राम पुनियानी का लेखः घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन के 30 साल और जारी सांप्रदायिक राजनीति

हकीकत ये है कि जब कश्मीरी पंडितों का घाटी से पलायन हुआ, तब जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था और दिल्ली में बीजेपी के समर्थन वाली विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी। इसके बाद 1998 से 2004 तक बीजेपी के अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार भी आई।

फोटोः सोशल मीडिया
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नवजीवन डेस्क

जनवरी 2020 में कश्मीरी पंडितों के घाटी से पलायन को पूरे तीस साल पूरे हो गए। पंडितों की सांस्कृतिक और सामाजिक जड़ें कश्मीर घाटी में थीं। वहां से पलायन के पूर्व उन्हें घोर अन्याय, हिंसा और अपमान का सामना करना पड़ा था। इस पलायन का मूल कारण था साल 1990 के दशक में कश्मीर घाटी में अतिवाद का सांप्रदायिकीकरण। तब से लेकर आज तक किसी सरकार ने पंडितों की समस्या को सुलझाने का गंभीर प्रयास नहीं किया।

लेकिन सांप्रदायिक तत्व लगातार कश्मीरी पंडितों के पलायन के मुद्दे का उपयोग उदारवादी और मानवाधिकारों के हामी कार्यकर्ताओं का मुंह बंद करने के लिए करते आ रहे हैं। जब भी वे भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यकों की बदहाली की बात करते हैं, फिरकापरस्त तबका तुरंत उनसे पूछता है कि “कश्मीरी पंडितों का क्या”। अब तो स्थिति यह हो गई है कि कश्मीर घाटी के ये अल्पसंख्यक अपने नागरिक अधिकार खोने की कगार पर हैं।

देश में जब भी कहीं साम्प्रदायिक हिंसा होती है, मानवाधिकार संगठन पीड़ित अल्पसंख्यकों के लिए न्याय और उनके पुनर्वास की मांग करते हैं। इस मांग का समर्थन करने की बजाए हिन्दू राष्ट्रवादी यह चिल्लाना शुरू कर देते हैं कि जब कश्मीर से हिन्दुओं को भगाया जा रहा था तब आप कहां थे। जाहिर है कि इस प्रक्रिया में एक अल्पसंख्यक समूह के साथ हुए अन्याय को इस आधार पर औचित्यपूर्ण ठहराया जा रहा है कि एक अन्य अल्पसंख्यक समूह को भी त्रासद परिस्थितियों से गुजरना पड़ा था। यह सांप्रदायिक हिंसा का सामान्यीकरण करने का प्रयास है। ऐसा लगता है मानो जो लोग मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हालात की ओर ध्यान आकर्षित करते हैं या अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात करते हैं, वे ही कश्मीरी पंडितों की वर्तमान स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं।

इन तीन दशकों में बीजेपी, कांग्रेस और संयुक्त मोर्चा केंद्र से देश पर शासन कर चुके हैं। जिस समय कश्मीरी पंडितों का घाटी से पलायन हुआ था उस समय जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन था और दिल्ली में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी। इस सरकार का बीजेपी बाहर से समर्थन कर रही थी। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार ने 1998 से लेकर लगभग छह साल तक शासन किया। फिर 2014 से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार देश पर राज कर रही है। इसमें बीजेपी के सहयोगी दलों को भी सत्ता का लाभ मिल रहा है, लेकिन सरकार की नीतियों के निर्धारण में उनकी कोई भूमिका नहीं है। मोदी इस सरकार के सर्वेसर्वा हैं और उनके बाद गृहमंत्री अमित शाह का नंबर है।


जो लोग कश्मीरी पंडितों के मुद्दे पर हल्लागुल्ला कर रहे हैं, उनका एकमात्र उद्देश्य अपने सांप्रदायिक मंसूबों को छिपाना है। कश्मीर में जो कुछ हुआ वह निश्चित रूप से चिंताजनक और निंदनीय है, लेकिन उसके लिए भारतीय मुसलमानों को दोषी ठहराना कतई उचित नहीं है। सांप्रदायिक ताकतें कश्मीर की स्थिति के लिए अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से भारत के मुसलमानों को दोषी ठहराने का प्रयास कर रही हैं।

