बिहार के मतदाताओं के आंकड़े और जीएसटी 2.0 दोनों अनिश्चित: प्रवीण चक्रवर्ती से खास मुलाकात
2019 से एक पैटर्न साफ दिख रहा था। चुनाव के पहले मीडिया में कुछ बहुत बड़ा ड्रामा चलेगा- पुलवामा, पाकिस्तान, लाडकी बहना वगैरह। फिर सर्वे एजेंसीज बोलेंगी कि बीजेपी की आंधी है, लहर है। नतीजे भी वैसे ही आएंगे। यह पैटर्न निरंतर था।

मतदाता सूचियों की हेराफेरी को लेकर जब चुनाव आयोग कठघरे में हैं, ऑल इंडिया प्रोफेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष प्रवीण चक्रवर्ती एक तरफ उपलब्ध आंकड़ों का सच सामने लाने के लिए जूझ रहे हैं, तो दूसरी तरफ आयोग पर और आंकड़े जगजाहिर करने का दबाव बनाने में जुटे हैं। जिस समय प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह देश में जीएसटी का खाका बनाने में जुटे थे, प्रवीण चक्रवर्ती भी उनके साथ थे। चुनावी आंकड़ों की हेराफेरी और जीएसटी के आफत बन जाने पर उनसे बात की हरजिंदर ने। बातचीत के अंश -
चुनाव आयोग ने बिहार के उन 65 लाख लोगों का डेटा मशीन रीडेबल फॉर्मेट में जारी किया है जिनके नाम वोटर लिस्ट से हटा दिए गए हैं। इस डेटा में आपको क्या कोई रुझान दिखा है?
आयोग ने पहले कहा कि हम यह डेटा नहीं दे पाएंगे। हमने इसका विरोध किया और सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि डेटा आपको देना ही पड़ेगा। तब आयोग ने वेबसाइट पर यह डेटा अपलोड किया। लेकिन कैसे- मतदान केन्द्रों का अपलोड किया। अगर विश्लेषण करना है, तो पूरा डेटा एक साथ होना चाहिए। लेकिन आयोग ने सभी 3000 केन्द्रों के लिए अलग-अलग डेटा दिया है। इसका मतलब है 3000 फाइलें। इन्हें एक साथ जोड़ने पर हम काम कर रहे हैं। हमारे विश्लेषण में रुझान भी साफ हो रहा है। रुझान क्या है, यह मैं अभी नहीं बता सकता।
आयोग क्यों यह डेटा नहीं देना चाहता?
वही मैं भी पूछ रहा हूं कि समस्या क्या है। आयोग विरोधाभासी बयान देता है। पहले जब डेटा मांगा, तो कहा कि आपके बूथ एजेंट्स को दे दिया। संसद में राहुल गांधी जी ने मांगा, तब भी यही जवाब था। यह नहीं कहा कि छपे हुए कागजों में दिया। कर्नाटक के विश्लेषण में जैसा कि राहुल जी ने बताया कि यह एक विधानसभा सीट के लिए 7 फीट ऊंचा कागजों का ढेर था। उसका विश्लेषण करके जब दिखाया, तो आयोग ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि यह निजता का मामला है। पहले जब आप बोल रहे थे कि हमने दे दिया, तब निजता नहीं थी। मतदाता सूची सार्वजनिक होती है। इसमें क्या छुपाया जा रहा है? वह क्यों नहीं देना चाहते?
महाराष्ट्र में आपको पता चला कि बड़े पैमाने पर खेल चल रहा है। पहले भी क्या ऐसा हुआ?
जैसा कि राहुल जी ने बताया, हमें 2019 से एक पैटर्न साफ दिख रहा था। चुनाव के पहले मीडिया में कुछ बहुत बड़ा ड्रामा चलेगा- पुलवामा, पाकिस्तान, लाडकी बहना वगैरह। फिर सर्वे एजेंसीज बोलेंगी कि भाजपा की आंधी है, लहर है। नतीजे भी वैसे ही आएंगे। यह पैटर्न निरंतर था।
महाराष्ट्र चुनाव के बाद मैं विश्लेषण कर रहा था कि क्या अकेले लाडकी बहना का इतना असर हो सकता है?
