ओडिशा रेल दुर्घटना का एक सप्ताह: बदलने होंगे ट्रेनें चलाने के तौर-तरीके, तभी पटरी छोड़कर नहीं भागेगी रेल
बालासोर ट्रेन दुर्घटना को एक सप्ताह हो गया। जांच सीबीआई के पास है जो दुर्घटना के असली कारण का पता लगाएगी। कारण कोई भी सामने आए, लेकिन अगर गहराई से देखें तो जिस तौर-तरीके से ट्रेनें चलाई जा रही हैं, उससे बालासोर जैसी दुर्घटनाओं की आशंका हमेशा बनी रहेगी।
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भारतीय रेलवे दुनिया में कुछ सबसे धीमी गति वाली ट्रेनें चलाती है और इसके सुरक्षा रिकॉर्ड की तुलना तंजानिया, नाइजीरिया या पाकिस्तान से की जा सकती है। लेकिन आपने कभी सोचा कि भारत में प्रमुख ट्रेन दुर्घटनाएं पूर्वी राज्यों में ही क्यों होती हैं? ओडीशा के बालासोर में 2 जून को हुई एक और दुर्घटना को लेकर कई संभावित कारणों पर चर्चा हो रही है जिनमें सिग्नल के ऐन मौके पर धोखा दे देने, रखरखाव करने वाले कर्मचारियों द्वारा 'शॉर्ट कट' अपनाने, कोताही या बेरुखी या तोड़फोड़ के खयाल से आपराधिक काम को अंजाम देने तक की भी बातें की गई हैं।
लेकिन जिस एक चीज पर बात नहीं हो रही है, वह है हावड़ा-चेन्नई लाइन पर चलने वाली रेलगाड़ियों की अत्यधिक संख्या की। यह दुर्घटना इसी लाइन पर हुई है। भले ही अभी इसे प्रमाण न माना जाए, पर दुर्घटना स्थल पर मेन्टिनेंस कर्मचारियों पर काम के अत्यधिक बोझ की वजह से असावधानी की आशंका के काफी संकेत तो मिले ही हैं। असावधानी या लापरवाही की कई वजहें हो सकती हैं जिनमें काम करने वालों की संख्या में कमी की वजह से थकान भी हो सकती है। असावधानी या लापरवाही की ओर इंगित करना अच्छा है लेकिन इसकी वजहों की तह तक पहुंचना ज्यादा जरूरी है। खबरें हैं कि रेलवे में करीब 3,00,000 रिक्तियां हैं और इन पदों की चौंकाने वाली संख्या रेलवे सुरक्षा, मेन्टिनेंस और सिग्नलिंग से सीधे संबंधित हैं।
रेलवे के ट्रंक रूटों पर गाड़ियों की बहुत अधिक भीड़भाड़ है। पूर्वी क्षेत्र में यात्री और मालगाड़ियों- दोनों की संख्या काफी अधिक है। भीड़भाड़ (कन्जेशन) तब होती है जब किसी खास रेलवे लाइन में ट्रेनों की संख्या उसकी क्षमता से 90 प्रतिशत से अधिक होती है। पटरियों का आदर्श क्षमता उपयोग लगभग 70 प्रतिशत है लेकिन रेलवे द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, लगभग 10,000 किलोमीटर के ट्रंक रूटों पर पटरियां क्षमता का 125 प्रतिशत तक वहन कर रही हैं।
इसलिए हमें जरूरत है नई रेलवे लाइनों की। सरकार जिस तरह हाईवे के बगल में एक्सप्रेस-वे बनाने में व्यस्त है, रेलवे को इस प्रकार के कन्जेशन से निबटने के लिए और ज्यादा रेलवे लाइनों की जरूरत है। कन्जेशन का सबसे अधिक स्वाभाविक असर रेल लाइनों की देखभाल पर पड़ रहा है। आदर्श स्थिति तो यह है कि रेल लाइनों को निरीक्षण और मेन्टिनेंस के लिए दो से छह घंटे तक बंद रखा जाए। लेकिन गाड़ियों की भीड़भाड़ की वजह से इस किस्म की अवधि कतई संभव नहीं होती। ऐसे में, जल्दी-जल्दी में हुए निरीक्षण और मेन्टिनेंस के परिणामों के बारे में कोई भी आसानी से कल्पना कर सकता है।
