आकार पटेल का लेख: चंद्रयान-2 जरूरी है, लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना

भारत, अमेरिका, रूस और चीन की तरह ही जर्मनी, फ्रांस, जापान और तकनीकी तौर पर संपन्न और अपने दम पर अंतरिक्ष में छलांग लगाने की क्षमता रखने वाले देश भी हैं। लेकिन फिर भी इन देशों की सरकारें अपने करदाताओं का पैसा अंतरिक्ष के क्षेत्र में नहीं खर्च करना चाहतीं।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

आज से 50 साल पहले, 24 जुलाई 1969 को अमेरिका का अपोलो-11 मिशन चांद से धरती पर लौटा। तीन अंतरिक्ष यात्री कमांडर नील आर्मस्‍ट्रांग, पायलट माइक कॉलिंस और एडिवन एल्ड्रिन ने फ्लोरिडा से मिशन के लिए उड़ान भरी थी और द पर होकर वापस लौटे। इस पूरे मिशन में आठ दिन का वक्त लगा था।

अब इस मिशन के 50वें साल में आज (22 जुलाई को) भारत अपना पहला अंतरिक्षयान चांद पर भेजेगा। इसे चांद पर उतरने में करीब सात हफ्ते या उससे भी ज्यादा का वक्त लगेगा। इस कामयाबी के साथ ही अमेरिका, रूस और चीन के बाद भारत चांद पर पहुंचने वाला चौथा देश बन जाएगा। हालांकि यह सिर्फ क्षमता और कौशल का सवाल नहीं है बल्कि यह प्राथमिकताओं का सवाल है।

भारत, अमेरिका, रूस और चीन की तरह ही जर्मनी, फ्रांस, जापान और तकनीकी तौर पर संपन्न और अपने दम पर अंतरिक्ष में छलांग लगाने की क्षमता रखने वाले देश भी हैं। लेकिन फिर भी इन देशों की सरकारें अपने करदाताओं का पैसा अंतरिक्ष के क्षेत्र में नहीं खर्च करना चाहतीं। परमाणु हथियारविकसित करने और उनके प्रसार के मुद्दे पर भी इन देशों ने भारत से अलग रास्ता चुना है।

वैसे चंद्रमा का अध्ययन करने की एक बड़ी वजह है कि यह हमारे पूरे सोलर सिस्टम के विकास को समझने में मदद करेगा। चंद्रमा की उम्र एक अनुमान के मुताबिक 3।5 अरब साल मानी जाती है और इस समय में इसकी सतह में कोई बदलाव देखने को नहीं मिला है और न ही कोई अंदरूनी हलचल दिखी है। चंद्रमा के अध्ययन से हमें सोलर सिस्टम के बारे में जो जानकारी मिलती है वह पृथ्वी के अध्ययन से नहीं मिलती। गौरतलब है कि अपोलो मिशन के बाद पहली बार यह पता लगा था कि चंद्रमा का रचना पृथ्वी पर एक किसी वस्तु के टकराव के बाद हुई थी।


1969 के ऐतिहासिक क्षण से पहले तक अमेरिका ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में ज्यादा कदम नहीं बढ़ाया था। लेकिन नील आर्मस्‍ट्रांग और एडिवन एल्ड्रिन के बाद 10 अमेरिकन चंद्रमा पर गए। 1972 में अमेरिका ने चंद्रमा पर आखिरी मिशन भेजा था। 1980 में राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के कार्यकाल में अमेरिका ने स्पेस शटल प्रोग्राम तैयार किया, जो 2011 में खत्म हुआ। शटल प्रोग्राम के दौरान ही भारतीय मूल की कल्पना चावला की अंतरिक्ष से वापस लौटते समय एक फरवरी 2003 को मौत हो गई थी। यह स्पेस शटल प्रोग्राम का दूसरा बड़ा हादसा था। इससे पहले 1980 के दशक में 14 लोगों की मौत हो गई थी।

