न्यायाधीश के लिए तरसता एक मामला और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों का दर्द

अब तक 16 न्यायाधीशों ने भारतीय वन सेवा के अधिकारी और मैगसायसाय पुरस्कार विजेता संजीव चतुर्वेदी से संबंधित मामलों की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया है। आमतौर पर न्यायाधीश उन मामलों से खुद को अलग कर लेते हैं जब वे याचिकाकर्ता को व्यक्तिगत रूप से जानते हों या वे पहले उस मामले से निपट चुके हों।

फोटो: सोशल मीडिया
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रश्मि सहगल

सुप्रीम कोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन लोकुर को अपना आश्चर्य छिपाना मुश्किल लग रहा है। उन्होंने हैरानी जताई कि 'यह अभूतपूर्व है कि इतनी बड़ी संख्या में न्यायाधीशों ने मामले से खुद को अलग कर लिया। इन मामलों को पंजाब, दिल्ली या किसी अन्य उच्च न्यायालय में स्थानांतरित कर देना चाहिए। अगर यही स्थिति बनी रही और देश का कोई भी न्यायाधीश इन मामलों को देखना ही नहीं चाहता, तो फिर किसी को न्याय कैसे मिलेगा।'

वह उन खबरों पर प्रतिक्रिया दे रहे थे जिनमें कहा गया था कि अब तक 16 न्यायाधीशों ने भारतीय वन सेवा के अधिकारी और मैगसायसाय पुरस्कार विजेता संजीव चतुर्वेदी से संबंधित मामलों की सुनवाई से खुद को अलग कर लिया है। कुल मिलाकर, सर्वोच्च न्यायालय के दो और उच्च न्यायालय के चार न्यायाधीशों, निचली अदालत के दो न्यायाधीशों और केन्द्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण के आठ सदस्यों ने बिना यह बताए इन मामलों से खुद को अलग कर लिया है कि वे इन मामलों की सुनवाई या निर्णय क्यों नहीं करना चाहते।

इन मामलों पर नजर रखने वाले वकीलों का कहना है कि सबसे पुराना मामला 2013 का है, जब चतुर्वेदी ने सीधे सुप्रीम कोर्ट का रुखकर आरोप लगाया था कि हरियाणा के मुख्यमंत्री और वन मंत्री उन्हें परेशान कर रहे हैं। सबसे ताजा मामला तब का है जब उत्तराखंड उच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीश न्यायमूर्ति आलोक वर्मा ने चतुर्वेदी द्वारा दायर अवमानना मामले से खुद को अलग कर लिया जिसमें उन्होंने उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए स्थगन आदेश की कैट के सदस्यों और रजिस्ट्री द्वारा 'जानबूझकर अवज्ञा' को चुनौती दी थी। इसके बाद अफवाह उड़ी कि चतुर्वेदी को कैट से दोषी ठहराया जाएगा। सौभाग्य से, उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जी. नरेन्द्र ने हस्तक्षेप कर मामले को 30 अक्टूबर तक के लिए स्थगित कर दिया।

चतुर्वेदी से जुड़े मामलों में इस साल यह छठी न्यायिक सुनवाई थी। इसमें फरवरी 2025 में कैट के दो न्यायाधीशों- हरविंदर ओबराय और बी आनंद द्वारा सुनवाई से नाम वापस लेना भी शामिल है। ये तत्कालीन केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्डा और फिर अप्रैल 2025 में अतिरिक्त मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नेहा कुशवाहा द्वारा चतुर्वेदी की वार्षिक कार्य निष्पादन रिपोर्ट को कथित रूप से कमतर आंकने से संबंधित एक महत्वपूर्ण मामले की सुनवाई कर रहे थे।

