2 जी फैसला: राजनीतिक मकसद के लिए संस्थाओं के इस्तेमाल की जीती-जागती मिसाल

<p>2 जी मामले के सभी आरोपी बरी हो गए। लेकिन, इस फैसले ने देश के सामने एक साथ कई सवाल खड़े कर दिए हैं। वह सवाल हैं कि देश की संस्थाओं को किस तरह बेबस और बेकार बना दिया है हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने</p>

<p>नवजीवन ग्राफिक्स</p>

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तसलीम खान

“…तदनुसार, सभी अभियुक्त बरी होने के हकदार हैं, और उन्हें बरी किया जाता है।”

बिंदु संख्या 1819, पृष्ठ संख्या 1552 पर यही लिखा है विशेष न्यायाधीश ओ पी सैनी ने। यह वो 11 शब्द थे जिन्हें सुनते ही पूरे देश में हलचल मच गई। ये उस मुकदमे के फैसले के आखिरी शब्द थे, जिसके आधार पर इस देश में भ्रष्टाचार एक राक्षस के रूप में हमारे सामने आया था। ये 2-जी घोटाले के सभी आरोपियों को दोषमुक्त करने वाले शब्द थे।

इस फैसले ने देश के सामने एक साथ कई सवाल खड़े कर दिए हैं। वह सवाल हैं कि देश की संस्थाओं को किस तरह बेबस और बेकार बना दिया है हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने।

2 जी केस में सीबीआई ने करीब 30 हजार पन्नों की चार्जशीट दाखिल की थी, जिसे कोर्ट ने फालूदा बनाकर उसके मुंह पर मार दिया। इससे देश की प्रीमियम जांच एजेंसी समझी जाने वाली सीबीआई की साख पर जो नया बट्टा लगा है वह उस सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी से भी बड़ा है जो कुछ बरस पहले सुप्रीम कोर्ट की ‘पिंजरे में बंद तोते’ वाली टिप्पणी से लगा था। यह एक बार फिर साबित हुआ कि सीबीआई का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक मकसद के लिए होता है, और जब राजनीतिक मकसद पूरा हो जाता है तो उस केस में न तो राजनीतिक वर्ग की दिलचस्पी रहती है और न सीबीआई की। और नतीजा वह होता है तो न्यायाधीश ओ पी सैनी ने अपने फैसले बिंदु संख्या 1812 पर लिखा है कि “शुरु में अभियोजन पक्ष यानी सीबीआई ने बड़े उत्साह और चुस्ती-फुर्ती के साथ इस केस में हिस्सा लिया। लेकिन जैसे जैसे केस आगे बढ़ा, अभियोजन अपने रवैये में काफी सतर्क नजर आने लगा, और हालत यह हो गई कि यह समझना ही मुश्किल हो गया कि आखिर अभियोजन इस केस में चाहता क्या है।”

टू-जी पर फैसले से एक और संस्था पर जो दाग लगा है वह है सी एंड ए जी यानी कैग। तत्कालीन सी एंड ए जी विनोद राय ने इस मामले में टिप्पणी की थी कि इसमें पौने दो लाख करोड़ का नुकसान हो सकता है। यानी नुकसान हुआ नहीं था, लेकिन हो सकता है। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि कोई अपनी कार दो लाख में बेचे और कोई कहे कि यह कार तो चार लाख में बिक सकती थी, इसलिए इसमें दो लाख रुपए का नुकसान हुआ है।

दुनिया के किसी भी हिस्से में नोशनल लॉस यानी संभावित नुकसान को भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं रखा जाता। लेकिन इस मामले को भ्रष्टाचार का मामला मान लिया गया और केस को अदालत में भेज दिया गया। अदालत ने साफ कर दिया कि इसमें भ्रष्टाचार तो हुआ ही नहीं। ऐसे में न सिर्फ कार्यपालिका बल्कि कैग नाम की संस्था पर भी सवालिया निशान खड़े हो गए और उसकी विश्वसनीयता संदेहास्पद हो गई। जिस नोशनल लॉस की थ्योरी को भ्रष्टाचार मानकर सीबीआई कोर्ट पहुंची, वहां से वह अपना सा मुंह लेकर लौट गई।

ठीक है कि इस मामले को ऊपरी अदालत में चुनौती दी जा सकती है। लेकिन यहां यह समझना जरूरी है कि इस पूरे मामले की जांच सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुई थी। सुप्रीम कोर्ट ने ही इस मामले के सामने आने के बाद कई टेलीकॉम कंपनियों के लाइसेंस रद्द किए थे। तो क्या इस फैसले के बाद वह कंपनियां कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाएंगी कि हमारे लाइसेंस गलत रद्द हुए थे, हमें हुए करोड़ों के नुकसान की भरपाई अब कौन करेगा?