शीत युद्ध की समाप्ति और 30 साल पहले सोवियत संघ के पतन के बाद लंबी दूरी की मिसाइलों (अंतरिक्ष रॉकेट से मिलता जुलता) को विकसित करने पर जो पैसा खर्च हो रहा था उसे बाकी शोध और विकास पर खर्च किया जाने लगा। हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि वह नासा (नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन) के महत्वाकांक्षी कार्यक्रमों को फिर से शुरु कराएंगे और 2024 तक अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री चांद पर कदम रखेंगे।

हालांकि इस समय अंतरिक्ष पर निजी कंपनी स्पेसएक्स सटीक काम कर रही है, जिसे अरबपति इंजीनियर एलन मस्क चलाते हैं। स्पेसएक्स ऐसे काम कर सकता है जो नासा भी नहीं कर सकता है, जैसे रॉकेट स्टेज को ठीक करना और उसे दोबारा इस्तेमाल में लाना। अमेजन के मालिक जेफ बेजोस की स्पेस फर्म ब्लू होराइज़न ने भी इस तरह की क्षमता को विकसित किया है।

जब मस्क ने 2002 के आसपास अपनी कंपनी शुरू की, तो उन्हें पता चला कि रॉकेट तकनीक 50 सालों से अपडेट नहीं हुई है और सरकारें उन्हीं सिस्टम का इस्तेमाल कर रही थीं जिन्हें 1960 के दशक में इस्तेमाल किया गया था। मस्क मंगल पर कॉलोनी बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं। उनके ट्रैक रिकॉर्ड को देखने पर ऐसा लगता है कि उनका यह ख्वाब हकीकत भी बन सकता है।

भारत जैसा देश जब अंतरिक्ष कार्यक्रमों पर पैसा खर्च करता है तो दो विचार आते हैं, और दोनों मेरी समझ में ठीक भी है। पहला- एक गरीब देश को फैंसी रॉकेटों पर पैसा खर्च नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे न तो राष्ट्रीय गौरव बढ़ता है और न ही आम लोगों को इससे कोई लाभ मिलता है। दूसरा यह कि इस तरह के मिशन वैज्ञानिक स्वभाव विकसित करते हैं। खासकर उस देश में जहां सरकार लोगों से कहती है क्या करना चाहिए और क्या नहीं, वहां विज्ञान को बढ़ावा देने के विचार फायदेमंद है।

शायद, इसीलिए अंतरिक्ष कार्यक्रम को हमेशा दलीय राजनीति से ऊपर उठकर देखा गया और सभी साथ नजर आए। चंद्रयान-2 मिशन आज लॉन्च हो रहा है, जिसके लिए अमित 2008 में मनमोहन सिंह की सरकार ने दी थी और अगर यह सफल रहता है तो चंद्रयान-2 एक साल तक ऑपरेशनल रहेगा। चंद्रयान-2 को भारत के सबसे ताकतवर जीएसएलवी मार्क-III रॉकेट से लॉन्च किया जाएगा, यह रॉकेट सैटर्न-फिफ्थ का करीब चौथा भाग है, जिसे आर्मस्ट्रांग चंद्रमा पर लेकर गए थे। चंद्रयान-2 का वजन 3।8 टन है और ऑर्बिटर चांद की सतह से 100 किमी ऊपर चक्कर लगाएगा।


इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गेनाइजेशन (इसरो) ने खुद ऑर्बिटर, लैंडर और रोवर को विकसित किया है। लैंडर का नाम मशहूर अंतरिक्ष वैज्ञानिक विक्रम साराभाई के नाम पर 'विक्रम' रखा गया है। यह चंद्रमा के साउथ पोल पर लैंड करने के साथ ही अलग हो जाएगा। इसके बाद रोबोटिक रोवर जिसका नाम 'प्रज्ञान' रखा गया है 14 दिनों तक चंद्रमा की सतह की संरचना की परखेगा, मिनरल और रासायनिक नमूने एकत्र करेगा। अगर चंद्रयान-2 सफल रहता है तो भारत एक बार फिर किसी सकारात्मक कारणों से दुनिया भर में सुर्खियां बटोरेगा।

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Published: 22 Jul 2019, 10:54 AM