पांच महीने पहले लोकसभा में हम जीते थे। उस हिसाब से 157 विधानसभा सीटें हमें मिल रहीं थीं। गठबंधन में भी कोई बदलाव नहीं हुआ। पांच महीने बाद 157 से हम 50 पर आ गए। क्या जितने भी लोगों ने महाविकास अघाड़ी को वोट दिया, सबने पाला बदल दिया।
डेटा से पता पड़ा कि हमारे वोट कम नहीं हुए, बल्कि उनके वोट बढ़ गए। कैसे बढ़ गए?
पता चला कि ये सारे नए वोटर हैं। 70 लाख से ज्यादा ये नए वोटर थे। तब समझ में आया कि खेल क्या है। फिर भी समझ नहीं आया कि क्या यह भाजपा के लोग जमीन पर कर रहे हैं या यह आयोग के जरिये हो रहा है। ज्ञानेश कुमार की प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद बहुत स्पष्ट है कि दोनों मिले हुए हैं।
बिहार का मामला सुप्रीम कोर्ट में एक हद से आगे नहीं बढ़ता है, तो आपके पास क्या विकल्प हैं?
देखिए, यह एक राजनीतिक आंदोलन बन गया है। मुझे याद है, जब मैं महाराष्ट्र का मुद्दा उठा रहा था, हमारी पार्टी के बहुत से लोग ही विश्वास नहीं कर रहे थे। बेलगाम में कांग्रेस वर्किंग कमेटी की बैठक में कुछ लोग यह कह रहे थे कि यह गुमराह करने वाला है। मीडिया में लोग हमें बोलते थे कि कांग्रेस पार्टी का संगठन कमजोर है, इसीलिए यह हुआ।
अब लोग कह रहे हैं कि इस पर राजनीतिक आंदोलन होना चाहिए। राहुल जी बिहार में वोटर अधिकार यात्रा कर ही रहे हैं। आंदोलन शुरू हो चुका है। मैं अभी चेन्नई से आ रहा हूं। वहां से मांग आई कि वोट चोरी हमें तमिल में समझाइए। मैंने पूरे दो घंटे का प्रजेंटेशन तमिल में दिया।
अब जो भी भाजपा के सहयोगी हैं, उनको सोचना होगा कि यही चलता रहा, तो कल उनकी पार्टी भी खत्म हो सकती है। यह सिर्फ कांग्रेस और भाजपा का मामला नहीं है। यह पूरे देश का मामला है।
राहुल जी ने कहा है कि पिक्चर अभी बाकी है, क्या कोई और बड़ा भंडाफोड़ होने वाला है?
मैं यही कह सकता हूं कि इंतजार कीजिए।
जब जीएसटी की तैयारी चल रही थी, उससे जुड़े थे मनमोहन सिंह के साथ। तब क्या आपने सोचा था कि जीएसटी गब्बर सिंह टैक्स बन जाएगा?
यूपीए टू में हम जीएसटी लाना चाहते थे, नहीं ला पाए, क्योंकि एक राज्य गुजरात ने इसका विरोध किया। वहां के मुख्यमंत्री इसके बहुत खिलाफ थे। बाद में जीएसटी क्यों तबाही साबित हुआ? क्योंकि मोदी सरकार ने जीएसटी को लागू किया हैडलाइंस के लिए, मीडिया मैनेजमेंट के लिए। 8 नवंबर 2016 को नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की। दिसंबर-जनवरी तक पता चला कि यह आर्थिक तौर पर तबाही लाने वाला फैसला है। तब तय हुआ कि जीएसटी लागू करेंगे। यह फैसला फरवरी में लिया गया और जीएसटी विधेयक लोकसभा में मार्च 2017 में पेश किया गया।
अरविंद सुब्रमण्यम तब मुख्य आर्थिक सलाहकार थे, जीएसटी कमेटी के चेयरमैन भी थे। वह मेरे दोस्त भी हैं। उनकी सलाह थी कि सिर्फ दो रेट रखना है, उसके बाद जीरो रेट।
लेकिन उसे नहीं माना गया। आईटी व्यवस्था भी इसके लिए तैयार नहीं थी। बहुत सारी समस्याएं थीं। बड़ा पाव में मस्का हो, तो उसका अलग जीएसटी था, नहीं हो तो अलग जीएसटी। ऐसा जीएसटी किसी भी देश में नहीं लागू हुआ।
यह मनमोहन सिंह के समय में लागू होता, तो कैसा होता?
