बिहार SIR: सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयोग का 789 पन्नों का हलफनामा, एक बड़ा झूठ और शून्य विदेशी

बिहार में वोटर लिस्ट का एसआईआर इस आधार पर किया गया कि वहां बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठिए वोटर बन बैठे हैं। लेकिन क्या ऐसा है। चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में जो शपथ पत्र दिया था, उसमें विदेशी घुसपैठियों के बारे में क्या लिखा गया है? एक शब्द भी नहीं।

चुनाव आयोग द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल शपथ पत्र में बिहार में एक भी विदेशी वोटर न मिलने की बात कही गई है
चुनाव आयोग द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल शपथ पत्र में बिहार में एक भी विदेशी वोटर न मिलने की बात कही गई है
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योगेंद्र यादव

वैसे तो हमारे देश में शिगूफों की कोई कमी नहीं रही है। लेकिन पिछले 10 साल में तो जैसे शिगूफे खिलाना एक राष्ट्रीय व्यवसाय हो गया है। आपको कोविड का दौर याद है? लॉकडाउन की शुरुआत में ही दिल्ली के निजामुद्दीन मरकज़ में तबलीग़ी जमात के एक सम्मेलन से कोविड फैलाने की अफवाह चली थी। सरकारी और दरबारी हर स्रोत से खूब शिगूफे खिलाए गए थे। अच्छे-अच्छे इस खबर का शिकार हो गए थे। फिर पांच साल बाद इस महीने अदालत का फ़ैसला आया कि सारी बात कोरी गप्प थी। पुलिस की चार्जशीट में कोविड का जिक्र भी नहीं था। लेकिन तब तक किसे परवाह थी। खेल खत्म हो चुका था, टीआरपी हजम हो चुकी थी।

ठीक इसी तर्ज पर अब बांग्लादेशी वोटरों का शिगूफा खिलाया जा रहा है। झारखंड के चुनाव में बीजेपी के प्रभारी हेमंत बिस्वा सरमा ने खूब खुलकर बांग्लादेशी वोटर का कार्ड खेला। चला नहीं। किसी को खोजने पर भी झारखंड में बांग्लादेशी नहीं मिलता था। यही खेल रोहिंग्या के नाम पर दिल्ली विधानसभा चुनाव में हुआ। पिछले हफ्ते यही खेल हरियाणा के गुड़गांव में खेल गया। पता लगा कि पुलिस की इस मुहिम के शिकार हुए लगभग सभी लोग बांग्लाभाषी भारतीय नागरिक थे, गरीब थे, मजदूरी कर अपना पेट पालते थे।

अब यही खेल बड़े पैमाने पर बिहार में खेला जा रहा है। जब से बिहार में वोटर लिस्ट के गहन पुनरीक्षण (एस आई आर) की शुरुआत हुई है, तब से मीडिया में यह अभियान चल रहा है कि इस पुनरीक्षण का असली उद्देश्य बिहार में विदेशी नागरिकों की पहचान कर वहां की वोटर लिस्ट में घुसे बांग्लादेशी और म्यांमार के नागरिकों को बाहर निकालना है।

बिहार के पूर्वोत्तर में पूर्णिया कमिश्नरी में चार जिले हैं — पूर्णिया, कटिहार, अररिया और किशनगंज। एक तरफ नेपाल और दूसरी तरफ बंगाल से सटे इस क्षेत्र को सीमांचल कहा जाता है। यहां मुस्लिम जनसंख्या बाकी बिहार से बहुत ज्यादा है। कुछ इलाकों में मुस्लिम बहुमत भी है। पिछले कई हफ्ते से चुनाव आयोग के “सूत्रों” के हवाले से यह दावा किया जा रहा है कि वोटर लिस्ट के पुनरीक्षण का काम दरअसल सीमांचल क्षेत्र में बड़े पैमाने पर बांग्लादेशी घुसपैठियों को निकालना है।

वैसे, यह पूछा जाना चाहिए था कि सिर्फ चार जिलों के कुछ घुसपैठियों को खोज निकालने के लिए पूरे बिहार के करीब आठ करोड़ मतदाताओं को परेशान करने की क्या जरूरत थी? चुनाव आयोग के पास अधिकार है कि वह चंद जिलों या तहसीलों की वोटर लिस्ट का पुनरीक्षण कर सकता है। वह क्यों नहीं किया? पूछा यह भी जाना चाहिए था की पिछले 11 वर्ष से इस देश की सरकार कौन चला रहा है? अगर अब भी वोटर लिस्ट में धांधली है, तो जिम्मेदारी किसकी है?


