सबसे महंगा हो सकता है 2024 का लोकसभा चुनाव

2019 में एक लोकसभा सीट पर चुनाव खर्च सौ करोड़ के पार था। ऐसे में लोकतंत्र और संविधान में समान अवसर की बात बेमानी ही कही जाएगी

दिल्ली स्थित चुनाव आयोग का मुख्यालय
दिल्ली स्थित चुनाव आयोग का मुख्यालय
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नवनीश कुमार

देश में अगले कुछ माह में लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं। इससे पहले ही सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बॉन्ड पर रोक लगा दी है। इसके बाद राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाले चंदे में कमी आने का अनुमान है।

2019 में हुआ लोकसभा चुनाव दुनिया का सबसे महंगा चुनाव था। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) के अनुसार, 2019 में चुनावों में 55,000 करोड़ रुपये खर्च का अनुमान जताया गया था, लेकिन असल में यह 60,000 करोड़ बताया जा रहा है, यानी प्रत्येक लोकसभा सीट पर औसतन 100 करोड़ रुपये से भी ज्यादा खर्च हुए। ऐसे में लोकतंत्र और संविधान में समान अवसर की बात करना बेमानी ही कहा और माना जाएगा।

सवाल है कि पिछले चुनाव के मुकाबले इस बार कितने करोड़ खर्च होंगे? क्या 2024 में दुनिया का सबसे महंगा चुनाव भारत में होगा?
2009 में 15वीं लोकसभा चुनाव का बजट भारत में उससे पहले हुए चुनावों से डेढ़ गुना ज्यादा था। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, 1998 में 9,000 करोड़, 1999 में 10,000 करोड़, 2004 में 14,000 करोड़, 2009 में 20,000 करोड़, 2014 में 30,000 करोड़ और 2019 में 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए। इस लिहाज से 2014 का खर्च 2009 से डेढ़ गुना बढ़ा था। 2019 के चुनाव में 2014 के हिसाब से लागत दोगुनी हुई थी। इसे आधार मानें, तो 2024 के चुनाव में 1 लाख 20 हजार करोड़ रुपये का खर्च आ सकता है।

वैसे तो चुनाव आयोग द्वारा उम्मीदवार के खर्च की सीमा तय की गई है, लेकिन पार्टियों के ऊपर कोई पाबंदी नहीं है। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की ओर से चुनावी खर्च को लेकर जारी की गई रिपोर्ट के हिसाब से हर लोकसभा क्षेत्र में औसतन 100 करोड़ रुपये से अधिक खर्च हुए हैं।
2019 लोकसभा चुनाव में सत्ताधारी बीजेपी ने सबसे ज्‍यादा 27,500 करोड़ रुपये खर्च क‍िए थे। 9,625 करोड़ रुपये के साथ कांग्रेस दूसरे नंबर पर थी। बाकी सभी पार्ट‍ियों का खर्च 17,875 करोड़ रुपये था।

1998 में सभी पार्ट‍ियों का कुल खर्च 9,000 करोड़ रुपये ही था। चुनाव खर्च पिछले 20 सालों में 1998 से लेकर 2019 तक 9 हजार करोड़ से करीब 6 गुना बढ़कर 55 हजार करोड़ रुपये हो गया है।
सत्ताधारी बीजेपी ने इस कुल खर्च का आधा पैसा अकेले चुनाव पर खर्च किया है। रिपोर्ट में एक अनुमान के तहत बताया गया है कि लगभग 15 हजार करोड़ रुपये अवैध तौर पर मतदाताओं के बीच बांटे गए। 

रिपोर्ट तैयार करने वाले अधिकारियों का कहना है कि ये सिर्फ उस अनुमान पर आधारित रिपोर्ट है जिसे मीडिया रिपोर्ट, उम्मीदवारों के एनालिसिस और चुनावी अभियान पर रिसर्च कर तैयार किया गया है। इसके अलावा बाकी कई तरह के खर्च हो सकते हैं। उन्होंने इसे ‘टिप ऑफ आइसबर्ग’ बताया।


चुनाव आयोग के न‍ियम के मुताबि‍क, 2019 के लोकसभा चुनाव में उम्‍मीदवारों का खर्च 4,000 करोड़ रुपये से थोड़ा अध‍िक ही होना चाह‍िए था क्‍योंक‍ि आयोग की ओर से प्रत्‍येक उम्‍मीदवार के ल‍िए खर्च सीमा 50 से 70 लाख रुपये के बीच तय थी और मैदान में 8,054 उम्‍मीदवार थे।
2019 के चुनाव से पहले एनडीए सरकार चुनावी चंदे के ल‍िए इलेक्‍टोरल बॉन्‍ड स्‍कीम लेकर आई थी। 2017-18 से 2022-23 के बीच इलेक्‍टोरल बॉन्‍ड के जर‍िये राजनीत‍िक पार्ट‍ियों को कुल 11,450 करोड़ रुपये चंदा म‍िला। इसका आधे से भी ज्‍यादा (57 प्रत‍िशत, यान‍ि 6,566 करोड़ रुपये) बीजेपी को म‍िला। इस बीच, कांग्रेस को इलेक्‍टोरल बॉन्‍ड से 1,123 करोड़ रुपये म‍िले थे। बीजेपी और कांग्रेस के बाद सबसे ज्‍यादा (1,093 करोड़) तृणमूल कांग्रेस को म‍िले थे।
लोकसभा चुनावों पर होने वाला सरकारी खर्च भी लगातार बढ़ा है। यह 1951 के 10.5 करोड़ रुपये से बढ़ कर 2014 में 3870.3 करोड़ पर पहुंच गया था। यानी, करीब 387 गुना ज्‍यादा।
निर्वाचन आयोग ने उम्मीदवारों के खर्च की एक सीमा तय की है। लोकसभा चुनाव के प्रसार में बड़े राज्यों के लोकसभा सीट का कैंडिडेट अधिकतम 95 लाख खर्च कर सकता है। वहीं, छोटे राज्यों के लिए सीमा 75 लाख रुपये तय की गई है।

