सुरंग में फंसी 40 जानें: आखिर क्यों जानते-बूझते डाली जा रही हैं जान जोखिम में!

उत्तरकाशी में सुरंग निर्माण के दौरान पहाड़ी धंसने से 40 मजदूरों की जान बीते 6 दिन से सांसत में है। उन्हें बचाने की कोशिशें जारी हैं। लेकिन यह दुर्घटना दुखद भले हो, अनायास और आश्चर्यजनक तो नहीं ही है, क्योंकि ऐसे हादसे लगातार हो रहे हैं।

फोटो - सोशल मीडिया
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रश्मि सहगल

उत्तरकाशी में पिछले 6 दिन से 40 मजदूर एक टनल में फंसे हुए हैं। उन्हें पाइपों के जरिए पानी, खाना और ऑक्सीजन पहुंचाया जा रहा है। मजदूरों को बाहर निकालने की अभी तक की कोई भी कोशिश कामयाब नहीं हुई है। शुक्रवार को नए सिरे से नई मशीन के साथ कोशिश की गई, लेकिन यह मशीन भी फिलहाल उन तक नहीं पहुंच पाई है।

दीपावली की सुबह उत्तरकाशी के 4.5 किलोमीटर लंबे निर्माणाधीन सिलक्यारा-बड़कोट टनल में यह हादसा हुआ। चार धाम योजना के अंतर्गत बनाई जा रही सबसे लंबी सुरंगों में से यह एक है और निर्माण के दौरान होने वाली दुर्घटनाओं में यह सबसे ताजा घटना है। मोटर से यात्रा करने वालों की सुविधा के लिए बनाई जा रही इस सुरंग के तैयार होने के बाद उत्तरकाशी से यमुनोत्री के बीच की दूरी 26 किलोमीटर तक कम हो जाएगी। लेकिन इस संवेदनशील जोन में यह मानवीय और प्राकृतिक- दोनों संसाधनों के लिए पूरी तरह असंवेदनशील है।

सैनडीआरपी (साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पीपुल) के साथ काम कर रहे वैज्ञानिक भीम सिंह रावत ध्यान दिलाते हैं कि 'जब दुर्घटना हुई, किन्हीं सुरक्षा प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया जा रहा था।

हादसे की सूचना मिलने पर उत्तराखंड का राज्य आपदा प्रतिवादन बल (स्टेट डिजास्टर रेस्पॉन्स फोर्स) सुरंग स्थल पर पहुंचा, तो उसने देखा कि मौके पर सिर्फ एक जेसीबी (मेकेनिकल एक्सट्रैक्टर) उपलब्ध था। सुरंग में बड़ा छेद कर मजदूरों को निकालनेे के लिए जरूरी ऑगर ड्रिलिंग मशीन वहां 14 नवंबर को ही पहुंच सकी। मतलब, जब दुर्घटना हुई थी, उसके 48 घंटे बाद।'

इस दुर्घटना का सबसे दुखद पक्ष यह है कि इस सुरंग का एक हिस्सा 2019 में भी धंसा था। संयोग है कि उस वक्त कोई मजदूर उसमें नहीं फंसा था। रावत यह बताते हुए कांप जाते हैं कि 'इस तथ्य के बावजूद कि कोई सुरक्षा नाली (डक्ट) नहीं बनाई गई थी कि वे लोग फॉल्ट लाइन में काम कर रहे थे और पर्यवेक्षण करने वाले इंजीनियर जानते थे कि यह कितना खतरे वाला काम है। सुरंग में फंसे लोगों को निकालने के लिए सरकार ने 900 मीटर लंबी पाइपलाइन भेजी थी लेकिन चूंकि अभियान विफल रहा, उसने ह्यूमन पाइप्स (प्रीकास्ट कंक्रीट पाइप्स) भेजी। इससे मजदूरों को निकालने का प्रयास किया जाने लगा।'