इसी से जुड़ता है इस केस का एक और पहलू। वह यह कि ये केस सामने आने के बाद करोड़ों का नुकसान उठाने वाली कंपनियों ने बैंकों से लिए कर्ज को डिफाल्ट किया। कर्ज डिफाल्ट, यानी बैंकों से उधार लिए पैसों के नहीं चुकाया। नतीजा यह हुआ कि बैंकों के एनपीए बढ़ गए। इस बढ़े हुए एनपीए को पाटने लिए अब सरकार ने बैंक रिकैपिटालाइजेशन की स्कीम शुरु की है। यह पैसा कहां से आ रहा है। यह पैसा हमारी-आपकी जेब से आ रहा है।

इस केस के सामने से आने से देश की अर्थव्यवस्था को जो चोट लगी थी, उससे उबरने में उसे बरसों लग गए। टेलीकॉम सेक्टर की हालत खराब हो गई। सरकार ने नए सिरे से स्पेक्ट्रम ऑक्शन किया और नतीजा यह हुआ कि आम उपभोक्ता के लिए सर्विस महंगी हो गई।

यानी भ्रष्टाचार के एक ऐसे केस से राजनीतिक मकसद साधा गया, जो कभी भ्रष्टाचार था ही नहीं। अगर यह भ्रष्टाचार था तो फिर न्यायाधीश ओ पी सैनी ने अपने फैसले में बिंदु संख्या 1811 पर यह नहीं लिखा होता कि, “पिछले सात वर्षों से, गर्मी की छुट्टियों तक में, सभी कार्यदिवसों पर, मैं सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक, इस खुली अदालत में आकर बैठ जाता था और इंतजार करता था कि शायद इस मामले में कोई तो कहीं से ऐसा सबूत लेकर आए, जिसकी कानूनी मान्यता हो। मैं इंतजार करता रहा, लेकिन कोई सबूत नहीं आया, और सब बेकार हो गया।”

इस फैसले में अगर जरा भी दम होता और राजनीतिक वर्ग अपने मकसद के अलावा कुछ और साबित करना चाहता तो जज ओ पी सैनी ने नहीं लिखा होता कि, “इससे लगता है कि यह मामला मुख्यत: अफवाह, गपशप, जन-चर्चा और अटकलों पर आधारित था। लेकिन अटकलों, अफव और गपशप का न्यायिक प्रक्रिया में कोई स्थान नहीं होता है।”

हो सकता है आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट खुद ही इस मामले का संज्ञान लेकर नए सिरे से जांच करने को कहे या फिर मामले को अपने अधीन लेकर नए सिरे से सुनवाई करे, लेकिन अगर ऐसा होता है तो न्यायाधीश ओ पी सैनी की फैसले के साथ दी गई इस टिप्पणी को ध्यान में रखना होगा कि, “केस के अंत तक अभियोजन पक्ष की पैरवी इतने घटिया स्तर पर पहुंच गई जिससे ये पूरा मामला ही दिशाहीन और संकोचपूर्ण लगने लगा।”

जस्टिस सैनी ने यह भी लिखा है कि इस बारे में और क्या लिखा जाए क्योंकि जिस तरह से सबूतों को पेश किया गया उससे लगभग सबकुछ साफ हो ही चुका था।

न्यायाधीश सैनी ने अपने फैसले में यह भी कहा है कि इस मामले ने कई लोगों का ध्यान आकर्षित किया और सभी सुनवाइयों के दौरान अकसर कोर्ट रूम खचाखच भरे रहे। उन्होंने कहा, "कई लोग अदालत के सामने पेश हुए और बताया कि मामले में सही तथ्य पेश नहीं किए गए। जब इन लोगों से यह पूछा जाता था कि क्या आपके पास इस तथ्य को साबित करने का प्रमाण है, वे इसका जवाब नहीं दे पाते थे।"

इस फैसले से तमिलनाडु की राजनीति नई करवट ले सकती है, तो कांग्रेस के लिए बहुत बड़ी राहत की बात है। लेकिन कांग्रेस को यह भी ध्यान रखना होगा कि गुजरात चुनाव में हारते-हारते बची बीजेपी चैन से बैठने वाली नहीं है। वह नए सिरे से कांग्रेस पर हमलावर होगी और हो सकता है भ्रष्टाचार के या फिर कुछ और मामले निकालकर 2019 की जमीन तैयार करे।

पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने आखिरी दिनों में कहा था कि “इतिहास मीडिया से ज्यादा मुझ पर मेहरबान होगा।” इतिहास में एक पड़ाव आया है और वह फिलहाल उन पर मेहरबान ही दिखा है।

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Published: 22 Dec 2017, 7:58 AM
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