यूपी रोडवेज को निजी हाथों में देने की तैयारी में योगी सरकार, BJP की ‘डबल इंजन’ सरकार का गरीब-गुरबों पर एक और वार

मायावती सरकार में भी यूपी परिवहन निगम के निजीकरण की तैयारी थी। लेकिन तब केंद्र में यूपीए सरकार थी और उसने सहमति नहीं दी थी, क्योंकि यूपी रोडवेज की संपत्तियों में केंद्र की भी हिस्सेदारी है। अब दोनों जगह बीजेपी की ‘डबल इंजन’ सरकार है, इसलिए कोई दिक्कत नहीं।  

फोटोः के. संतोष
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के संतोष

रेलवे की तरह यूपी रोडवेज को भी धीरे-धीरे निजी हाथों में सौंपने की तैयारी की जा रही है। इससे बस यात्रा तो महंगी होगी ही, दूरदराज के इलाकों में सरकारी बस सेवाओं पर भी तलवार लटक जाएगी।

इस किस्म की आशंका की ठोस वजहें हैं:

1. परिवहन विभाग ने सभी क्षेत्रीय प्रबंधकों से संपत्तियों के डीएम सर्किल रेट और जमीन का खसरा-खतौनी मांगा है। उच्चस्तरीय सूत्रों के मुताबिक, जिस तरह रेलवे अपनी जमीन पर मॉल और विभिन्न व्यावसायिक प्रतिष्ठानों का निर्माण कर उनकी देखरेख आदि के काम प्राइवेट कंपनियों को सौंपती जा रही है, लगभग वही मॉडल परिवहन निगम में भी अपनाने की तैयारी है।

वैसे, इस किस्म की तैयारी पहली बार नहीं हो रही है। 2008 में जब मायावती की सरकार थी, तब भी यूपी परिवहन निगम के लिए ऐसी ही तैयारी थी। यूपी रोडवेज इम्पलाइज यूनियन के महामंत्री तेज बहादुर शर्मा के अनुसार, ‘इन संपत्तियों में केन्द्र सरकार की भी हिस्सेदारी है। तब केन्द्र में कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार थी और उसने सहमति नहीं दी थी। अब दोनों में बीजेपी की ‘डबल इंजन’ सरकार है, इसलिए दिक्कत नहीं होगी।’

हालांकि यह रिपोर्ट फाइल किए जाने तक क्षेत्रीय प्रबंधकों ने संपत्ति के पूरे रिकॉर्ड भेजे नहीं हैं और कुल संपत्तियों को लेकर अंतिम आकलन होना शेष है लेकिन परिवहन विभाग के उच्चस्तरीय अफसरों का प्रारंभिक आकलन है कि 23 जोन में निगम की 45 हजार करोड़ से अधिक की संपत्तियां हैं। इनमें कानपुर, लखनऊ, वाराणसी और गोरखपुर को मिलाकर ही 20 हजार करोड़ से अधिक संपत्ति है। सर्वाधिक संपत्ति कानपुर में है। यहां करीब 100 एकड़ में वर्कशॉप और बस स्टेशन है।

वहीं, गोरखपुर में करीब 1,900 करोड़ की संपत्ति है। यहां रेलवे बस स्टेशन, कचहरी बस स्टेशन, राप्तीनगर वर्कशॉप और नौसढ़ बस स्टेशन बीच शहर में है। वहीं लखनऊ में परिवहन निगम की संपत्तियों का आकलन 8,000 करोड़ रुपये से अधिक का है। वाराणसी में भी करीब 1,600 करोड़ की संपत्ति निगम के पास है। उत्तर प्रदेश रोडवेज कर्मचारी संयुक्त परिषद के क्षेत्रीय उपाध्यक्ष अनिल लवानिया कहते हैं कि ‘संपत्तियों के सर्किल रेट और खसरा-खतौनी मांगना बताता है कि इसे निजी हाथों में बेचा जाना है।’

