खरी-खरी: यूनीफार्म सिविल कोड और मुस्लिम नेतृत्व का सतर्क रवैया

मुस्लिम नेतृत्व ने लंबे समय के बाद कुछ समझदारी की बात की है क्योंकि भावुक मुस्लिम राजनीति से केवल मुस्लिम समाज ही नहीं, देश को भी बड़ा नुकसान पहुंचा है।

बकरीद के मौके पर दिल्ली की जामा मस्जिद में ईद की मनाज अदा करने के लिए भारी तादाद में लोग जमा हुए (फोटो - विपिन)
बकरीद के मौके पर दिल्ली की जामा मस्जिद में ईद की मनाज अदा करने के लिए भारी तादाद में लोग जमा हुए (फोटो - विपिन)
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ज़फ़र आग़ा

पता नहीं कि रातों-रात सद्बुद्धि आ गई या हालात ने मजबूर कर दिया। लेकिन बदलाव निःसंदेह चौंकाने वाला है क्योंकि यह परिवर्तन पिछले लगभग तीन दशकों में पहली बार नजर आया है। यहां बात हो रही है एक बड़ी मुस्लिम संस्था के अध्यक्ष के एक महत्वपूर्ण बयान की। उन्होंने अभी कुछ दिन पहले एक अहम बयान में मुस्लिम समुदाय को राय दी कि यूनिफॉर्म सिविल कोड के मुद्दे पर मुसलमान को अकेले सड़कों पर नहीं उतरना चाहिए। उनका तर्क था कि 'यूनिफॉर्म सिविल कोड ऐसा मामला है जिसका सीधा संबंध हर धर्म से है। इसलिए इस मामले पर केवल मुसलमानों को अकेले सड़कों पर नहीं उतरना चाहिए।'

उन धार्मिक गुरु के इस बयान के बाद उससे भी चौंकाने वाली बात यह थी कि उसके तुरंत बाद मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने भी यूनिफॉर्म सिविल कोड मामले पर लगभग यही रुख अपनाया। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का यूनिफॉर्म सिविल कोड मामले पर यह फैसला था कि वह इसका विरोध करेगा लेकिन इस मुद्दे पर सड़कों पर कोई धरना-प्रदर्शन नहीं करेगा। 

मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का यह फैसला पिछले लगभग 30 वर्षों में पहला फैसला था जिसमें मुस्लिम समाज को जोश नहीं होश से काम लेने की राय दी गई। सच तो यह है कि वह बोर्ड हो या अन्य मुस्लिम संगठन- सभी न जाने कब से हर मुस्लिम धार्मिक मामले पर बगैर सोचे-समझे जज्बाती फैसले लेते रहे हैं। तथाकथित मुस्लिम नेतृत्व को यह बात समझ में ही नहीं आती थी कि हिन्दुत्व शक्तियों की रणनीति ही यही होती है कि पहले मुस्लिम समाज को धार्मिक मुद्दों पर घेरो ताकि उनको यह प्रतीत हो कि ‘इस्लाम खतरे में है’ और वह जज्बाती होकर ‘नारा ए तकबीर’ जैसे धार्मिक नारों के साथ सड़कों पर उतर पड़े। ऐसा हुआ नहीं कि संघ सफल हो जाता है।

वह सन 1985 में शाहबानो मुद्दा रहा हो अथवा सन 1986 में बाबरी मस्जिद का ताला खुलने के बाद राम मंदिर निर्माण की बात।। अगर आप उस समय से नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने तक मुस्लिम तहरीकों (मुस्लिम आंदोलनों) का विश्लेषण करें, तो यह साफ नजर आएगा कि पिछले तीन दशकों से अधिक के समय में मुस्लिम नेतृत्व की रणनीति से हिन्दुत्ववादी शक्तियों को ताकत मिली और मुस्लिम समाज केवल नुकसान में रहा।


तीन तलाक का मुद्दा हो या बाबरी मस्जिद की समस्या- दोनों ही समय मुस्लिम समाज की बड़ी-बड़ी रैलियों को बहुत करीब से देखा है। मुस्लिम नेता इन दोनों के संरक्षण के लिए अपनी ‘जान की कुर्बानी करने’ को तैयार होते थे। स्पष्ट है कि जब नेतृत्व ऐसी बातें करेगा, तो भावुक मुस्लिम भीड़ और ही उत्तेजित होगी। बस फिर तो नारा ए तकबीर, अल्लाहू अकबर और ले के रहेंगे बाबरी मस्जिद जैसे नारों से मुस्लिम रैलियां गूंज उठती थीं।