यह ट्रायल एंड एरर तरीका भर है। सरकारी अधिकारियों ने यह दावा तो किया है कि उन लोगों ने फंसे मजदूरों से संपर्क जोड़ लिया है लेकिन उन लोगों ने उस संपर्क की आवाज रिकॉर्ड करने का कोई प्रयास नहीं किया ताकि मजदूरों के परिजनों को आश्वस्त किया जा सके।


दुर्घटना में सुरंग में फंसे मजदूरों में से दो उत्तराखंड के हैं जबकि शेष राज्य से बाहर के हैं। स्थानीय राजनीतिज्ञ कहते हैं कि जब चार धाम यात्रा शुरू हुई थी, तो केन्द्र सरकार ने दावा किया था कि यह स्थानीय युवाओं को बड़ी संख्या में रोजगार उपलब्ध कराएगी। इन दोनों तथ्यों को सामने रखें, तो बहुत कुछ समझ में आता है।

इंजीनियरिंग भूवैज्ञानिक वरुण अधिकारी कहते हैं कि 'सिलक्यारा में हुई दुर्घटना सुरंग बनाने के जरूरी सिद्धांतों के प्रति गैरपेशेवर टनलिंग तरीकों और अनदेखियों का क्लासिक मामला है। यह उचित प्रक्रियाओं पर ध्यान रखते हुए उनके महत्व को भी रेखंकित करता है, खासतौर से सुरंग की खास स्थिति और आसपास की पहाड़ी चट्टानों पर पड़ने वाले असर को नजरंदाज़ करने का मामला है।

भूकंप भूविज्ञान और इंफ्रास्ट्रक्चर एक्सपर्ट वैज्ञानिक डॉ. सी. पी. राजेन्द्रन भी भौंचक हैं। वह कहते हैं कि 'किन्हीं मानक ऑपरेटिंग प्रक्रियाओं का यहां पालन नहीं किया जा रहा और उनके गंभीर परिणाम हो रहे हैं। पहले, पहाड़ों में इस किस्म की खोदाई निपुण भूवैज्ञानिकों की विश्वसनीय देखरेख में की जाती थी, जो सभी सुरक्षात्मक उपायों पर निगाह रखते थे। 2019 में जब सुरंग धंस गई थी, तब भी अधिकारियों ने सुरक्षा उपाय करने या उस दुर्घटना की समीक्षा करने का आदेश क्यों नहीं दिया था?'

इनका उत्तर पाना मुश्किल नहीं है। सुरंग निर्माण की देखरेख डीएससीएल (डीसीएम श्रीराम कॉन्सोलिडेशन लिमिटेड) के साथ मिलकर भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) कर रहा है। डीएससीएल ने इसका ठेका नवयुग कंस्ट्रक्शन कंपनी को दिया है जिसने एक ऐसी अन्य कंपनी को इसे सब-लेट कर दिया है जिसके पास इस तरह की परियोजना करने में विशेषज्ञता की कमी है। इलाके की चट्टानों की प्राकृतिक बनावट की अपर्याप्त भूवैज्ञानिक समझ और नियमों की अनदेखी घातक संयोजन है। लागत की कमी (जो इन स्थितियों में होती ही है) की वजह से नियमों की अनदेखी होती ही है (जो हो ही रही है) जबकि विस्फोटकों के व्यापक उपयोग से भूस्खलन हो रहे हैं। पूरी चार धाम परियोजना में पर्यावरण पर होने वाले प्रभाव की समीक्षा ताक पर रख दी गई है और इस वजह से जमीन पर लोग अपनी जानें खो रहे हैं।

उत्तराखंड में चार धाम योजना और रेल विकास निगम लिमिटेड के अंतर्गत हो रही सड़क और रेल निर्माण गतिविधियों में होने वाली दुर्घटनाओं में जान-माल के नुकसान को ही देखें। अक्टूबर में रुद्रप्रयाग जिले में ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेलवे परियोजना के लिए निर्माण के दौरान सुरंग के अंदर (उत्तेजक रसायन की वजह से) आग लगने के बाद करीब 40 मजदूर मुश्किल से बचे।


