राज्य- मध्य प्रदेश (19,730.36 हेक्टेयर), ओडिशा (13,303.79 हेक्टेयर) और उत्तर प्रदेश (2,512.64 हेक्टेयर)- और भी अधिक वन भूमि खो चुके हैं, अप्रासंगिक है क्योंकि ये राज्य आकार में उत्तराखंड से बहुत बड़े हैं। चौबे ने उच्च सदन को सूचित किया कि सिंचाई, खनन, सड़क निर्माण और रक्षा परियोजनाओं के लिए यह वन भूमि डायवर्जन जरूरी था।

उत्तराखंड में पर्यावरणविदों ने इस पर खूब शोर-शराबा किया लेकिन न कुछ होना था, न हुआ। गैर-वनीय गतिविधियों के लिए वनक्षेत्र के बड़े पैमाने पर इस्तेमाल ने समुदायों और उन्हें समर्थन देने वाले पारिस्थितिक तंत्र के लिए जोखिम बढ़ा दिया है। वनों की कटाई के कारण इंसान-पशु संघर्ष के मामले भी बढ़ गए हैं। तब उत्तराखंड यूपी का हिस्सा हुआ करता था। उसी दौर में आज से करीब 50 साल पहले उत्तराखंड के ही इलाके से चिपको आंदोलन शुरू हुआ था। रैणी गांव की महिलाएं उसी परंपरा को जारी रखने के लिए सामने आई हैं और उन्होंने पेड़ों को कटने से रोकने का बीड़ा उठाया है। चिपको आंदोलन के अग्रदूतों में से एक- गौरा देवी की बहू जूथी देवी कहती हैं कि राज्य में पेड़ों की बड़े पैमाने पर कटाई के कारण बाढ़ और प्राकृतिक आपदाओं में तेजी आई है। ग्रामीणों को उनके प्रयासों के लिए राज्य सरकार से कोई सहायता नहीं मिलती है। चूंकि युवा बड़ी संख्या में नौकरियों की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, इसलिए उत्तराखंड के गांव बड़े पैमाने पर बुजुर्गों के घर होकर रह गए हैं। ऐसे इलाके में जो दिन-ब-दिन और अधिक आपदाग्रस्त होता जा रहा है, बुजुर्ग कब तक अपनी जीविका चला सकते हैं? अगर सरकारी नीतियों में आमूल-चूल बदलाव नहीं होता तो उत्तराखंड जल्द ही तबाह नदियों और नंगे पहाड़ों वाला एक बंजर इलाका बनकर रह जाएगा। 

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