रेलगाड़ियों की बहुत अधिक भीड़भाड़ इनकी गति धीमी कर देती है और परिणामतः वे देर से आती-जाती हैं। बालासोर दुर्घटना के बाद कोरोमंडल एक्सप्रेस जब दोबारा चलनी शुरू हुई, तो उसे शालीमार से दुर्घटनास्थल तक पहुंचने में दो घंटे अतिरिक्त लगे। यात्रियों ने बताया कि बगल की रेललाइन पर जब भी कोई ट्रेन दूसरी दिशा से नजदीक आने लगती, कोरोमंडल एक्सप्रेस हर बार रुक जाती। दरअसल, लोको पायलट काफी सतर्क थे।
कन्जेशन न सिर्फ रेल पटरियों की जांच-पड़ताल के लिए समय मुहैया नहीं कराने देता बल्कि इससे सिग्नल, ऊपर से दौड़ रही बिजली सप्लाई आदि-जैसे अन्य लाइन इन्फ्रास्ट्रक्चर और नित्य होने वाली तथा फौरी मरम्मत एवं देखभाल के लिए भी समय नहीं निकल पाता।
अगर ट्रेनें देर से आती-जाती हैं, तो यह सामान्य बात होती है जिसका परिणाम यह है कि समय के पालन में गिरावट आती है। चूंकि अधिकारी और कर्मचारी फायर-फाइटिंग तरीके से काम करते हैं, वे तनाव में होते हैं। ट्रेन ड्राइवर, गार्ड, स्टेशन मास्टर, ट्रैकमेन आदि अतिरिक्त समय तक काम करते हैं। साफ-सफाई पर भी इसका असर होता है क्योंकि ट्रेन अगले स्टेशन या अगली ट्रिप पर जाए, उससे पहले साफ-सफाई करने के लिए टर्मिनलों पर पर्याप्त समय नहीं मिल पाता। लेकिन सबसे खराब असर सुरक्षा पर पड़ता है।
ट्रेनों में क्षमता से अधिक यात्रियों की संख्या का दुर्घटनाओं के बाद राहत और बचाव कार्य पर असर पड़ता है। इससे लोगों की जान ज्यादा संख्या में जाती है; घायलों को समय पर उचित मदद नहीं मिल पाती; गिरे हुए और कुचल गए डिब्बों के नीचे फंसे यात्रियों को बाहर निकालने के राहत कार्यों में भी देर होती है। अधिकतर दुर्घटनाओं, बल्कि बालासोर में भी, जनरल कोचों और स्लीपर कोचों में क्षमता से अधिक संख्या में यात्रा कर रहे लोगों को ज्यादा गंभीर चोटों का शिकार होना पड़ा। यह भी उल्लेखनीय है कि कोरोमंडल एक्सप्रेस के पलट गए डिब्बों से टकराने वाली यशवंतपुर-हावड़ा सुपरफास्ट एक्सप्रेस भी करीब दो घंटे देर से चल रही थी।
पटरियों पर क्षमता से कहीं अधिक गाड़ियों की संख्या का मुद्दा रेलवे बोर्ड भी बार-बार उठाता रहा है लेकिन किसी भी सरकार ने इस किस्म की बेचैनी पर तवज्जो नहीं दी; और ट्रंक रूटों पर गाड़ियों की लगातार बढ़ती भीड़भाड़ के प्रमाण के बावजूद यहां भी नई रेललाइनों को प्रभावी तरीके से नहीं जोड़ा गया। स्थिति इतनी विषम है कि हम ऐसी अस्थिर हालत में हैं कि न तो यात्री और न मालभाड़ा ट्रैफिक की मांग पूरी की जा रही है। मुख्य ट्रंक रूटों पर गाड़ियों की बहुत अधिक भीड़भाड़ रेलवे के पूरे सुरक्षा रिकॉर्ड के लिए प्रमुख चिंताओं में एक है।