13 अगस्त को निर्माणाधीन एडिट-2 सुरंग के लगभग 30 मीटर अंदर कंधे तक की ऊंचाई पानी में फंसे 113 मजदूर और इंजीनियर बाल-बाल ही बचे। यह भी उसी ऋषिकेश-कर्णप्रयाग परियोजना का काम है। वे भाग्यशाली ही थे। पहले तो भारी मशीनों से पानी निकाला गया और उसके बाद उन्हें बाहर निकालने के लिए पुलिस दस्ता लगाया गया।

जुलाई में भारी बारिश की वजह से हुए भूस्खलन के कारण सहारनपुर से देहरादून को जोड़ने वाली डाट काली सुरंग के दोनों छोरों पर भारी मलवा जमा हो गया और आने-जाने वाले अंदर फंस गए।

ऋषिकेश-गंगोत्री रोड लिंक के हिस्से- चंबा-टिहरी सुरंग में दरारें आ गई हैं। इस इलाके में रह रहे लोग खौफ में हैं क्यांकि सुरंग बनाने के दौरान निकाला गया मलवा आसपास के इलाकों में डाल दिया गया है जिससे उनके मकानों में दरारें आ गई हैं।

यह तसल्ली की कोई वजह नहीं है कि सुरंगें धंसना उत्तराखंड में कोई नई बात नहीं है। 19 मई को जम्मू-श्रीनगर हाईवे पर रामबन जिले में खूनी नाला पर निर्माणाधीन सुरंग धंस गया और चार मजदूरों की मौत हो गई जबकि कई अन्य घायल हो गए।

सिर्फ इस साल उत्तराखंड में 1100 भूस्खलन हुए हैं जिनमें काफी सारे लोगों की जान गई। इस दौरान विस्तृत मानवीय, भौतिक, आर्थिक और पर्यावरणीय नुकसान हुए। इस किस्म के बड़े नुकसान हम हिमाचल और सिक्किम में भी देख ही चुके हैं।

वैज्ञानिक डॉ. सी. पी. राजेन्द्रन चेतावनी देते हैं कि हिमालयीन इलाके में दुर्घटनाओं की तीव्रता बद से बदतर होती जाएगी। वह कहते हैं कि 'यह साफ हो गया है कि उत्तराखंड के हिमालयीन इलाकों में भूस्खलन संबंधी दुर्घटनाओं में घातक वृद्धि हो रही है। इन्हें वर्गीकृत नहीं किया जा सकता और इन्हें 'प्राकृतिक आपदा' भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि चार धाम परियोजना के अंतर्गत सड़कों को चौड़ा करने के नाम पर अवैज्ञानिक तरीके से खड़ी चट्टानों को काटने की वजह से यह मानव-निर्मित है। उत्तरकाशी जिले में ब्रह्मखाल-यमुनोत्री सड़क पर सुरंग निर्माण में विफलता दुर्घटनाओं की श्रृंखला में नवीनतम भर है जो हमने हिमालयीन इलाकों में देखा-जाना है।'


विशेषज्ञ पैनलों द्वारा आपत्तियां जताने और न्यायालयों द्वारा जारी रोकों के बावजूद सरकार आगे ही बढ़ती जा रही है। राजेन्द्रन पूछते हैं कि 'आखिर, दीपावली की छुट्टी की सुबह भी लोग काम कर रहे थे, इसे आप और किस तरह दूसरे ढंग से कह सकते हैं? काम चौबीस घंटे चल रहा- समझा जा सकता है कि अधिकारियों द्वारा तय की गई समय सीमा को पूरा करने का ठेकेदार पर कितना दबाव होगा। अंदाजा लगाना आसान है कि यह सब अगले साल होने वाले आम चुनावों के मद्देनजर है।'

जब भी इस किस्म की दुर्घटना होती है, सरकारी प्रतिनिधि इन्हें 'भूगर्भीय अप्रत्याशित घटना' बता देते हैं। अगर हिमालयीन इलाकों-जैसे गतिशील और पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र में इस किस्म की बड़ी संरचनात्मक परियोजनाएं अयोग्य देखरेख में होंगी, तो कोई भी 'अप्रत्याशित घटना' होगी ही।

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