अयोध्या में भूमि पूजन के बाद सबसे बड़ा सवाल, क्या राम मंदिर पर अब वोटों की सियासत खत्म होगी?

राम के नाम के साथ रामराज भी जुड़ा है, जिसमें पीड़ितों, वंचितों और दुखियों की सुनवाई होती है। राम आक्रामकता नहीं सिखाते, भेदभाव नहीं सिखाते, बांटना नहीं सिखाते। राम जो सिखाते हैं, अगर हम वो नहीं सीखते हैं तो फिर राम मंदिर सिर्फ एक भव्य इमारत बनकर रह जाएगा।

फोटोः सोशल मीडिया
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DW

बीजेपी के इतिहास में 5 अगस्त की तारीख सबसे अहम तारीखों में दर्ज हो गई है। इसी तारीख पर एक साल के भीतर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार ने उन सबसे बड़े दो वादों को पूरा किया, जिनके दम पर इस पार्टी ने सत्ता के शिखर तक पहुंचने का सफर तय किया। पहला वादा था, जम्मू कश्मीर से धारा 370 को खत्म करना, जिसे पांच अगस्त 2019 को पूरा किया गया. और दूसरा वादा था, अध्योध्या में राम जन्मभूमि पर भव्य राममंदिर का निर्माण, जिसका शिलान्यास पांच अगस्त 2020 को कर दिया गया।

लेकिन यहीं सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या शिलान्यास के बाद यह मुद्दा और इससे जुड़ा विवाद अब निपट गया है? या फिर आगे भी इस पर राजनीति होती रहेगी? और अगर इस पर राजनीति होती रहेगी, तो उसका आधार क्या होगा? यह तय है कि भारतीय जनता पार्टी जरूर इसका श्रेय लेगी और शायद यह उसका अधिकार भी है। लेकिन धर्म और धार्मिक श्रद्धा से जुड़े इस विषय को अब राजनीति के हाथों से समाज को सौंप देना चाहिए।

दरअसल रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के मुद्दे पर बीते दशकों में कई सरकारों की किस्मत का फैसला हुआ। किसी को सत्ता मिली तो किसी की छिनी। इस मुद्दे के साथ जब लालकृष्ण आडवाणी रथ पर सवार होकर निकले तो उन्होंने भारतीय राजनीति में ध्रुवीकरण के नए अध्याय का सूत्रपात किया। इसके समर्थन और विरोध में सियासत करने वाली पार्टियों ने वोटों की खूब फसल काटी।

भारतीय जनता पार्टी ने हमेशा इस मुद्दे को देश की बहुसंख्यक हिंदू आबादी के गौरव और स्वाभिमान से जोड़ने की कोशिश की। बीते दशकों में हर चुनाव से पहले ऐसी कोशिशें लगातार देखने को मिलीं। और कई बार बीजेपी इसमें कामयाब भी रही और कभी नहीं भी रही। फिर भी, यह मुद्दा भारत के सियासी दलों की रणनीति पर असर डालता रहा है।

कश्मीर से धारा 370 को हटाने के साथ-साथ अयोध्या में भव्य राम मंदिर का शिलान्यास ऐसा कदम है, जिसके लिए नरेंद्र मोदी और उनके कार्यकाल को याद किया जाएगा। उनकी प्रशंसा होगी और जो वैचारिक रेखा के दूसरी तरफ खड़े हैं, वे आलोचना भी करेंगे।

निश्चित रूप से देश की एक बड़ी आबादी की इच्छा थी कि अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो और अदालत के फैसले के बाद विवाद का निपटारा हो गया और अब मंदिर बनाने का काम भी शुरू हो गया है। इसलिए अब समय आ गया है कि इस मुद्दे को लेकर जो नफरत के सियासी ताने बाने बुने गए, उन्हें पीछे छोड़कर आगे बढ़ा जाए। बहुसंख्यकों का भय दिखाकर अल्पसंख्यकों के वोट बटोरने वाली सियासत भी रुकनी चाहिए और हिंदुओं की रक्षा के नाम पर राजनीति चमकाने वाले भी जरा सोचें कि अब तक जो कुछ वे करते आए हैं क्या वह सही है। समाज को बांट कर किसी देश को आगे नहीं ले जाया जा सकता। और राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम कहे जाते हैं। क्या राम समाज को बांटने का जरिया बनने चाहिए? बिल्कुल नहीं।

अयोध्या में प्रधानमंत्री मोदी ने आज अपने भाषण में कहा कि राम ने हमें विरोध से निकलकर बोध और शोध का मार्ग दिखाया है। हमें आपसी प्रेम और भाईचारे के जोर से राम मंदिर की इन शिलाओं को जोड़ना है। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि हमें सभी की भावनाओं का ध्यान रखना है। उन्होंने राम को परिवर्तन और आधुनिकता का पक्षधर बताते हुए एक बार फिर सबका साथ और सबके विकास का नारा दोहराया। इन बातों का मूल है कि परिवर्तन की वाकई जरूरत है, ताकि हमारी राजनीति बदले। जरूरी है कि धार्मिक उन्माद नहीं बल्कि 130 करोड़ जनता के जीवन और उसकी परेशानियों से जुड़े मुद्दे देश की सियासत को आकार दें।

राम से रामराज भी जुड़ा है। और रामराज, एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें पीड़ितों, वंचितों और दुखियों की सुनी जाए। कई दशकों से भारत की राजनीति में राम सिर्फ राज पाने का जरिया रहे हैं। "जय श्रीराम" उद्घोष बार-बार सुनाई देता है। यह उद्घोष होना चाहिए, लेकिन यह कोई आक्रामक राजनीति का नारा नहीं है, बल्कि अपने अराध्य का स्मरण है। राम आक्रामकता नहीं सिखाते, भेदभाव नहीं सिखाते, आपस में बांटना नहीं सिखाते। राम जो सिखाते हैं, अगर हम वो नहीं सीखते हैं तो फिर राम मंदिर सिर्फ एक भव्य इमारत बनकर रह जाएगा। भारत और उसके गौरव को फिर से दुनिया में स्थापित करना है तो इसके लिए राम को अपने अंदर लाना होगा।

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