जापान, चीन, तुर्की-जैसी विकसित रेल व्यवस्थाओं और फ्रांस, स्पेन, जर्मनी, इटली, स्वीडेन और ब्रिटेन-जैसे यूरोपीय देशों में यात्री रेलगाड़ियों की दुर्घटनाएं बहुत ही इक्का-दुक्का होती हैं। इन देशों में रेलगाड़ियां भारत में यात्री गाड़ियों की औसत स्पीड से तीन से पांच गुना ज्यादा तेज चलती हैं। भारत में औसत स्पीड 50 किलोमीटर प्रति घंटा है। जिन वंदे भारत ट्रेनों का बहुत शोरशराबा है, वे भी सेमी-हाई स्पीड वाली हैं। इसकी औसत गति 70-80 किलोमीटर प्रति घंटा है। राजधानी एक्सप्रेस ट्रेनों की औसत गति ही सिर्फ थोड़ी-बहुत ज्यादा है।
दुनिया भर में ट्रेनों की गति बढ़ी है, पर इसके साथ-साथ सुरक्षा और समय पर इन्हें चलाने, इनमें यात्रियों की सुविधाएं और इनकी क्षमता भी बढ़ी है। पुरानी, धीमी गति वाली लाइनों की तुलना में आज इन देशों में हाई स्पीड रेल लाइनों में बेहतर सुरक्षा, सेवा, निर्धारित समय पर ही परिचालन संभव हो रहा है। लेकिन लगता है, अपना देश इस मामले में भी पिछड़ गया है।
समान भौगोलिक आकार और आबादी की वजह से चीन तुलना के खयाल से अच्छा उदाहरण है। 1950 में चीन की कुल रेल नेटवर्क लंबाई 21,800 किलोमीटर थी जो भारत की क्षमता- 53,596 किलोमीटर से आधी से भी कम थी। 1997 में भारत की कुल रूट लंबाई 62,900 किलोमीटर हो गई लेकिन तब तक चीन ने 66,000 किलोमीटर तक विस्तार कर लिया था। इस समय भारत के 68,100 किलोमीटर की तुलना में चीन की कुल रूट लंबाई 1,55,000 किलोमीटर है।
चीन और भारत के बीच खास अंतर यह है कि चीन ने रेलवे पर अध्ययन के लिए तमाम विश्वविद्यालयों और रिसर्च संस्थानों को लगाया हुआ है जबकि भारत में रेलवे नेटवर्क से बाहर शायद ही कोई संस्थान अध्ययन वगैरह करता है। हम नहीं जानते कि स्वतंत्र अंतर्दृष्टि और बेहतर फीडबैक हमारे लिए कितने मददगार होते।
टंक रूटों पर मुख्यतया समतल भूभाग है। इसकी कोमल कछारी मिट्टी के मद्देनजर ब्रिटिश इंजीनियरों ने इसके लिए ब्रॉड गेज का चयन किया। इस पर हमें 200-250 किलोमीटर प्रति घंटे वाली हाई-स्पीड लाइनें बिछानी चाहिए थीं। अभी के ट्रंक रूटों के 15,000 किलोमीटर को 160-200 किलोमीटर प्रति घंटे तक अपग्रेड करने और 10,000 किलोमीटर हाई-स्पीड ब्रॉड गेज लाइन बिछाने का कुल खर्च 10-15 साल की अवधि के दौरान सात लाख करोड़ तक हो सकता है। इस किस्म का अपग्रेड किया हुआ नेटवर्क ज्यादा सुरक्षा तथा समयपालन के साथ 2060-2070 तक अधिक यात्री और माल ढुलाई- दोनों की ट्रैफिक जरूरतों को पूरा करने की क्षमता के लिए पर्याप्त होगा।
भारत में 13,500 यात्री गाड़ियां रोजाना चलती हैं। इसलिए कुछ सैकड़ा राजधानी, शताब्दी, जन शताब्दी और अब वंदे भारत ट्रेनें देश में रेल ट्रांसपोर्ट या रेलवे की हालत की वास्तविक तस्वीर सचमुच पेश नहीं करती। भले ही वायु और सड़क ट्रांसपोर्ट साफ तौर पर कहीं अधिक खर्चीला हो, पिछले 20 साल के दौरान रेल ट्रांसपोर्ट ने इसके हाथों माल ढुलाई और यात्री ट्रैफिक- दोनों का बड़ा हिस्सा खोया है। हाईवे और एयर नेटवर्कों को तैयार करने में कहीं अधिक निवेश की जरूरत होती है। अनुमान किया जाता है कि आबादी का चार प्रतिशत से अधिक हिस्सा निजी वाहन या वायु यात्रा का खर्च वहन नहीं कर सकता।