वकील और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण कहते हैं कि 'मैं इन मामलों पर टिप्पणी नहीं कर सकता क्योंकि मुझे इनके विवरण की जानकारी नहीं है। लेकिन वह वरिष्ठ अधिकारी हैं जो निडर हैं और सत्ता प्रतिष्ठान से लोहा लेने को तैयार हैं।' आईएफएस अधिकारियों के बीच चतुर्वेदी के प्रशंसक इस बात पर सहमत हैं कि वह घोटालों को उजागर करने से नहीं डरते, भले ही उनमें बड़े और ताकतवर लोग शामिल हों; न ही वह यह सवाल उठाने से डरते हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता वाली कैबिनेट की नियुक्ति समिति जिसमें गृह मंत्री अमित शाह दूसरे नंबर पर हैं, उन्हें संयुक्त सचिव के पद के लिए क्यों नहीं चुन पाई। इस चूक को चुनौती देने वाली उनकी याचिका कैट में लंबित है।

वन संरक्षक के पद से सेवानिवृत्त हुए हरियाणा कैडर के डॉ. आरपी बलवान को भी शक्तिशाली राजनेता-नौकरशाह गठजोड़ का शिकार होना पड़ा है। वह कहते हैं, 'जब कोई जंगल बचाने की कोशिश करता है, तो भ्रष्ट वनपालों और भ्रष्ट राजनेताओं- दोनों से टकराव होना तय है। यह अपरिहार्य है।' बलवान ने सेवानिवृत्ति के बाद 'करप्शन इन ब्यूरोक्रेसी- इनसाइड स्टोरीज' शीर्षक से पुस्तक लिखकर हमारे राजनीतिक वर्ग की पोल खोल दी। बलवान ने कहा कि 'चतुर्वेदी एकमात्र अधिकारी हैं जिन्होंने बाहरी लोगों को वरिष्ठ स्तर पर सेवाओं में शामिल होने की अनुमति देकर उन्हें लैटरल एंट्री देने के मोदी के फैसले के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है। यह फैसला बेहद संदिग्ध है क्योंकि हमारे पास पहले से ही अनुभवी सेवारत अधिकारियों का एक उत्कृष्ट कैडर है, जो सेवाओं में उचित पदोन्नति का लाभ नहीं उठा पाते क्योंकि वरिष्ठ स्तर के पद बाहरी लोगों को दिए जा रहे हैं।'

प्रमुख आपराधिक वकील रजत कात्याल बताते हैं कि आमतौर पर न्यायाधीश उन मामलों से खुद को अलग कर लेते हैं जब वे याचिकाकर्ता को व्यक्तिगत रूप से जानते हों या वे पहले उस मामले से निपट चुके हों। कात्याल ने कहा, 'लेकिन इस (चतुर्वेदी के) मामले में ऐसा कुछ नहीं दिखता।' एक अन्य वकील ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि 'जब किसी मामले में इतने सारे उच्च पदस्थ अधिकारी अलग हो जाते हैं, तो स्वाभाविक रूप से अंतिम निर्णय की प्रक्रिया को लेकर चिंताएं पैदा होती हैं।'

सेवानिवृत्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक प्रकृति श्रीवास्तव का किस्सा तनिक अंतर के साथ चतुर्वेदी-जैसा ही है। वह बताती हैं कि 'जब मुझे केन्द्र में डीआईजी (वन्यजीव) के रूप में तैनात किया गया था, मैंने कई भ्रष्ट प्रथाओं के खिलाफ आवाज उठाई थी। मुझे जानबूझकर दरकिनार कर दिया गया और तीन महीने तक कोई पोर्टफोलियो नहीं दिया गया। (चतुर्वेदी और उनके बीच) एकमात्र अंतर यह है कि मैं अदालत नहीं गई।' श्रीवास्तव ने तब अपने कैडर में लौटने का फैसला किया, यह जानते हुए भी कि सबसे वरिष्ठ अधिकारी होने के बावजूद छह कनिष्ठों को उनसे ऊपर पदोन्नत किया गया है।

चतुर्वेदी नौकरशाही से टकराव मोल लेने वाले पहले सिविल सेवक नहीं हैं, लेकिन वह शायद सबसे ज्यादा चर्चित लोगों में से एक हैं क्योंकि वह कैबिनेट सचिव, सीबीआई और आईबी अधिकारियों समेत वरिष्ठ नौकरशाहों और राजनेताओं के फैसलों पर सवाल उठाने से नहीं डरते।