मैं थोड़ी टेक्निकल बात करता हूं। इकोनॉमिक्स में एक सिद्धांत है लाफर कर्व। सरकार को राजस्व चाहिए। इस लिहाज से हम सोचते हैं कि ज्यादा राजस्व के लिए ज्यादा टैक्स लगाना होगा। लाफर कर्व की सोच यह थी कि अगर आप टैक्स दरें कम करेंगे, तो आपको ज्यादा टैक्स मिलेगा। दर कम होंगी, तो दाम कम होंगे और लोग ज्यादा उपभोग करेंगे, यानी इससे राजस्व बढ़ेगा। मनमोहन सिंह की यही सोच थी। फिर जीएसटी अप्रत्यक्ष कर है। इसे अर्थशास्त्र में प्रतिगामी टैक्स कहते हैं। ये प्रतिगामी क्यों है? अगर आप, एक मनरेगा मजदूर और मुकेश अंबानी एक फिल्म देखने जा रहे हैं, तो सबके ऊपर एक बराबर टैक्स लगेगा। लेकिन आयकर ऐसा नहीं है। इसीलिए अप्रत्यक्ष टैक्स की दरों को हमेशा कम होना चाहिए। इन लोगों ने बिलकुल उलटा किया।
अब जब जीएसटी की दो दरें की जा रही हैं, तो क्या इसका फर्क पड़ेगा?
अभी सिर्फ बात हो रही है। यह होता है, तो हम उसका स्वागत करेंगे। यूपीए की यही सोच है। यही विचार राहुल जी का भी है। मैं घोषणापत्र कमेटी में था, चिदंबरम जी और हमने जब घोषणापत्र लिखा, तो हमने जीएसटी रेट सरल रखने की बात कही थी। अगर वे हमारे घोषणापत्र को लागू कर रहे हैं, तो हम स्वागत करेंगे ही।
क्या इस बदलाव से टैक्स टेररिज्म भी कम होगा?
एक चीज है टैक्स दरें। दूसरी चीज है अनुपालन और कर संग्रह। टेररिज्म यहीं पर होता है। जीएसटी जितना जटिल होगा, यह टेररिज्म उतना ज्यादा होगा। सरल होगा, तो यह कम भी हो सकता है।
जीएसटी दरें कम होंगी, तो राज्यों के लिए क्या नई परेशानियां खड़ी होंगी?
जीएसटी में एक मूल खामी है कि यह राज्यों के अधिकार को छीनती है? जीएसटी के बाद भारत दुनिया की अकेला ऐसा संघीय लोकतंत्र है, जहां निर्वाचित राज्य सरकारों के पास कर लगाने के अधिकार नहीं हैं। एक उदाहरण मैं अक्सर देता हूं। तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन पहली बार मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने कहा कि मैं पूरे राज्य में मिड डे मील योजना शुरू करूंगा। अधिकारियों ने कहा कि यह मुमकिन नहीं है, 200 करोड़ रुपये खर्च होंगे। एमजी रामचंद्रन ने कहा कि यह तो होना ही है। उन्होंने कारों पर, शराब पर और विलासिता के सामान पर टैक्स बढ़ा दिया। योजना लागू हो गई। बाद में यही योजना यूपीए ने पूरे देश में लागू की। जीएसटी की एक बड़ी समस्या यह है कि ऐसी योजनाएं लागू करने के अधिकार और उसकी क्षमता राज्यों से छीन लेती है। हर राज्य की जरूरत अलग है, उसके हिसाब से टैक्स लगाने का उसका अधिकार इससे खत्म हो जाता है। भारत जैसे देश में जहां राज्यों के बीच गैर-बराबरी बहुत है, राज्यों को अपनी जरूरत के हिसाब से टैक्स लगाने के अधिकार मिलने चाहिए।
मोदी सरकार ने सारे राज्यों से वादा किया था कि इससे उनका राजस्व नहीं गिरेगा। यह गारंटी पांच साल की थी, वह पांच साल खत्म हो चुके हैं। एक और वादा था कि जीएसटी से जीडीपी दो फीसद बढ़ेगी। आठ साल में जीडीपी पर कोई असर नहीं पड़ा। अब राज्यों को डर है कि उन्हें मिलने वाला पैसा तेजी से कम होगा।
इस बीच मोदी सरकार ने बहुत-सी चीजों पर सेस लगाया है। पिछले दस साल में यह बहुत ज्यादा बढ़ गया है। जीएसटी में एक फार्मूला है। उसके हिसाब से राज्यों को उनका हिस्सा मिल जाता है, लेकिन सेस तो पूरी तरह केन्द्र सरकार की जेब में जाता है।
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