2. तीन हजार अनुबंधित बसों को शामिल कर दें तो यूपी की सड़कों पर 12 हजार से अधिक यूपी परिवहन निगम की बसें चलती हैं। हाल ही में विभाग के प्रमुख सचिव एम वेंकटेश्वर लू ने अपने आदेश में साफ कहा था कि ‘रोडवेज की 75 फीसदी सेवाएं अनुबंध पर होंगी, निगम सिर्फ 25 फीसदी सेवाओं को संचालित करेगा।’ योगी सरकार के जिम्मेदार अधिकारी पहले ही घोषणा कर चुके हैं कि 83 बस अड्डों को तीन चरणों में पीपीपी मॉडल में विकसित किया जाएगा। पहले चरण में लखनऊ, गाजियाबाद और आगरा में तीन-तीन बस अड्डों को प्राइवेट हाथों में दिया जाना है।


अयोध्या में दो और मथुरा, कानपुर नगर, वाराणसी, मेरठ, अलीगढ़, गोरखपुर, बुलंदशहर, हापुड़, बरेली, रायबरेली, मिर्जापुर में एक-एक बस अड्डे को निजी हाथों में दिया जा रहा है। लखनऊ, आगरा, कानपुर, गोरखपुर समेत प्रदेश के 14 बड़े शहरों में इलेक्ट्रिक बसों के सहारे संचालित हो रही सिटी बस सेवा पहले ही निजी हाथों में जा चुकी है। निजी भागीदारी से सूबे में 583 इलेक्ट्रिक बसें चल रही हैं, जल्द यह संख्या 700 के पार होगी। इन पर योगी सरकार 315 करोड़ की सब्सिडी दे चुकी है। मुख्य सचिव दुर्गा शंकर मिश्र का दावा है कि ‘चार्जिंग स्टेशन बनाकर सभी 75 जिलों की इलेक्ट्रिक बसों का संचालन होगा।’

3. आने वाले दिनों में अनुबंधित और निजी बसों पर निर्भरता बढ़नी है, संभवतः इसी वजह से परिवहन विभाग नई बसें नहीं खरीद रहा। पुरानी बसें कबाड़ हो रही हैं। इसी कारण कभी बस के अंदर बारिश से बचने के लिए छाता लिए महिला यात्रियों का वीडियो वायरल हो रहा है, तो कभी जुगाड़ से वाइपर चालू करने वाले ड्राइवर-कंडक्टर का वीडियो।

रोडवेज की 2,200 से अधिक बसें कानपुर के सेंट्रल वर्कशॉप समेत विभिन्न कार्यशालाओं में खड़ी हैं। रोडवेज के क्षेत्रीय मंत्री सत्यनारायण यादव कहते हैं कि ‘निगम छोटी-छोटी खराबी नहीं दूर कर रहा है जिससे वर्कशॉप में खड़ी बसों के टायर और बैटरी खराब हो रहे हैं। वर्कशॉप में खड़ी बसों से हर साल 1,000 करोड़ से अधिक का नुकसान हो रहा है। स्पेयर पार्ट्स की आपूर्ति तक इन दिनों बाधित है।’

निगम का कामकाज निजी हाथों में सौंपा गया, तो उसका कई तरह से असर होगाः

1. हवाई सेवा, हाईटेक हो रही रेल सेवा और परिवहन विभाग के समानांतर विकसित हो रही स्लीपर बस सेवा के बीच ग्रामीण आबादी की निर्भरता रोडवेज की बसों पर है। वर्ष 2017 में योगी आदित्यनाथ की सरकार बनी तो हरे और लाल रंग वाली लोहिया बसों की जगह भगवा रंग की बसों को सड़कों पर उतार कर ग्रामीण इलाकों को रोडवेज सेवा से जोड़ने का दावा किया गया। तभी से विभागीय मंत्री अनुबंधित बसों को लेकर टेंडर निकालने की बात करते हैं और अधिकारी रोडवेज बस सेवा से वंचित गांव को लेकर सर्वे का आदेश दे रहे हैं। लेकिन जमीन पर कुछ नहीं हो रहा।