विधानसभा चुनाव में बड़े राज्यों से चुनाव लड़ने वाले कैंडिडेट प्रति सीट 40 लाख रुपये खर्च कर सकते हैं जबकि छोटे राज्यों में 28 लाख रुपये लिमिट तय की गई है। भारतीय चुनाव आयोग के मुताबिक, चुनाव प्रचार में होने वाले खर्च के लिए प्रत्याशी को एक बैंक अकाउंट खुलवाना होगा और इसी से प्रचार का सारा ट्रांजैक्शन करना होता है। चुनाव प्रचार के बाद अपने बैंक खाते से होने वाले खर्च का पूरा हिसाब-किताब चुनाव आयोग को देना होता है। अगर प्रत्याशी चुनाव में निर्धारित लिमिट से अधिक खर्च करते हैं, तो लोक प्रतिनिधि अधिनियम 1951 की धारा 10ए के तहत 3 साल सजा का प्रावधान है। 
2023 में 5 राज्यों के चुनाव के दौरान चुनाव आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की है। बताया गया है कि इसमें 1,760 करोड़ रुपये से अधिक की जब्ती की गई है। यह रकम पिछली बार की गई जब्ती से 7 गुना ज्यादा है। इन राज्यों में पिछली बार 2018 में विधानसभा चुनाव हुए थे जहां 239.15 करोड़ रुपये जब्त किए गए थे।
इलेक्टोरल बॉन्ड पर सुप्रीम कोर्ट के विश्लेषण से साफ है कि सत्ताधारी पार्टी को बेरोकटोक राजनीतिक फंडिंग की सुविधा देने के लिए चुनावी बॉन्ड योजना लाई गई थी। बीजेपी ने ही इस योजना से अधिकांश धन प्राप्त किया है जबकि मुख्य विपक्षी कांग्रेस पार्टी सहित अन्य पार्टियों को कुल राशि का केवल दसवां हिस्सा ही मिला है।


ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यों की जांच करते हुए 1998 की इंद्रजीत गुप्ता समिति की रिपोर्ट और 1999 की भारतीय विधि आयोग की सिफारिशें- दोनों चुनावों के लिए पूर्ण राज्य वित्त पोषण की वकालत करती हैं, जो इस बहस की दीर्घकालिक प्रकृति को रेखांकित करती हैं। रिपोर्ट मोटे तौर पर इंद्रजीत गुप्ता पैनल की रिपोर्ट से सहमत थी और इस बात पर जोर दिया गया था कि चुनावों के लिए कुल राज्य वित्त पोषण तब तक वांछनीय था जब तक राजनीतिक दलों को अन्य स्रोतों से धन लेने से प्रतिबंधित रखा गया हो। आयोग इस आधार पर भी सहमत था कि उस समय की आर्थिक स्थितियों को देखते हुए केवल आंशिक राज्य वित्त पोषण ही संभव था। लेकिन इसके अतिरिक्त, यह उचित नियामक ढांचे की सिफारिश करता है जिसमें यह सुनिश्चित करने के प्रावधान शामिल हैं कि राजनीतिक दल आंतरिक लोकतंत्र का पालन करते हैं और आंतरिक संरचनाओं और खातों को व्यवस्थित रखते हैं, उनकी ऑडिटिंग करते हैं, और राज्य के वित्त पोषण की अनुमति से पहले चुनाव आयोग को प्रस्तुत करते हैं।
लेकिन दुर्भाग्य से, संविधान के कामकाज की समीक्षा करने के लिए राष्ट्रीय आयोग, 2001 ने चुनावों के लिए राज्य के वित्त पोषण का समर्थन नहीं किया। हालांकि यह 1999 के विधि आयोग की रिपोर्ट से सहमत था कि राज्य के वित्त पोषण से पहले राजनीतिक दलों के विनियमन के लिए उचित ढांचे को लागू करने की आवश्यकता होगी।

कुल मिलाकर परिणाम यह है कि इन सिफारिशों के बावजूद राज्य वित्त पोषण काफी हद तक अकादमिक ही रहा है। राज्य वित्त पोषण के समर्थक चुनावी प्रक्रिया में पारदर्शिता, समानता और भ्रष्टाचार में कमी लाने की इसकी क्षमता पर प्रकाश डालते हैं। सभी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए अधिक समान अवसर प्रदान करके, राज्य वित्त पोषण मौजूदा प्रणाली से जुड़े पक्षपात के आरोपों से मुक्त, एक स्वस्थ लोकतांत्रिक पारिस्थितिकी तंत्र को बढ़ावा दे सकता है।

(सबरंग में प्रकाशित मूल लेख का संपादित अंश; साभारः https://www.newsclick.in/)

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