खुशआमदीद 2023: तेज हवा से लड़ता उम्मीदों का दीया

मौका नए साल की शुरुआत का है। उम्मीदों को जिंदा रखने का है। ऐसे में बौद्धिक निराशावादिता को नजरअंदाज करते हुए उन लोगों का रुख करते हैं जिन्होंने व्यग्र मन को अपने तरीके से ढांढस बंधाते हुए इस मुश्किल वक्त में उम्मीदों का दीया जलाए रखने का जज्बा दिखाया है।

रेखांकन : पी सुरेश
रेखांकन : पी सुरेश
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नवजीवन डेस्क

नववर्ष का आगमन हो चुका है। बीता साल या कहें कि बीते कुछ साल काफी निराशा भरे रहे हैं, लेकिन फिर भी उम्मीदें हैं जिनका दीया जल रहा है। ऐसे ही कुछ आशावादी लोगों के नववर्ष पर विचार जिन्हें आशा की दीप प्रज्वलित रहने का भरोसा है

 फिर से मन मुरझा जाता है

 अब और भला मैं क्या मांगू

 दो दिन आसमान तीन दिन आसमान

 कांव बोल आसमान से गिरता है कौआ

 सिर्फ आस ही तो है जो छाई है सिर पे

 कमर तक पहुंच चुका है पानी, यहां कौन रखता है आशा के आने की आशा?

ये पंक्तियां बांग्ला कवि जॉय गोस्वामी की हैं, और जब मैं पीछे मुड़कर बीते हुए साल पर नजर डालती हूं, तो ये मुझे बड़ी खरी लगती है। मूल बांग्ला में ‘आशा‘ शब्द का प्रयोग ‘उम्मीद‘ के अर्थ में भी है और ‘आने‘ के अर्थ में भी।

 ‘हू होप अगेंस्ट होप’ ऐसा मुहावरा है जो 18वीं शताब्दी के कवि रामप्रसाद सेन को श्रद्धांजलि भी है और उनके भक्ति गीत में व्यक्त भाव के अनुकूल भी है। मूल बांग्ला में, इस कविता में ‘आशा’ शब्द का कई तरह से प्रयोग किया गया है। कभी इसका अर्थ 'उम्मीद' है तो कभी आगमन यानी 'आना' है। मोटे तौर पर इसका अनुवाद कुछ इस तरह है- ‘आपके आने की आशा ही होता था आशा का आना।’

क्या आशा आने वाली है? क्या कहीं कोई उम्मीद आकार ले रही है? जब मुझसे इस विषय पर लिखने को कहा गया तो इन सवालों पर गौर करने पर मुझे चारों ओर शून्य ही दिखा। एकमात्र जगह जहां कुछ उम्मीद जिंदा दिखी, वह थी-कला। इसलिए, मैं उन लोगों के पास पहुंची जिनसे मुझे हिम्मत मिलती है। जो दृढ़ संकल्प के साथ रचनात्मकता, ईमानदारी, यहां तक कि हठधर्मिता के साथ-वह करना जारी रखते हैं जो वे सबसे अच्छा करते हैं- चाहे वह फिल्मों का निर्माण हो, पुस्तकों का लेखन हो, नृत्य हो, समाज और संस्कृति का अध्ययन हो। इन्हें देखकर मुझे इस बात का अंदाजा होता है कि नागरिकता के साथ किस तरह जिम्मेदारी, सदाशयता और सरोकार का भाव जुड़ा हो सकता है, और यह कितना श्रम-साध्य हो सकता है।

जब मैंने उनसे पूछा कि उन्हें वर्ष 2023 के लिए क्या कोई आशा दिखती है कि हमारे चारों ओर फैली कट्टरता और भयावहता का प्रतिकार हो? हैरानी की बात नहीं कि उनकी स्वाभाविक, सहज और तत्काल प्रतिक्रिया थी ‘नहीं!’ लेकिन आप यहां जो पाएंगे, वह उस सहज, तत्काल और अंधकार-भरी प्रतिक्रिया से परे है। आसान उत्तरों से परे जाकर कठिन प्रश्नों को देखना, स्थापित सत्य पर विश्वास करने के नए कारण खोजना।

(संपूर्णा चटर्जी कवियित्री, अनुवादक और इंडियन क्वार्टर्ली में काव्य संपादक हैं)