चिंताजनक बात यह है कि 90 प्रतिशत लोगों के लिए ट्रेनों के लाइफलाइन होने के बावजूद यात्री ट्रैफिक में कमी हो रही है। 2000 से 2015 के बीच इसका वार्षिक विकास 4-5 प्रतिशत था। लगभग 2016 में यह पहली बार स्थिर रहा और उसके बाद इसकी दर गिरने लगी।
हालांकि रेलवे बजट में वृद्धि हुई है, संसाधनों का प्रतियोगितात्मकता, सुरक्षा और समय पालन बेहतर करने में उपयोग नहीं किया जा रहा बल्कि 'वर्ल्ड क्लास रेलवे स्टेशनों' और वंदे भारत-जैसी चमक-दमक वाली इंटर-सिटी ट्रेनों या अहमदाबाद और मुंबई के बीच बुलेट ट्रेन के दिखावटी बदलावों पर इनका ज्यादा हिस्सा खर्च किया जा रहा है।
वायु और सड़क ट्रांसपोर्ट के साथ सफलतापूर्वक प्रतियोगिता करने के लिए रेलवे को सुरक्षा बेहतर करने और स्पीड में बहुत अधिक बढ़ोतरी सुनिश्चित करने की जरूरत है। लेकिन पिछले 20 वर्षों में हमने दोनों में से किसी में भी अपनी पीठ थपथपाने लायक बेहतरी भी हासिल नहीं की है। हाल की सीएजी रिपोर्ट में बताया गया है कि मिशन रफ्तार में निराशाजनक विफलता रही है। 2016-17 के रेल बजट में 'मिशन रफ्तार' की घोषणा की गई थी। इसके तहत मालगाड़ियों की औसत गति को दोगुना करने और अगले 5 वर्षों में सभी गैर-उपनगरीय यात्री गाड़ियों की औसत गति 25 किलोमीटर प्रति घंटा बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है।
बालासोर दुर्घटना रेल सेवाओं में गिरावट का चेतावनी वाला चिह्न है। बार-बार हो रही दुर्घटनाएं व्यवस्थागत विफलताओं के बारे में बता रही हैं जिन पर तुरंत ध्यान दिए जाने की जरूरत है। उम्मीद है, रेलवे सुरक्षा कमिश्नर (सीआरएस) व्यवस्थागत कमियों को उसी तरह देखेंगे जिस तरह 2015 में पूर्वोत्तर सीमांत रेलवे में नवनिर्मित लुमडिंग-सिलचर लाइन पर सुरक्षा जांच के मामले में किया गया था। सीआरएस ने उस वक्त मूलभूत कारण की पहचान की थी और पाया था कि योजना बनाते वक्त अपर्याप्त जमीनी सर्वेक्षणों और जांचों ने इस लाइन पर ज्यादा होने वाले भूस्खलनों की अनदेखी की थी।
उम्मीद है, सीआरएस इन बिंदुओं को भी ध्यान में रखेंगेः
अगर दुर्घटना असावधानी या लापरवाही की वजह से हुई, तो यह किस वजह से हुई? ट्रेनों को चलाते रहने के लगातार दबाव की वजह से स्टाफ ने शॉर्ट कट अपनाया जैसा कि 2017 में खतौली दुर्घटना में हुआ था जिसमें 23 यात्रियों की मौत हो गई थी?
हताहतों, बचाव और राहत पर यात्रियों की क्षमता से अधिक संख्या का प्रभाव
डिब्बे क्यों पलटे और बगल की पटरियों पर क्यों गिरे? क्या रेलवे लाइन का भूगोल और पटरियों के बीच तथा अगल-बगल बिछाए गए पत्थर एवं डिब्बों की सस्पेंशन प्रणाली दुरुस्त थी?
अंत में, बालासोर में हुई इस खास दुर्घटना के लिए ट्रेनों के देर से चलने का प्रभाव और उनके संबंध क्या हैं?
(आलोक कुमार वर्मा भारतीय रेलवे इंजीनियरिंग सेवा से अवकाशप्राप्त हैं। उन्होंने आईआईटी, खड़गपुर और दिल्ली से शिक्षा प्राप्त की है। )
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