उत्तराखंड: निजी हितों के टकराव से बीजेपी में घमासान, 'बड़ों' के आशीर्वाद वाले अलग-अलग धड़ों में खींचतान

उत्तराखंड में सत्तारूढ़ बीजेपी में उथल-पुथल का जो आलम है, उसकी वजह सिर्फ राजनीति नहीं है। ‘बड़ों’ के आशीर्वाद प्राप्त अलग-अलग धड़ों में बंटी पार्टी में जमकर खींचतान चल रही है।

उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पु्ष्कर सिंह धामी और पूर्व सीएम त्रिवेंद्र रावत के बीच मतभेद अब खुलकर सामने आने लगे हैं
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पु्ष्कर सिंह धामी और पूर्व सीएम त्रिवेंद्र रावत के बीच मतभेद अब खुलकर सामने आने लगे हैं
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रश्मि सहगल

बीजेपी की उत्तराखंड इकाई में चल रही अंदरूनी कलह ने मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के लिए गंभीर चुनौतियां खड़ी कर दी हैं। मुख्यमंत्री रह चुके हरिद्वार से लोकसभा सांसद त्रिवेंद्र सिंह रावत ने धामी सरकार पर राज्य में बड़े पैमाने पर हो रहे अवैध खनन पर आंखें मूंद लेने का आरोप लगाया है। खनन से कितनी कमाई हो रही है, इसके बारे में कोई ठोस आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं, लेकिन पर्यावरणविदों का दावा है कि यह आंकड़ा आधिकारिक रिकॉर्ड से कहीं ज्यादा है। हालांकि खनन सचिव ब्रजेश संत ने त्रिवेंद्र रावत के आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि उत्तराखंड में खनन से होने वाला राजस्व 2024-25 में 1,000 करोड़ रुपये को पार करने वाला है, जो पहले के 300 करोड़ रुपये से कहीं ज्यादा है और इससे साफ होता है कि अवैध खनन पर किस तरह अंकुश लगाया गया है।

हालांकि, रावत इससे बेपरवाह रहे और उन्होंने संसद में कहा कि देहरादून, हरिद्वार, नैनीताल और उधम सिंह नगर जिलों में रात में ओवरलोड ट्रक चल रहे हैं, जिसके कारण सड़क हादसे हो रहे हैं और बुनियादी ढांचे को नुकसान हो रहा है। रावत को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का करीबी माना जाता है और कहते हैं कि मार्च 2017 में रावत के मुख्यमंत्री बनने में शाह की अहम भूमिका थी।

पौड़ी गढ़वाल से सांसद अनिल बलूनी कथित तौर पर आग में घी डाल रहे हैं क्योंकि उनकी नजर धामी की कुर्सी पर है। बलूनी बीजेपी की राष्ट्रीय मीडिया सेल के प्रभारी हैं और उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और शाह का करीबी माना जाता है। वहीं, धामी को पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का आशीर्वाद प्राप्त है, जिनका कार्यकाल तमाम घोटालों से भरा रहा और आखिरकार उन्हें 2017 में महाराष्ट्र का राज्यपाल नियुक्त किया गया था।

धामी की आलोचना के बाद रावत के मुख्यमंत्री के रूप में कार्यकाल के दौरान बैराज, बिजली स्टेशन और सूर्यधार झील के निर्माण में कथित भ्रष्टाचार पर एक पुराना वीडियो वायरल हो रहा है। इस वीडियो को सबसे पहले हरिद्वार के मौजूदा विधायक उमेश कुमार के चैनल ने प्रसारित किया था। उमेश कुमार को धामी का करीबी बताया जाता है। झाकन नदी पर बना यह पावर स्टेशन रावत के विधानसभा क्षेत्र डोईवाला में है।

वीडियो में आरोप लगाया गया है कि इसका निर्माण झील के पास स्थिति रावत की पत्नी के स्वामित्व वाले भूखंड का मूल्य बढ़ाने के लिए किया गया था। तब खफा रावत ने उमेश कुमार का चैनल बंद करवा दिया था और पुलिस को आदेश दिया था कि उन्हें छह महीने के लिए राज्य से निकाल बाहर किया जाए। अब जब उमेश कुमार के ‘मित्र’ धामी मुख्यमंत्री हैं, तो बताया जाता है कि कुमार ने हरिद्वार में कई खनन ठेके हासिल कर लिए।


एक वरिष्ठ बीजेपी नेता का कहना है कि, ‘त्रिवेंद्र की बेटी स्टैनफोर्ड में पढ़ रही है और उसकी सालाना फीस ही करोड़ों में है। जाहिर है, हरिद्वार से सांसद होने के नाते उनकी नजर खनन ठेके पर होगी।’ खनन सचिव द्वारा सरकार की सकारात्मक छवि पेश करने की कोशिश रावत को रास नहीं आई और उन्होंने पलटकर कहा, ‘शेर कुत्तों का शिकार नहीं करते।’