योगी 2.0 में परिवहन राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बने दयाशंकर सिंह ने 100 दिन की कार्ययोजना में ग्रामीण इलाकों में बेहतर बस सेवा का वादा करते हुए 2,000 बसों को अनुबंधित करने का निर्देश अधिकारियों को दिया था। मंत्री का दावा था कि ये बसें तहसील, ब्लॉक और ग्राम स्थान में रात तक पहुंचेंगी और सुबह से चलने लगेंगी। इस योजना में 5 साल पुरानी बसों का भी अनुबंध करने का आदेश था लेकिन घाटे के अंदेशा में न तो बसों का अनुबंध हुआ और न ही ग्रामीण इलाकों में बसों का संचालन। लखनऊ और उससे सटे जिलों-रायबरेली,  बाराबंकी, बहराइच, सिधौली के ग्रामीण इलाकों में बस सेवा नहीं है। बस सेवा से वंचित 23 मार्गों के 356 गांवों का सर्वे हुआ लेकिन बसें नहीं चलीं।

गोरखपुर हो या वाराणसी- ग्रामीण इलाकों में अब भी लोग डग्गामार बसों के भरोसे हैं। गोरखपुर के गोला में रोडवेज बस का संचालन शुरू हुआ लेकिन टाइमिंग को लेकर कुछ तय नहीं है। स्थानीय निवासी अमित राय कहते हैं कि ‘रोडवेज की बस सेवा नहीं होने से प्राइवेट बस मालिक भूसे की तरह सवारी भरते हैं। दुघर्टना में मौत पर किसी प्रकार का बीमा का लाभ भी नहीं मिलता।’


ग्रामीण इलाकों में बस सेवा को लेकर पूर्ववर्ती अखिलेश यादव की सरकार ने वर्ष 2015 में प्रदेश में 656 ग्रामीण मार्गों पर पड़ने वाले 39,814 गांवों तक लोहिया बस चलाने का दावा किया था। 565 बसें उतारी भी गईं। इनमें किसानों, गल्ला व्यापारियों और दूध वालों के लिए रोडवेज विभाग ने सामान रखने की जगह भी मुहैया कराई। लेकिन योगी सरकार में यह व्यवस्था खत्म हो गई। अधिकारियों की दलील है कि इससे 4-5 यात्रियों के बैठने की जगह बेकार हो रही थी।

2. हालांकि रोडवेज बसों को लेकर शिकायतें आम हैं, पर यूपी रोडवेज इम्पलाई यूनियन के प्रांतीय संयुक्त मंत्री दिनेश मणि ठीक ही कहते हैं कि ‘कोरोना काल में जब निजी बसें सड़कों पर न के बराबर थीं, निगम के कर्मचारियों ने 42 लाख से अधिक लोगों को घरों तक सुरक्षित पहुंचाया। ये वे लोग थे जो बड़े शहरों से ट्रेनों से भाग आए थे और ग्रामीण इलाकों में अपने घरों तक जाने का प्रयास कर रहे थे।’

अगर ज्यादातर अनुबंधित बसें ही सड़कों पर चलेंगी, तो अपेक्षाकृत कम आय वर्ग के लोगों को आम दिनों में जो झेलना होगा, वह तो है ही, कम-से-कम संकट के वक्त तो उन्हें मदद करने वाला कोई नहीं होगा। कर्मचारी नेता विनोद तिवारी कहते हैं कि ‘रोडवेज की बसें सुदूर ग्रामीण भारत की लाइफ लाइन हैं। दिव्यांग, महिला से लेकर बुजुर्ग को बस में सहूलियत मिलती है। ऐसी बसें रात में भी चलती हैं और उनमें भी महिला सवारियां होती हैं। गरीब सस्ते किराये में मंजिल पर पहुंचते हैं। एमएसटी से लाखों नौकरी-पेशा लोग काम पर पहुंचते हैं।’

3. प्राइवेट हाथों में निगम को सौंपे जाने की संभावना से स्वाभाविक ही इससे जुड़े 55 हजार से अधिक कर्मचारियों के होश तो उड़े हैं। निगम में 17 हजार से अधिक नियमित कर्मचारी और संविदा पर 38 हजार से अधिक चालक-परिचालक सेवाएं दे रहे हैं। यूपी रोडवेज इम्पलाइज यूनियन के महामंत्री तेज बहादुर शर्मा के अनुसार, अगर निगम प्राइवेट हाथों में चला गया, तो नई भर्ती की उम्मीदें तो समाप्त होंगी ही, जो कर्मचारी पेंशन पा रहे हैं, उसपर भी संकट आ जाएगा।

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