हम दो, हमारे दो, तो सबके दो: बीजेपी के इस नारे में निशाना मुसलमान, लेकिन खामियाजा भुगतेंगे गरीब और दलित

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने अभी दिसंबर में 2019-20 का जो पांचवां राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस-5) जारी किया है, वह बताता है कि 2005-06 से मुसलमानों में बच्चों के जन्म लेने की दर सबसे अधिक तेजी से कम हुई है।

प्रतीकात्मक तस्वीर
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ज्योति सिन्हा

इधर एक ‘खास संदेश’ वाले वीडियो सोशल मीडिया पर चल रहे हैं। इसमें असम और उत्तर प्रदेश सरकारों द्वारा सिर्फ दो बच्चों वाले परिवारों को सरकारी सुविधाएं देने के प्रस्तावित कानून का समर्थन किया जा रहा है। वैसे, इस मामले में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने पीछे कर दिया है। शर्मा ने 19 जून को असम में जनसंख्या नियंत्रण कानून का फार्मूला लागू करने के लिए विचार करने की घोषणा की। वैसे तो उन्होंने कहा कि चाय जनजातियों और अनुसूचित जातियों को इससे अलग रखा जाएगा लेकिन जोड़ा कि ऐसा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि अल्पसंख्यकों, मतलब मुसलमानों की संख्याल गातार बढ़ती जा रही है। इसके अगले ही दिन यूपी ने घोषणा की कि भुखमरी और बेरोजगारी से निपटने के लिए इस किस्म के कानून का मसौदा राज्य विधि आयोग ने बनाना शुरू कर दिया है। दोनों ही जगह कहा गया कि कानून लागू होने के बाद 2 से अधिक बच्चों वाले अभिभावकों को कई सरकारी सुविधाओं से वंचित होना पड़ सकता है। वैसे, जितना शोर है, उस आधार पर माना यह भी जा रहा है कि जल्द ही नरेंद्र मोदी सरकार भी जनसंख्या नियंत्रण कानून लाने की कोशश में है।

फिर बात उन वीडियो की जो इन दिनों सोशल मीडिया पर चल रहे हैं। इनमें सवाल पूछने वाला तो नहीं दिखता, पर वह जिन बच्चों से बात कर रहा है, वे जब अपने नाम बताते हैं, तो उससे लगता है कि वे मुसलमान हैं। उनसे बारी-बारी से पूछा जाता है कि वह कितने भाई-बहन हैं। ऐसे सवालों के जवाब में कोई बच्चा 16, तो कोई 9 और फिर, कोई 16 बताता है। इन सबके बाद एंकर पूछता है कि किसी एक खास समुदाय में ही इतने बच्चे क्यों होते हैं और इनके माता-पिता परिवार नियोजन उपायों को क्यों नहीं अपनाते?

किसी परिवार में दो से अधिक बच्चे न हों, इसके लिए लोगों को प्रेरित करना कतई गलत नहीं है। इसके लिए कई तरह के उपाय किए ही जाने चाहिए। लेकिन इस तरह के वीडियो का असली मकसद राजनीतिक संदेश देना अधिक है और खास तौर से तब ज्यादा जब अगले छह-सात माह में यूपी विधानसभा चुनाव हों। सच्चाई यह है कि अधिक बच्चों के जन्म से किसी धर्म को जोड़ना सरकारी आंकड़ों की ओर से आंखें चुराना ही है। दो से अधिक बच्चों वाले परिवारों को सरकारी सुविधाओं से वंचित करने से मुसलमानों से अधिक अनुसूचित जाति, जनजाति के लोग प्रभावित होंगे।

वाट्सएप यूनिवर्सिटी का ज्ञान अपनी जगह, पहले तो यही जानना जरूरी है कि मुसलमानों के घरों में बच्चोंकी जन्म दर क्या है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने अभी दिसंबर में 2019-20 का जो पांचवां राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस-5) जारी किया है, वह बताता है कि 2005-06 से मुसलमानों में बच्चों के जन्म लेने की दर सबसे अधिक तेजी से कम हुई है। असम के संदर्भ में भी यह कम ही हैः यह 2005-06 में 3.6 थी जो 2015-16 में 2.9 हो गई और 2019-20 में 2.4 है। वैसे, इसी तरह जम्मू-कश्मीर के मुसलमानों को लेकर आए आंकड़े भी जानने लायक हैं: 2005-06 में यह 2.5 थी जो 2015-16 में 2.1 हो गई और 2019-20 में 1.5 रही। वाट्सएप यूनिवर्सिटी से ज्ञान प्राप्त करने वालों को एक और सरकारी आंकड़ा जानना चाहिए। उत्तर प्रदेश में हिंदू परिवारों में बच्चों की जन्मदर 3.73 है जबकि केरल में मुसलमानों में यह दर 2.46 है।


दरअसल, महज सुने-सुनाए या गढ़े गए आंकड़ों पर हवाई दावे करने की जगह कुछ बातों को समझना जरूरी है। 2017 के सर्वे से ही स्पष्ट हो चुका था कि महिलाओं के जन्म देने की दर अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग है। यह दर 1971 के बाद से ही गिरना शुरू हो चुकी है। शहरी इलाकों में यह दर 1971 में 4.1 थी जो पिछले सर्वे में ही 1.7 हो चुकी थी। ग्रामीण इलाकों में यह दर 5.4 थी जो अब 2.4 हो चुकी है। वैसे, अलग-अलग राज्यों में ग्रामीण इलाकों में भी यह दर अलग-अलग रही हैः दिल्ली और तमिलनाडु में तो यह 1.6 थी जबकि बिहार में 3.3 थी। शहरी इलाकों में हिमाचल प्रदेश में यह 1.1 थी जबकि उत्तर प्रदेश और बिहार में 2.4 थी। एनएफएचएस-5 में भी शहरों की तुलना में ग्रामीण इलाकों में जन्मदर ज्यादा है।

ये सर्वे धर्मों के आधार पर तो आंकड़े उपलब्ध कराते हैं लेकिन जातियों को लेकर ये स्थिति स्पष्ट नहीं करते। फिर भी आर्थिक स्थिति और जन्मदरों को लेकर तो कुछ-कुछ आंकड़े जरूर मिलते हैं और इससे बहुत कुछ साफ होता है। अब, जैसे बिहार का ही उदाहरण लें। पिछली बार के सर्वे से ही साफ था कि बिल्कुल निचले आय वर्ग की महिलाओं में जन्म देने की दर 5.08 थी जबकि सबसे अधिक आय वर्ग की महिलाओं में यह दर 2.12 थी। ऐसा नहीं है कि यह सिर्फ इसी बीमारू राज्य के साथ है। अपेक्षाकृत बेहतर संपन्न राज्य महाराष्ट्र में सबसे कम आय वर्ग की महिलाओं में यह दर 2.78 थी जबकि संपन्न परिवारों में यह दर 1.74 थी। इस बार के सर्वे से भी साफ है कि सबसे कम आय वर्ग की महिलाओं में यह दर 3.2 है जबकि संपन्न परिवारों में 1.5 है। दरअसल, कम आय का एक मतलब महिलाओं की शिक्षा, उनके रोजगार, खाद्य सुरक्षा, सामाजिक रहन-सहन से दूरी तथा विवाह की कम उम्र है और ज्यादा बच्चों को जन्म देने की बड़ी वजहें ये भी हैं

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