उत्तराखंड आईएएस एसोसिएशन ने उनके इस बयान की कड़ी आलोचना की है। एसोसिएशन ने कहा है कि रावत ठाकुर हैं जबकि संत दलित हैं। इससे लोगों का ध्यान भटकाने को जरूरी समझते हुए धामी ने ‘मुस्लिमों को भड़काने’ की अपनी पुरानी रणनीति अपनाई। मार्च में उन्होंने राज्य के करीब 400 मदरसों में से 136 को बंद करवा दिया। ईद के मौके पर उन्होंने चार जिलों में मुस्लिम नाम वाली 17 जगहों के नाम बदलने का आदेश दिया। हरिद्वार के औरंगजेबपुर का नाम बदलकर शिवाजी नगर, गाजीवाली का नाम आर्य नगर, खानपुर का नाम श्री कृष्णपुर और खानपुर कुरसाली का नाम आंबेडकर नगर कर दिया गया है।

इसी तरह देहरादून में मियांवाला का नाम अब रामजीवाला, चांदपुर खुर्द का नाम पृथ्वीराज नगर, नैनीताल में नवाबी रोड का नाम बदलकर अटल रोड और पंचुक्की मार्ग का नाम गुरु गोलवलकर मार्ग कर दिया गया है। देहरादून के पास मियांवाला गांव का नाम बदलना ताकतवर राजपूत समुदाय को पसंद नहीं आया है। उनका कहना है कि इस नाम का मुस्लिम समुदाय से कोई लेना-देना नहीं है। ‘मियां’ उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में एक ताकतवर राजपूत कबीला है जो अपनी सैन्य वीरता के लिए जाना जाता है और समुदाय के लोग आंदोलन शुरू करने की धमकी दे रहे हैं।

एक वरिष्ठ इतिहासकार ने टिप्पणी की कि पार्टी नेतृत्व को पहले राज्य के इतिहास का अध्ययन करना चाहिए था, न कि मुस्लिम जान पड़ने वाली हर चीज के विरोध में अंधे हो जाना चाहिए।

उत्तराखंड के सभी मुख्यमंत्रियों को, दिवंगत नित्यानंद स्वामी और मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) बी सी खंडूरी को छोड़कर, राज्य में बड़े पैमाने पर खनन से प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लाभ उठाने के लिए जाना जाता है। रावत के कार्यकाल में यह ‘खेल’ बड़े पैमाने पर चल रहा था। मैं सहस्रधारा रोड पर रहती हूं और पिछले 20 सालों से रेत और पत्थरों से भरे ट्रक दिन-रात मेरे घर के सामने से गुजरते हैं। जब मैंने पास में ही स्थित वन विभाग के कार्यालय में शिकायत की, तो रेंजर ने जवाब दिया, ‘मैं सिर में गोली खाकर नहीं मरना चाहता।’

पिछले साल बागेश्वर जिले में बड़े पैमाने पर खनन के कारण जोशीमठ जैसी स्थिति पैदा हो गई थी, जहां घरों, दफ्तरों, सड़कों, खेतों और यहां तक ​​कि 1,000 साल पुराने कालिका मंदिर में दरारें पड़ गई थीं। पांच साल की अवधि में किए गए पीडब्ल्यूडी विभाग के एक अध्ययन में बताया गया कि राज्य में 37 से अधिक पुल ढह गए हैं और 27 अन्य ढहने के कगार पर हैं।

एचएनबी गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रमुख भूविज्ञानी डॉ. एस. पी. सती मौजूदा हालात पर गहरी नाराजगी जताते हैं। उन्होंने कहा, ‘अवैध रेत खनन से इन पुलों के खंभे उजागर हो जाते हैं, जिससे वे और अधिक कमजोर हो जाते हैं। हमारी नदियों में अत्यधिक मलबा डाले जाने के कारण पानी बहुत अधिक गति से बह रहा है, जिससे ऐसी स्थिति पैदा हो गई है कि पुल ताश के पत्तों की तरह ढह रहे हैं।’


खनन के खतरों के बारे में वैज्ञानिक समुदाय में एकमत होने के बावजूद, यह जानना हैरान करने वाला है कि भारतीय वन्यजीव संस्थान ने राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड के साथ मिलकर ‘राजाजी टाइगर रिजर्व के आसपास 10 किलोमीटर के दायरे के लिए एक समग्र योजना तैयार की है, जिसका उद्देश्य नदी तल में खनन को सुनिश्चित करना है।’ ऐसा ही कॉर्बेट पार्क में भी किया जाना है।

देहरादून की पर्यावरणविद् रीनू पॉल इससे खौफजदा हैं। कहती हैं, ‘रेगुलेटेड माइनिंग’ शब्द का क्या कोई मतलब नहीं रह जाता है जब नदियों में पत्थर तोड़ने और खुदाई करने वाली विशाल मशीनें काम करें? यह नैनीताल हाईकोर्ट के आदेशों का खुला उल्लंघन है। इन विशेष एजेंसियों की स्थापना वन्यजीवों और जंगलों की रक्षा के लिए की गई है। इसके बजाय, वे हमारे आरक्षित जंगलों में खनन को बढ़ावा दे रही हैं।’

सुप्रीम कोर्ट ने 2022 में आदेश दिया था कि संरक्षित वनों और पार्कों के आस-पास के एक किलोमीटर के इलाके को इकोसेंसिटिव जोन घोषित किया जाना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यहां कोई अवैध खनन या निर्माण न हो। अफसोस की बात है कि पर्यावरण और वन मंत्रालय इन इलाकों को इकोसेंसिटिव जोन अधिसूचित करके इन्हें किसी भी छेड़छाड़ से मुक्त करने में विफल रहा है। 

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