खैर, इस सब तर्क-कुतर्क को छोड़ कर ठंडे दिमाग से इस सवाल पर विचार करें, ताकि दिन रात खिलाए जाने वाले शिगूफों से बच सकें। सबसे पहले तो बिहार का नक्शा देखिए और पूछिए कि बिहार में अगर अवैध विदेशी घुसेंगे, तो कहां से आएंगे? पलक झपकते ही आप जान जाएंगे कि बिहार की सीमा बांग्लादेश से नहीं, नेपाल से मिलती है। बेशक सीमांचल से बांग्लादेश बहुत दूर नहीं है, और वहां से आवाजाही असंभव नहीं है। लेकिन नेपाल से तो कोई तुलना ही नहीं हो सकती।

बिहार के सात जिले की 726 किलोमीटर की सीमा नेपाल से लगती है। भारत नेपाल बॉर्डर अभी भी खुला है और नेपाल के नागरिकों को भारत में बिना वीजा के घुसने और रहने का अधिकार है। दोनों तरफ रोटी-बेटी का संबंध है। नेपाल की लाखों बेटियां भारतीय बहू हैं और बरसों से वोट दे रही हैं। जरा सोचिए, अवैध विदेशियों की सारी चर्चा बांग्लादेश की क्यों है, नेपाल की क्यों नहीं? चिंता विदेशी की है या मुसलमान की?

नक्शे को छोड़िए, आर्थिक स्थिति देख लीजिए। पिछले दो दशक में बांग्लादेश की स्थिति बदल गई है। वर्ष 2024 में बिहार की प्रति व्यक्ति मासिक आय सिर्फ 5,570 रुपये थी। सीमांचल के जिलों में उससे भी कम रही होगी। उसी वर्ष बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति मासिक आय 19,200 भारतीय रुपये के बराबर थी, यानी बिहार से कोई चार गुना ज्यादा। दुनिया भर में लोग बदहाली से बचने के लिए खुशहाल इलाकों में जाते हैं। आप जरा सोचिए, किसी बांग्लादेशी की मत मारी गई होगी की वह अपना घर और देश छोड़कर जोखिम उठाकर अपने यहां से बदहाली की स्थिति में जीने के लिए बिहार आए?

अब आइए व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी पर। आपने सुना होगा कि बिहार के इन चार मुस्लिम बहुल जिलों में आबादी से भी अधिक आधार कार्ड बने हैं, यानी कुछ विदेशी घुसपैठियों ने बनवाए हैं। इसकी सचाई जांचने के लिए आप आधार अथॉरिटी की वेबसाइट देख लीजिए। चार जिलों में नहीं, बिहार के 38 में से 37 जिलों में कुल जारी हुए आधार कार्ड की संख्या अनुमानित आबादी से ज्यादा है। यहीं नहीं, पूरे देश में अनुमानित आबादी 151 करोड़ है और आधार 142 करोड़ हैं, और इसका किसी घुसपैठिये या विदेशी से कोई लेना-देना नहीं हैं। इसका कारण है कि इन आधार की संख्या में से कोई एक दहाई मृत लोगों के नाम हैं। यानी यह शुद्ध शिगूफा है।

अब सीधे वोटर लिस्ट की बात कर लें। संसद में एक प्रश्न का जवाब देते हुए 10 जुलाई 2019 को सरकार ने बताया था कि पिछले तीन वर्ष में चुनाव आयोग को पूरे देश में वोटर लिस्ट पर सिर्फ तीन विदेशी नागरिक मिले थे — एक गुजरात, एक बंगाल और एक तेलंगाना में। इस वर्ष जनवरी में बिहार की वोटर लिस्ट का जो परीक्षण पूरा हुआ, उसके बाद चुनाव आयोग ने बिहार के जिलेवार वोटर और जनसंख्या के आंकड़े जारी किए। सीमांचल के चार जिलों की स्थिति बाकी बिहार से बिल्कुल भी अलग नहीं थी।


छह महीना पहले हुए उस परीक्षण में चुनाव आयोग को बिहार में एक भी विदेशी नागरिक होने का प्रमाण नहीं मिला। एक नाम भी नहीं कटा।
और हां, चार हफ्ते तक बिहार में बांग्लादेशी घुसपैठियों की भरमार का प्रचार होने के बाद चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष गहन पुनरीक्षण के बारे में 789 पेज का हलफनामा दायर किया है।

आप जानना चाहेंगे, उसमें विदेशी घुसपैठियों के बारे में क्या लिखा गया है? एक शब्द भी नहीं। एक महीने की कवायद पूरी होने के बाद चुनाव आयोग ने 7 करोड़ 89 लाख लोगों के आंकड़े जारी किए हैं — जिनके फॉर्म भरे गए, जो मर गए, जो अन्य राज्य में चले गए, जो डुप्लीकेट हैं, जिनका अता-पता नहीं। आप जानना चाहेंगे, इनमें विदेशी घुसपैठियों की संख्या कितनी है? शून्य!
इसे कहते हैं शिगूफा!