वर्तमान भारत सरकार ने कश्मीर के मामले में कई कदम उठाए हैं। इनमें शामिल हैं- संविधान के अनुच्छेद 370 और 35ए हटाना और कश्मीर का दर्जा राज्य से घटाकर केंद्रशासित प्रदेश करना। इन सभी कदमों से कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी की संभावना और क्षीण हो गई है, क्योंकि घाटी में घुटन भरा माहौल है और प्रजातंत्र में आस्था रखने वाले वहां के नेता पीएसए के तहत नजरबंद हैं। इस कानून के तहत इन लोगों को लंबे समय तक बिना न्यायिक समीक्षा के नजरबंद रखा जा सकता है। अभी भी घाटी में इंटरनेट सेवाएं बंद हैं और प्रजातांत्रिक अधिकारों को सीमित कर दिया गया है। जाहिर है कि इससे घाटी की किसी भी समस्या का सुलझाव और मुश्किल हो गया है।

कश्मीर की समस्या बहुत जटिल है। वहां राज्य सरकार की स्वायत्ता का दमन करने से अतिवाद फला-फूला। अतिवादियों को पाकिस्तान का समर्थन भी मिला। इस बीच घाटी में अलकायदा जैसे तत्व प्रवेश कर गए। अफगानिस्तान में रूसी सेना से निपटने के बाद वे फुर्सत में थे। उन्होंने कश्मीरियों के आंदोलन का सांप्रदायिकीकरण कर दिया। शुरूआत में कश्मीरी अतिवाद का आधार कश्मीरियत थी, जिसका इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है। कश्मीरियत तो बुद्ध और सूफी संतों की शिक्षाओं और वेदांत के मूल्यों का संश्लेषण है। कश्मीरी पंडितों की यातना का दौर अलकायदा जैसे तत्वों के घाटी में प्रवेश के बाद ही शुरू हुआ।

पंडितों के पलायन से पहले ‘गुडविल मिशन’ द्वारा उनसे घाटी में ही बने रहने का अनुरोध किया गया था। स्थानीय मुसलमानों ने भी वादा किया था कि वे पंडितों के खिलाफ दुष्प्रचार को रोकेंगे। उस समय जगमोहन, जो बाद में एनडीए सरकार में मंत्री बने, जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल थे। उन्होंने अतिवादियों के खिलाफ सघन अभियान चलाने और पंडितों को सुरक्षा देने की बजाए घाटी से उनके सामूहिक पलायन के लिए सुविधाएं उपलब्ध करवाईं। बड़ा सवाल यही है कि आखिर यह क्यों किया गया?

कश्मीरी पंडितों के मुद्दे का इस्तेमाल आरोप-प्रत्यारोप लगाने और भारतीय मुसलमानों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को कटघरे में खड़ा करने के लिए करने की बजाए इस समस्या का हल निकाले जाने की आवश्यकता है। पिछली एनडीए सरकार ने घाटी में पंडितों के लिए अलग आवासीय क्षेत्र बनाने का प्रस्ताव किया था। क्या यह इस समस्या का हल है?


पंडितों को न्याय की दरकार है। सरकार को एक न्यायिक आयोग का गठन करना चाहिए जो पंडितों के पलायन के लिए जिम्मेदार तत्वों की पहचान करे और ऐसे कानूनी कदम उठाने चाहिए जिनसे घाटी में पंडित अपने आपको सुरक्षित महसूस कर सकें। क्या पंडित ऐसे कश्मीर में लौटना पसंद करेंगे, जहां प्रजातंत्र का गला घोंटा जा रहा हो और हर नुक्कड़ पर स्वचालित हथियारों से लैस सैनिक तैनात हों? कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए कश्मीरियत को पुनर्जीवित किया जाना होगा और उनके लिए उपयुक्त सांस्कृतिक और धार्मिक माहौल तैयार करना होगा।

इस संकटग्रस्त क्षेत्र की समस्या को सुलझाने के लिए हमें प्रजातंत्र का वरण करना होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर में आतंकवादियों की हिंसा और सेना की भारी उपस्थिति के कारण घाटी छोड़ने वालों में पंडितों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में मुसलमान भी थे। ‘द टाईम्स ऑफ इंडिया’ में तत्समय प्रकाशित एक रपट के अनुसार, “जनवरी 1990 और अक्टूबर 1992 के बीच अतिवादियों ने जिन 1,585 व्यक्तियों की हत्या की थी, उनमें से 982 मुसलमान और 218 हिन्दू थे।”

कश्मीर में प्रजातंत्र का दमन करने और कश्मीर के देश में विलय के समय कश्मीरियों को स्वायत्ता देने के वादे का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन कर हम कश्मीरी पंडितों की समस्या को नहीं सुलझा सकते।

(लेख का अंग्रेजी से हिन्दी रुपांतरण अमरीश हरदेनिया द्वारा)

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