स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए मार्च

सेना के सेवानिवृत्त जवान भुवन कठायत उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं की दयनीय स्थिति को उजागर करने के लिए अल्मोड़ा जिले के चौखुटिया गांव से ग्रीष्मकालीन राजधानी गैरसैंण होते हुए देहरादून तक 300 किलोमीटर लंबी पदयात्रा का नेतृत्व कर रहे हैं। उन्होंने नवंबर के तीसरे हफ्ते में इस यात्रा पर निकलते हुए घोषणा की कि 'हम सिर्फ चौखुटिया के लिए ही नहीं, बल्कि आम जनता के लिए भी मार्च कर रहे हैं, जो चिकित्सा सुविधाओं और स्वास्थ्य सेवा की कमी से जूझ रही है।' पदयात्रा ने गति पकड़ ली है और चमोली तथा हल्द्वानी से भी बड़ी संख्या में ग्रामीण इसमें शामिल हो रहे हैं।

आंदोलन की शुरुआत 2 अक्टूबर को चौखटिया के सैकड़ों निवासियों द्वारा स्थानीय सामुदायिक केन्द्र (एलसीसी) के बाहर भूख हड़ताल के साथ हुई थी। उन्होंने आधुनिक उपकरण लगाने और महिलाओं एवं बच्चों की देखभाल के लिए स्त्री रोग विशेषज्ञ और बाल रोग विशेषज्ञ की नियुक्ति की मांग की थी। लोगों ने अपना विरोध दर्ज कराने के लिए पूरा दिन गांव के पास बहने वाली रामगंगा नदी में खड़े होकर बिताया।

इससे घबराए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने अल्मोड़ा जिला अस्पताल से दो डॉक्टरों- बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. मनीष पंत और स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. कृतिका भंडारी को एलसीसी में तैनात करने का आदेश दिया। लेकिन यह आदेश आखिरी समय में रद्द कर दिया गया क्योंकि पहले से ही डॉक्टरों की कमी से जूझ रहे अल्मोड़ा अस्पताल में इससे और ज्यादा कमी हो जाती। राज्य के स्वास्थ्य सचिव डॉ. आर. राजेश कुमार ने दावा किया कि चौखुटिया एलसीसी के लिए एक और बाल रोग विशेषज्ञ और स्त्री रोग विशेषज्ञ की नियुक्ति की व्यवस्था की जा रही है। लेकिन ग्रामीण इस घोषणा पर संदेह कर रहे हैं क्योंकि पहले भी ऐसी ही घोषणाएं सुनी जा चुकी हैं।

धामी के दुःख का प्याला इसलिए उमड़ा क्योंकि 25 अक्टूबर को ग्राम पंचायत सैम बसर निवासी 22 वर्षीय रवीना कैथैत की प्रसवोत्तर जटिलताओं के कारण मृत्यु हो गई। उन्हें पिलखी के सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र में भर्ती कराया गया था और उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया था, लेकिन उसी रात उन्हें सांस लेने में तकलीफ होने लगी। इसके बाद उन्हें श्रीनगर बेस अस्पताल रेफर कर दिया गया। उनके परिवार वाले उन्हें वहां ले गए, लेकिन अगले दिन उनकी मृत्यु हो गई। अस्पताल अधीक्षक डॉ. राकेश रावत का कहना था कि उनका पहले भी स्वास्थ्य संबंधी इतिहास रहा है और आठ साल पहले उनकी हृदय संबंधी सर्जरी हुई थी। लेकिन प्रदर्शनकारी निवासी पिलखी सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र को उप-जिला स्तरीय इकाई में अपग्रेड करने की मांग कर रहे हैं ताकि आपात स्थिति में मरीजों को दूसरे अस्पतालों में रेफर न किया जाए। एक नाराज निवासी ने बताया कि इसी साल सितंबर में एक 28 वर्षीय महिला को पिलखी से देहरादून रेफर किया गया था, लेकिन रास्ते में ही उनकी मौत हो गई।