सुनते हैं, सन 1947 में पाकिस्तान तहरीक के समय भी ‘लेकर रहेंगे पाकिस्तान’ जैसे ही नारे लगते थे। इसका अंजाम क्या हुआ? भारतीय मुस्लिम समाज पाकिस्तान का बोझ आज भी ढो रहा है। ऐसा ही कुछ बाबरी मस्जिद मुद्दे पर हुआ। जब पहले मुसलमान भावुक नारों के साथ निकला, तो फिर प्रतिक्रिया में हिन्दू समाज भी राम मंदिर निर्माण के लिए ‘जय श्रीराम’ के नारों के साथ उतरा। इसका परिणाम क्या हुआ, सभी जानते हैं। सारांश यह कि ऐसी भावुक मुस्लिम राजनीति से घाटा केवल मुस्लिम समाज का हुआ और हिन्दुत्व शक्तियां न केवल मजबूत हुईं बल्कि पिछले दस वर्षों में भारत लगभग हिन्दू राष्ट्र का स्वरूप ले चुका है।

वास्तव में बीजेपी की रणनीति ही यही रही कि मुस्लिम समाज को धार्मिक मुद्दे पर छेड़ो ताकि वह पहले भावुक होकर सड़कों पर निकले। स्पष्ट है कि जब मुस्लिम समाज बाबरी मस्जिद के लिए जान देने की बात करेगा, तो हिन्दू समाज को यह महसूस होगा कि मुसलमान तो विरोधी और हिन्दू दुश्मन हैं। बस इस प्रकार संघ मुस्लिम समाज को हिन्दू दुश्मन की छवि देने में सफल हो गया। संघ को उसकी राजनीति चमकाने के लिए जो हिन्दू समाज का ‘दुश्मन’ चाहिए था, मुस्लिम नेतृत्व ने अपनी गलतियों से वह हिन्दू ‘दुश्मन’ दे दिया।

सच तो यह है कि जो काम देश का विभाजन 1947 में नहीं कर सका, शाहबानो प्रकरण, तीन तलाक और बाबरी मस्जिद आंदोलन ने वह काम संघ के लिए सफल बना दिया। बस फिर क्या था। बीजेपी हिन्दू संरक्षक का रूप लेकर देश की सबसे बड़ी ताकत बन गई। इस प्रकार बात सन 1985 से अब तक हिन्दू राष्ट्र तक पहुंच गई। 

जब कोई समाज लंबे समय तक पिटने लगता है, तो फिर उसकी भी आंखें खुलने लगती हैं। सन 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद मुस्लिम समाज की जो दुर्गति बनी, उससे समाज को होश आने लगा।


अब यह स्पष्ट था कि यदि मुसलमान ने अभी भी वही भावुक सड़कों की राजनीति की, तो वह कहीं का नहीं रहेगा। इसका परिणाम यह हुआ कि भावुक नेतृत्व (जिसमें बड़ी संख्या धार्मिक उलेमा की है) समाज में अपनी जमीन खोने लगा क्योंकि बाबरी मस्जिद और तीन तलाक मुद्दों पर समाज को ऐसे नेतृत्व के कारण जो नुकसान हुआ, वह अब स्पष्ट था। इसलिए मुस्लिम भीड़ अब ऐसे नेतृत्व से कतराने लगी है। नेता तो जनता से कहीं अधिक चतुर होते हैं। मुस्लिम समाज का मूड भांप कर अब उसी नेतृत्व ने अपना चोला बदलना शुरू कर दिया और समाज को यह राय देने लगे कि सड़कों से दूर रहें। 

चलिए, कुछ भी हो, मुस्लिम नेतृत्व ने लंबे समय के बाद कुछ समझदारी की बात की है क्योंकि भावुक मुस्लिम राजनीति से केवल मुस्लिम समाज ही नहीं, देश को भी बड़ा नुकसान पहुंचा है। अब वह यूनिफॉर्म सिविल कोड हो या कोई दूसरा मुस्लिम धार्मिक मुद्दा, मुस्लिम समाज के पास सब्र और संयम के अलावा कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है। यह बात मुस्लिम भीड़ को पहले समझ में आ गई। उसी दबाव में अब नेतृत्व भी बदलने लगा। 

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