शासन-कुशासन के 4 साल: मोदी सरकार में विनाश की ‘थिसॉरस’ के खुलते गए कई पन्ने

कर्नाटक के ताज़ा प्रकरण को देख कर शक होता है कि बीजेपी के शीर्ष नेता कहीं 2019 के आम चुनावों को पार्टी का (और उससे भी ज़्यादा खुद का) विरुद बचाने की खातिर मर्यादायें ताक पर रख कर ऐसी आर-पार की लड़ाई न बना दें जिसका कर्नाटक चुनाव एक अशोभनीय पूर्वरंग भर था।

फोटो: सोशल मीडिया
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मृणाल पाण्डे

मोदी सरकार के गुज़िश्ता चार सालों की तुलना अगर किसी से की जा सकती है, तो शायद लालबहादुर शास्त्री के राज के पहले साल से। कृपया चौंकें नहीं। विदेशनीति (कच्छ के मरुस्थल) में हमारी शर्मनाक हार, हिंदी भाषा थोपे जाने के मुद्दे पर भारतीय गणराज्य से अलग होने की करारी धमकी दे रहा दक्षिणी भारत, आयातित तेल और ज़रूरी सामान पर हमारी निर्भरता, चीन की अफ्रो-एशियाई मुल्कों का दादा बनने की कोशिशें और शीर्ष नेतृत्व को खुद अपनी ही पार्टी के कुछ पुराने धाकड़ नेताओं से मिल रही तीखी चुनौती - यह सब आज के संदर्भ से भी काफी मिलते-जुलते हैं।फर्क यही है कि भारत-पाक युद्ध के सात संक्षिप्त महीनों में एक शांत, लेकिन सख्त महानायक बन कर उभरे शास्त्री जी के कार्यकाल ने उनके अंतिम महीनों को उजला कर दिया था। पर कर्नाटक के ताज़ा प्रकरण को देख कर शक होता है कि बीजेपी के शीर्ष नेता कहीं 2019 के आम चुनावों को पार्टी (और उससे भी ज़्यादा खुद अपना) का विरुद बचाने की खातिर मर्यादायें ताक पर रख कर ऐसी आर-पार की लड़ाई न बना दें जिसका कर्नाटक चुनाव एक अशोभनीय पूर्वरंग भर था।

पूर्व प्रधानमनत्री डॉ मनमोहन सिंह बहुत कम बोलते हैं, पर जब बोलते हैं तो उसे उस्ताद रजब अली खां साहेब के शब्दों में ‘बूढ़े की बड़बड़ाहट’ समझ कर अनसुनी करने की बजाय गौर से सुनना चाहिये। क्योंकि पुराने विद्वान की दिमागी गहराइयों से कभी अचानक नायाब वैचारिक मोती हाथ लग जाते हैं। याद करें, एक बार मनमोहन सिंह ने कहा था कि बीजेपी के शीर्ष नेता का प्रधानमंत्री बनना सर्वनाशी साबित होगा। क्या उनको उस भविष्य का कोई पूर्वाभास था जब उन्होने नोटबंदी को देश की खुली लूट की संज्ञा दी थी? क्या वे जता रहे थे कि अभी जनता की संपत्ति और संविधानप्रदत्त हकों की लूट की एक पूरी थिसॉरस के न जाने कितने पन्ने और खुलने हैं?

उत्तर प्रदेश के उपचुनावों और कर्नाटक चुनाव के बाद एनडीए सरकार के कार्यकाल के दो तिहाई भाग का पहले एक तिहाई से अंतर दिखने लगा है। 2014 का चुनाव लड़ते हुए और फिर शासन के पहले बरस तक बीजेपी ने अपने और संघ के अंतर्विरोधों को ओट में डाल कई नये कदम उठाते हुए पुराने राज-समाज के तमाम सोच और संस्थानों को भ्रष्ट-नाकारा बता कर नई शुरुआतों की एक ज़बरदस्त मुहिम छेड़ी थी।

स्वच्छ भारत, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ से शुरू नई वाचाल गतिशीलता कई लोगों को तब बड़ी दमदार प्रतीत हुई थी। चौदह घंटे काम करते हुए प्रधान सेवक ने मंत्रियों के साथ धुंआधार बैठकें कीं। शीर्ष नौकरशाही से विचारोत्तेजक चर्चाओं के ब्योरे जारी हुए। फिर मनरेगा नरेगा बना, योजना आयोग की जगह नीति आयोग आया, युवा बेरोज़गारों में हुनरमंदी बढ़ाने को स्किल डेवलपमेंट मंत्रालय बना। और साथ-साथ प्रधानमंत्री की विदेश यात्राओं का चित्र भी खासा रंगारंग, वाचाल और गर्मजोशी भरा बनने लगा। अपने शपथ ग्रहण समारोह में विश्वनेताओं को न्योतने के बाद लगातार विदेश यात्राएं करते हुए नये प्रधानमंत्री ने विश्व राजनय में भी काफी सुर्खियां बनवाईं। पहले राजभवनों में बंद कमरों का राजनय चलता था और अंतिम दिन संयुक्त बयान जारी होते थे। अब इन यात्राओं के दौरान बड़े-बड़े हॉल बुक कराये जाने लगे, जहां खुद प्रधानमंत्री लगभग एक करिश्माती रॉकस्टार की तरह भारतवंशियों की भावुक अभिभूत भीड़ को संबोधित सम्मोहित करते थे। विश्व मीडिया में लगातार पेश किये गये इन कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री एक एकदम नये रोल में दुनिया को ‘मेक इन इंडिया’ और भारत पर्यटन के लिये न्योतते प्रधान सेल्समैन बन कर छाये। पर दूसरी तरफ खुद भारत में मीडिया से प्रधानमंत्री जी और कैबिनेट का बेतकल्लुफ और निरंतर संवाद बंद होता गया। बेतकल्लुफ तो दूर, तकल्लुफी मुलाकातों की जगह भी मशीनी मंत्रालयी ब्रीफिंग्स या कभी- कभार सरकार के प्रशंसक चुनिंदा पत्रकारों से लगभग एकतरफा और प्रायोजित लगती मुलाकातों ने ले ली।

