2020 : बीता साल तो मायूसियों का था, नया साल अच्छा बीतेगा !

बीते साल में देश के राजनीतिक और आर्थिक मोर्चे पर केंद्र सरकार बुरी तरह नाकाम रही है। लेकिन इसने अल्पसंख्यकों को केंद्र में रखकर जो भी फैसले लिए उससे अल्पसंख्यकों के बीच नई राजनीतिक चेतना का संचार हुआ है।

फोटो : सोशल मीडिया
फोटो : सोशल मीडिया

अगर दिल से यह दुआ निकले कि यह साल तो अच्छा रहे, इसका अर्थ यही है कि सब कुछ ठीक नहीं है। जाहिर है मौजूदा हालात को किसी भी तरह ठीक नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसा कहना खुद से झूठ बोलना होगा। नहटौर के सुलेमान और अनस के परिवारों पर क्या गुजर रही है इसका अनुमान भी कोई नहीं लगा सकता। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक उत्तर प्रदेश में 22 और असम में कम से कम 5 ऐसे परिवार हैं जिनके घर में मौत का मातम पसरा हुआ है।

असल में नागरिकता संशोधन कानून अकेला ऐसा मुद्दा नहीं है जिसकी वजह से यह दुआ दिल से निकली है कि यह साल तो अच्छा साल रहे। महंगाई आसमान छू रही है और हद यह है कि प्याज जैसी आम इस्तेमाल की चीज भी पहुंच से बाहर हो गई है। युवाओं में बेरोजगारी का खौफ इस हद तक घर कर गया है कि वे अध्य्यन से दूर होने लगे हैं और जबरदस्त मायूसी का शिकार हैं। पहले से ही कर्ज में डूबा देश का किसान और भी ज्यादा कर्ज में फंसता जा रहा है। मजदूरों का काम छिन गया है क्योंकि देश की बड़ी-बड़ी फैक्टरियां और कंपनियां बंद होने लगी हैं।

ये वे मुद्दे हैं जिनके बारे में सरकार को गंभीरता से विचार करते हुए उनका समाधान पेश करना था, लेकिन इसके विपरीत सरकार का ध्यान तो इस बात पर ज्यादा है कि पड़ोसी देशों के अल्पसंख्यकों को धार्मिक उत्पीड़न का शिकार बताकर अपने यहां की नागरिकता कैसे दी जाए। किसी भी ऐसे नागरिक को जिसके साथ किसी भी देश में ज्यादती हो रही है, उसको अपने देश में शरण देना एक नेक कदम है, लेकिन अगर ऐसे नेक काम को भी राजनीतिक चश्मा पहनाने की कोशिश की जाने वगे तो यह बेहद दुख और चिंता की बात है।

सरकार के इस कदम के नतीजे सामने आने लगे हैं। देश का एक बड़ा तबका इसके खिलाफ उठ खड़ा हुआ है। नतजीतन न सिर्फ लोगों की जानें गई हैं, बल्कि बड़े पैमाने पर सरकार नुकसान के साथ-साथ छात्रों के शैक्षिक जीवन पर भी विपरीत असर पड़ा है।


वैसे तो इस साल अगर सरकार के कामकाज का गौर से विश्लेषण करें तो साफ हो जाएगा कि आर्थिक मोर्चे पर तो यह सरकार पूरी तरह नाकाम साबित हुई ही, राजनीतिक तौर पर भी उसकी जमीन खिसकी है और केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बावजूद कई राज्यों में उसे हार का सामना करना पड़ा है। हां इतना जरूर है कि सरकार ने तीन तलाक और नागरिकता संशोधन कानून को संसद से पास करा लिया। इन दोनों मामलों में अगर गैर से देखें तो एक बात साफ है कि दोनों का ही संबंध देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय मुसलमानों से है। सरकार और उसके कर्ताधर्ता जरूर इस सोच के रहे होंगे कि इन दो मामलों के जरिए अल्पसंख्यकों को घेरकर देश के बहुसंख्यकों को खुश कर दिया है, लेकिन अगर गौर से देखें तो इन दोनों मामलों के साथ ही बाबरी मस्जिद मामले से देश के अल्पसंख्यकों को बहुत बड़ा फायदा हुआ है।

अगर बाबरी मस्जिद के फैसले को ध्यान से देखें तो यह एक तरह से अल्पसंख्यकों के ही पक्ष में है। सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद की जमीन हिंदू पक्ष को देते हुए मान लिया कि मस्जिद किसी मंदिर की जगह नहीं बनाई गई थी और 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद गिराना आपराधिक कृत्य था। यानी जिन लोगों ने और जिन लोगों के कहने पर मस्जिद को ढहाया वे अपराधी थे। अल्पसंख्यकों की बात सुनी गई और यह विवाद हमेशा के लिए खत्म हो गया। लेकिन जो फैसला सुनाया गया उससे हिंदू पक्ष और सुप्रीम कोर्ट दोनों पर सवाल खड़े हो गए हैं। यही वह पहलू है जो अल्पसंख्यकों के पक्ष में जाता है।

तीन तलाक विधेयक का बिल पास होने में अगर सजा के प्रावधान को अलग कर दें तो यह अल्पसंख्यकों के लिए यह महत्वपूर्ण फैसला है क्योंकि अधिकांश मुसलमान ऐसा ही चाहते थे, और आपसी मतभेदों के कारण वे इस पर कोई आखिरी फैसला लेने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहे थे। अब, सरकार के निर्णय के बाद, इस समस्या का हल निकल आया है मुसलमानों के आपसी मतभेदों के टकराव के बिना ही यह मुद्दा खत्म हो गया है। सरकार के इस कदम से मुसलमानों की एकता बढ़ गई।


नागरिकता संशोधन कानून ने भी मुसलमानों को जबरदस्त फायदा पहुंचाया है क्योंकि सरकार के इस कदम से मुसलमानों में न सिर्फ राजनीतिक जागृति पैदा हुई, बल्कि उनके और देश के उदार समुदाय के बीच नजदीकियां भी बढ़ीं, जामिया और जेएनयू करीब आए। साथ ही देश में अल्पसंख्यकों की आधी आबादी यानी महिलाएं जो आमतौरपर इस किस्म के विरोध प्रदर्शनों से दूर रहती थीं या उन्हें दूर रखा जाता था, वे भी मैदान में उतर आईं। महिलाओं के मैदान में उतरने का सीधा अर्थ है कि अल्पसंख्यकों की ताकत में इजाफा हुआ है और इनकी आधी आबादी जो अहम मसलों से बाहर रहती थी, वह अब केंद्र में आ गई है और आने वाले दिनों में अल्पसंख्यकों की तरक्की में अहम भूमिका निभा सकती है। यह उन धार्मिक नेताओं की भी हार है जिन्होंने एशिया में अल्पसंख्यकों की आधी आबादी को घरों में कैद कर रखा था।

कहा जाता है कि कभी-कभी अच्छाई में बुराई का पहलू छिपा होता है तो कभी बुराई में अच्छाई का पहलू। शायद 2019 में जो कुछ हुआ है और जिन्हें अल्पसंख्यक बुराई समझ रहे हैं, इसी में उनकी भलाई का पहलू छिपा है।

जो भी हो, दुआ यही है कि वर्ष 2020 तो अच्छा रहे....

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