मृदुला गर्ग, प्रख्यात साहित्यकार
मृदुला गर्ग, प्रख्यात साहित्यकार

कुछ तो है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी 

मैं समझती हूं, साल 2022 देश के लिए 2019, 2020 से भी भयानक था। जानती हूं तब देश में कोविड फैला था और तालाबंदी के चलते हजारों प्रवासी मजदूर उसी तरह हताहत हुए थे जैसे 1943 में बंगाल के अकाल में। दोनों बार दोष सरकारी नीति का था जो तब अनाज मुहैया न करवा पाई और अब बेरोजगार हुए लोगों के लिए वाजिब योजना न बना पाई।  

देश की आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई, तो सोचा सरकार समझ गई होगी कि कामगार आदमी को बचाए रखे बगैर विकास असंभव था। इसलिए अब जनता के माध्यम से विकास की नीति बनाएगी।  

हुआ उससे उल्टा। रोजमर्रा की जरूरतों की कीमतें जिस तेजी से बढ़ीं, उसी से बेरोजगारी। समाज के कॉरपोरेट तबके ने खूब प्रगति की, बेशुमार धन कमाया, पर बाकी लोग कंगाल होते गए। कृषि को कॉरपोरेट जगत को सौंपने के खिलाफ उग्र किसान आंदोलन हुआ। जिन्हें हम तब तक अन्नदाता कहते रहे थे, आतंकवादी कहने लगे क्योंकि वे सड़क पर उतर आए थे। हालात की नजाकत देख सरकार ने कृषि को कॉरपोरेट घरानों के हाथों सौंपने के लिए बनाए कानून वापस ले लिए।  

पर कृषि की मूल समस्या, फसल को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम मुहैया कराने का प्रयास न किया। नतीजतन, किसान जब कपास या अन्य कैश क्रॉप उगाता जिसके लिए बाजार उस पर दबाव डालता और बैंक कर्ज देते, तो उसे सुरक्षित रखने में नाकाबिल, कम दाम पर तुरंत बेचने पर मजबूर होता। कर्ज वापस न कर पाने के कारण जब जमीन जब्त होने की नौबत आती, तो बहुत बार आत्महत्या पर मजबूर हो जाता।  

और भी बहुत कुछ नष्ट होने लगा। लोकतंत्र के नियामक सहारे निष्प्राण या प्रभावहीन होते चले गए। नागरिकों के अंदर सत्ता के लिए भय पैदा करके काम सिद्ध करना शुरू हुआ। सर्व विदित है कि धर्मों और जातियों के बीच सद्भाव की बजाय बैर पैदा करने से नागरिक स्वत: सत्ता के इशारों पर नाचने को तैयार हो जाते हैं। 

इतिहास गवाह है। नात्जी जर्मनी में पहले यहूदियों के लिए नफरत पैदा की गई। फिर जिप्सियों, समलैंगिकों के प्रति, फिर कलाकारों, अभिनेताओं, लेखकों के प्रति। क्या वही सब पिछले साल हमारे देश में नहीं हुआ? बस, यहूदियों की जगह मुसलमानों और निचली जातियों ने ले ली। फिर बुद्धिजीवी और लेखक आदि उसकी चपेट में आ गए। यानी जो अपने लिए खुद सोचने की गुस्ताखी करे, देश द्रोही करार हो जाए। 

फिर साल बीतते न बीतते एक अनहोनी घटना घटी।  

विपक्ष का एक व्यक्ति तोड़ने की साजिश को धता बतला, जोड़ने के प्रयास में देश की पदयात्रा पर चल पड़ा। लोग जुड़ते गए। कारवां बनता गया। ऐसे उपक्रम पहले भी कई बार हुए थे और ज्यादातर नाकाम रहे थे। पर… कौन कह सकता है, इस बार भी विफल होगा। घड़ा भर जाता है तो एक कंचा मारने से टूट कर पानी-पानी हो जाता है। 

तो 2023 को मैं इसी आशा की नजर से देखती हूं। 

आज एक छोटी-सी घटना हुई जिसने मेरे भीतर उत्साह भर दिया कि कुछ तो बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। 

मेरे घर काम करने मिस्त्री आया। बमुश्किल चाय-नाश्ता लिया। खाने को बहुत कहा, नहीं माना कि काम शाम तक खत्म करना है। खाने बैठ गए तो हो नहीं पाएगा। बहुत कहा, बाकी कल हो जाएगा, नहीं माना। काम निश्चित वक्त से पहले खत्म हो गया। 750 रुपये दिहाड़ी तय हुई थी। इतना बढ़िया काम और एकदम समय पर। मैने 800 पकड़ाए तो बोला, "पैसे ज्यादा दे दिए आपने।" 

"नहीं, 800 ही तो हैं। बहुत बढ़िया काम किया तुमने।"  

