सुधा भारद्वाज के बोलने पर पांबदी से उपजे सवाल, आखिर जेल के अंदर बातें बाहर आने से क्यों घबरा रही है सरकार!

सुधा भारद्वाज के बोलने पर प्रतिबंध ने कई सवाल खड़े किए हैं क्योंकि सरकारी पक्ष, मीडिया और सरकारी एजेंसियां उनके खिलाफ आरोपों पर बहस तो नहीं ही चाहते, प्रमुख सवालों के जरिये संदेह के बीज बोना चाहते हैं।

फोटो : सोशल मीडिया
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गौतम एस मेंग्ले

तीन साल तक जेल में रहने के बाद एक्टिविस्ट और अधिवक्ता सुधा भारद्वाज को 9 दिसंबर को सशर्त जमानत पर रिहा कर दिया गया। न्यायालय ने कई शर्तें रखी हैं जिनमें ये भी है कि वह मीडिया से बात नहीं करेंगी और मुंबई से बाहर नहीं जाएंगी। बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन्हें डिफॉल्ट जमानत दी है। कानून के मुताबिक, किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी के 90 दिनों के भीतर जांच एजेंसी को उसके खिलाफ चार्जशीट फाइल करनी होती है या संबंधित कोर्ट से अतिरिक्त समय की मांग करनी होती है। अगर एजेंसी ऐसा करने में विफल रहती है, तो अभियुक्त डिफॉल्ट जमानत का हकदार हो जाता है।

कानूनी बिरादरी कुल मिलाकर मानती है कि इस मामले में सशर्त जमानत अनुचित और अनावश्यक है। रिटायर्ड न्यायमूर्ति अभय थिप्से से जब उनकी राय पूछी गई, तो उन्होंने कहा कि ‘डिफॉल्ट जमानत सुनिश्चित अधिकार है और इसे किसी शर्त के साथ नहीं दिया जा सकता। उन्होंने कहा कि ऐसे मामलों में जहां अभियुक्त डिफॉल्ट जमानत पाता है, एकमात्र शर्त जो लागू होती है, वह यह है कि अभियुक्त को सुनवाई में भाग लेना होगा और वह कहां है, इस बारे में न्यायालय को अद्यतन सूचना देनी होगी। इसमें न्यायालय की अनुमति के बिना शहर या देश से बाहर नहीं जाना-जैसी बातें शामिल हैं। डिफॉल्ट जमानत में कोई अतिरिक्त शर्त इसे कमजोर करता है और इसे अर्थहीन बना देता है क्योंकि यह ऐसा अधिकार है जिसे अभियुक्त ने इसलिए हासिल किया है क्योंकि जांच एजेंसी अपना काम करने में विफल रही है।’

वरिष्ठ अधिवक्ता मजीद मेमन ने भी इसी किस्म के विचार व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि शर्त भारद्वाज के मूलभूत अधिकारों को सीमित करने वाली है। उन्होंने कहा कि ‘अभिव्यक्ति की उनकी स्वतंत्रता की तुलना में उनकी आजादी अधिक मूल्यवान है, खास तौर से इसलिए कि वह डिफॉल्ट जमानत से लाभान्वित हुई हैं। इस स्थिति में मीडिया से उनकी बातचीत सलाह योग्य नहीं है लेकिन बढ़िया तरीके से समय बिताने के बाद वह बाद में यह शर्त हटाने के लिए कोर्ट के पास जा सकती हैं।’

मुंबई की भायखला महिला जेल से निकलती भारद्वाज की हंसती हुई तस्वीरें मीडिया में भी आई हैं। उनकी बेटी मायशा और पुरानी दोस्त स्मिता गुप्ता जेल से बाहर उनकी प्रतीक्षा कर रही थीं। स्मिता ने कहा भी कि ‘हम सभी खुश हैं कि सुधा को रिहा किया जा रहा है; लेकिन उसके साथ ही हम दुखी हैं कि अपने जीवन के तीन साल उन्हें एक ऐसे मामले में जेल की सीखचों के पीछे रहना पड़ा जिसे हर कोई जानता है कि वह आधारहीन है। इस मामले का आधार ही हर बीतते दिन के साथ ही ढहता जा रहा है। हमें आशा है कि इस मामले में लपेटे गए अन्य लोगों को भी जल्द ही रिहा किया जाएगा। इसी तरह, हमें उम्मीद है कि बिना सुनवाई के ही वर्षों जेल में रखने के पुलिस को अधिकार देने वाले यूएपीए को रद्द कर दिया जाएगा।’


पिछले तीन साल में भीमा-कोरेगांव मामला एक ऐसा विषय बन गया है जिसमें एनआईए के साथ ही केन्द्र सरकार की भी तीखी आलोचना हो रही है। इस मामले के एक अभियुक्त फादर स्टेन स्वामी का अंधेरी में होली फेमिली अस्पताल में इलाज के दौरान पिछले जुलाई में निधन हो गया। स्वामी 84 साल के थे और वह पार्किन्संस रोग से पीड़ित थे। उन्होंने अपने वकीलों के जरिये सिपर देने का अनुरोध किया था ताकि वह आराम से पानी पी सकें। अंततः यह सुविधा उन्हें दी तो गई लेकिन इस अनुरोध पर जवाब देने में ही एनआईए ने एक सप्ताह का समय लगा दिया। मेडिकल जमानत देने के उनके आवेदन भी ठुकरा दिए गए और मई में उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया।

इस मामले का झोल इस साल फरवरी में मीडिया में आई इन रिपोर्टों से सामने आया कि अभियुक्त रोना विल्सन के लैपटॉप से जो साक्ष्य कथित तौर पर मिले थे, वे प्लांटेड थे। दरअसल, अमेरिकी बार एसोसिएशन के प्रयास पर उस लैपटॉप की अमेरिका की एक निजी कंपनी- आरसेनल कंसल्टेन्सी ने फॉरेन्सिक जांच की और उससे ही यह बात सामने आई।

सुधा भारद्वाज के बोलने पर प्रतिबंध ने कई सवाल खड़े किए हैं क्योंकि सरकारी पक्ष, मीडिया और सरकारी एजेंसियां उनके खिलाफ आरोपों पर बहस तो नहीं ही चाहता, प्रमुख सवालों के जरिये संदेह के बीज बोना चाहता है और सुनवाई तथा कोर्ट को पूर्वाग्रह ग्रस्त करने के लिए प्रभावित करने का इरादा रखता है। यह सब तब भी किया गया था जब उन्हें और दूसरे अभियुक्तों को भीमा-कोरेगांव मामले में गिरफ्तार किया गया था।

ऐसे में, फिर सवाल वही कि उनके बोलने पर रोक क्या उचित है? उदाहरण के लिए, वह इन सब पर क्यों नहीं बोल सकतीं कि उन्हें किन यातनाओं से गुजरना पड़ा, जेल में उनकी चिकित्सा या देखभाल किस तरह हुई, जेल में परिस्थितियां किस तरह की हैं? निश्चित तौर पर, ये बातें उस मामले को प्रभावित नहीं करती जो विचाराधीन है।

सुधा 60 साल की हैं। वह मानवाधिकार और आदिवासी अधिकार के क्षेत्र में काम करने वाली एक्टिविस्ट हैं। 31 दिसंबर, 2017 को भीमा-कोरेगांव में हुई हिंसा के संबंध में उन्हें पुणे पुलिस ने 28 अगस्त, 2018 को गिरफ्तार किया था। सुधा उन कई एक्टिविस्टों में हैं जिन्हें गिरफ्तार किया गया था। बाद में इस मामले को राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) को सौंप दिया गया।

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