जब राज्य चुनाव आये तो इस संवादहीनता से उखड़े मीडिया के निडर भाग ने पूछना शुरू किया कि दल के कई अनाम प्रचारक बेरोकटोक विषैले विवादास्पद सांप्रदायिक बयानों, भड़काऊ मारपीट से वोट बैंकों का ध्रुवीकरण क्यों कर रहे थे, तो एक अजीब खामोशी (मौनं सम्मति लक्षणं?) छाई रही। फिर अचानक मीडिया में (खासकर टीवी खबरिया चैनलों में ) पुरानी संपादकीय टीमों को फेंट कर पुराने प्रश्नाकुल जन हटाये गये और नये (लगभग अनाम) संपादक रख लिये गये, जिनके संपादकीय हरचंद ठकुरसुहाती करते थे। संदेश साफ था। उत्तर प्रदेश चुनाव इस नई शैली का आईना बने। प्रचार के दौरान सत्तारूढ़ दल के उम्मीदवार को नेपथ्य में रख कर आचार्य द्रोण की तरह खुद प्रधानमंत्री ने मोर्चा संभाला और मीडिया में सरकारी विज्ञापनों पर धुंआधार खर्चीले प्रचार के साथ प्रतिपक्ष के मुख्यमंत्री उम्मीदवारों के खिलाफ जनरैलियों में (अक्सर चौंकाने वाले निजी किस्म के बारूद से बुझे) ब्रह्मशरों की झड़ी लगा दी। उत्तरप्रदेश और पूर्वोत्तर राज्यों में इस फार्मूले की धुंआधार जीत हुई तो उसके बाद वहां इसी शैली में काम करनेवाले कतिपय विस्मयकारी नेता मुख्यमंत्री तैनात हुए। अल्पसंख्यकों, युवा छात्रों, दलितों और उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को लेकर अजीब मानसिकता, व्यवहार और सरकारी मशीनरी के उपयोग का तरीका सामने आता रहा है, जिस तरह कानूनन विवादित एनकाउंटरों की सगर्व सार्वजनिक घोषणा की जा रही है, उसे देखते हुए राज्यों में लोकतांत्रिक संस्थाओं और पुलिस प्रशासन का इस्तेमाल लगातार चिंता पैदा करता है ।

फूटपरस्त प्रचार का उत्तर भारतीय फार्मूला दक्षिण में भी अपनाया गया। वहां सूखे से पीड़ित किसानों या अवैध खनन और वन कटाव के सवालों को हल करने की बजाय इन राज्यों के तमाम जातीय, सांप्रदायिक, लैंगिक और भाषायी अंतर्विरोधों को उभार कर ऐसा समुद्रमंथन किया गया कि सारा हलाहल और अमृत सतह पर आ गया! अचानक कुछ स्वघोषित रूप से जन नैतिकता के ठेकेदार बने दक्षिणपंथी दस्तों ने राज्य में खुले विचारों के पक्षधर बुद्धिजीवियों, वामपंथी छात्रों और मीडियाकर्मियों पर ही नहीं, युवा जोड़ों पर भी लगातार हमले किये। पर उनके खिलाफ भी शीर्ष से रोक-टोक की बजाय विस्मयकारी शिथिलता ही सामने आई। फिर दलितों को सरेआम अपमानित उत्पीड़ित करते हुए तलघर से निकाले कई तरह के पुराने विषाक्त जाति युद्ध उभार कर समाज के पानी में आग लगाया जाना शुरू हो गया। जब जवाब में लामबंद विपक्ष ने भी मठों, मंदिरों, मस्जिदों की मार्फत हिंदू एकजुटता का दूसरा अभियान शुरू किया तो पहले से आशंकित मुस्लिम बिरादरी और अधिक उद्वेलित हो गई। इसने सांप्रदायिकता की जो आग देश भर में भड़काई, उसके खौफनाक नतीजे हमको कर्नाटक, उत्तरप्रदेश, हरियाणा, बिहार, तेलंगाना और कश्मीर तक देखने को मिल रहे हैं। और देश की तमाम पार्टियां किसी भी कीमत पर बहुमत जुटाने को मजबूर हो रही हैं। इसका एक बड़ा खतरनाक सह-उत्पाद कई दलों में बड़े संकटमोचक ताकतवरों का वह उभार है जो चुनावों को शवसाधना और नरबलि से लैस किसी मध्यकालीन गूढ़ तांत्रिक अनुष्ठान में बदल रहा है। यह सब आम मतदाता के मन में भय और नफरत भरेगा, भविष्य के प्रति आस्था नहीं। इसी तरह चुनाव लड़े गये तो सवाल यह नहीं कि 2019 में ताज किस दल या गठजोड़ को मिलेगा, बल्कि यह है कि राष्ट्रपति भवन में जिस भी दल या गठजोड़ का राजतिलक होगा, उसे जो देश मिलेगा वह कितना शासन-काबिल (गवर्नेबल) और लोकतांत्रिक बचा होगा?

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