"तो क्या खराब करते। ऐसे वैसे मिस्त्री नहीं हैं हम। अभी भी कमी लगे तो फोन कर देना। कल आ कर टच कर देंगे।" 

"जरूर, पर प्लीजज भाई मेरे, इन्हें आशीर्वाद समझ कर रख लो।" क्षण भर उसने मुझे घूरा फिर 50 रुपये अलग कर माथे से छू रख लिए। वाकई कुछ तो है कि हस्ती मिटेगी नहीं हमारी अगले बरस भी। 

(मृदुला गर्ग प्रख्यात साहित्यकार हैं)


अब्दुल बिस्मिल्लाह, उपन्यासकार, लेखक
अब्दुल बिस्मिल्लाह, उपन्यासकार, लेखक

खत्म नहीं हुई हैं सोचने वाली धाराएं

नाउम्मीदी हमारे सोच में नहीं, सो उम्मीद बनाए रखनी चाहिए लेकिन सच जो है, सामने है और क्रूर है। अभी जो हालात हैं, जैसी स्थितियां हैं चिंता होती है। कला, साहित्य, संस्कृति- यानी बौद्धिक दुनिया पर ही नजर डालें तो लगता है कि कुछ है जो अभिव्यक्त नहीं हो पा रहा। ऐसा नहीं कि लोगों ने चाहना बंद कर दिया है। लोग चाहते हैं, सोचते हैं, बोलते हैं, लिखते हैं,  फिर भी कुछ है जो अंदर दबा हुआ है, जो व्यक्त नही हो पा रहा। समाज में एक विचित्र प्रकार का भय समाया हुआ है। यह भय बहुत खतरनाक होता है। हमने बहुत बुरे दौर भी देखे हैं जीवन में। इसी समाज में बहुत कुछ घटित होते देखा है पहले भी। लेकिन राजनीति, समाज, साहित्य से जुड़े हुए लोग जिस प्रकार मुखर हुआ करते थे, वह मुखरता क्षीण हो गई सी लगती है। अंदर एक भय है कि पता नहीं कब क्या हो जाए। हमारी किस बात से, किस शब्द से कौन सा ताना-बाना बुन दिया जाए का ये जो सोच है, ये जो बच-बच के काम करने का माहौल बन गया है, वह परेशान करने वाला है।

वाह्य विभाजन तो होता रहा है लेकिन आज हम आंतरिक विभाजन के दौर में हैं। यह जो भीतर-भीतर बिखर रहा है, बहुत खतरनाक है। ऐसा सामाजिक विघटन हमने न पहले कभी देखा, न कल्पना में कहीं था। कुछ लोगों को यह सब आश्चर्यजनक लगता है, मुझे यह सब दुखद लगता है।

जब हम समाज पर परेशानी के बादल मंडराते देखते हैं, तो उससे सबको चिंता होती है। लेकिन दिक्कत यह है कि सोचने वाला प्रगतिशील तबका भी भय का शिकार है। भय है कि जैसे बादल मंडरा रहे हैं, वह कब किस पर किस तरह बरस जाएं, कौन उनकी जद में आ जाए, कहना मुश्किल है। 

आप इसमें बदलाव की उम्मीद पाल लें लेकिन मुझे यह उम्मीद भी प्रतीक रूप में ही दिखती है। इस वातावरण में मैं बहुत आश्वस्त नहीं हो पाता। दरअसल विचार बहुत महत्वपूर्ण होता है। समझना होगा कि विचारों का नया पेड़ जब खड़ा हो जाता है तो उसके इर्द-गिर्द कोशिशें तो होंगी लेकिन नए पेड़ पनपना आसान नहीं होता। यह बात सकारात्मक और नकारात्मक- दोनों ही मामलों में लागू होती है। आखिर ‘इस पेड़’ को भी तो इतना वक्त लग गया पनपने में। आजादी से मिले विचार रूपी पेड़ पर चोट करने में जब इसे इतना वक्त लगा तो स्वाभाविक है इसे बदलने में भी वक्त लगेगा। लेकिन यह सब हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने से तो नहीं होगा। हार मानने से भी नहीं होगा। सोचने वाली धाराओं में कुछ बिखराव भले आया हो, यह धारा खत्म नहीं हुई है। धारा का बहते रहना जरूरी है, इस बहाव में ही मकाम है।             

(अब्दुल बिस्मिल्लाह, झीनी-झीनी बीनी चदरिया, मुखड़ा क्या देखें, अल्पविराम और कुठांव जैसे चर्चित उपन्यासों के सर्जक)

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