आकार पटेल का लेख: निर्णायक और मजबूत नेतृत्व की कमजोरियां

जब किसी फैसले की आंच कार्पोरेट सेक्टर तक पहुंचती है तो गलती को सार्वजनिक तौर पर मानना और उसे दुरुस्त करना आसान हो जाता है। लेकिन राजनीतिक व्यवस्था की निर्णायक क्षमता से जब गलतियां हों और उसका असर हम सब पर पड़ने लगे, तो इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

जिन लोगों को लगता है कि आर्थिक तौर पर भारत की स्थिति बहुत बेहतर है, उन्हें इस सप्ताह हुई कुछ घटनाएं चौंका सकती हैं।

लेकिन हकीकत यह है कि संकट बढ़ चुका है और नीति आयोग के चेयरमैन ने खुद कहा है कि 2019 में देश के सामने जो आर्थिक समस्या है, वैसी पहले कभी नहीं रही। कारोबार करने के लिए पैसे की उपलब्धता 70 सालों के निचले स्तर पर है। और ये सब इसलिए क्योंकि सिस्टम में भरोसा रह ही नहीं गया है।

वित्त वर्ष की पहली तिमाही में देश की विकास दर 6 फीसदी से नीचे जा चुकी है, और दूसरी तिमाही में भी इसके नीचे ही जाने की आशंका है। वित्त मंत्री प्रेस कांफ्रेंस कर कुछ उपाय सुझाए हैं। मोटे तौर पर जुलाई में पेश बजट के दौरान जो कुछ ऐलान हुए थे उन्हें रोलबैक यानी वापस कर लिया गया है। मसलन, बजट में निवेशकों पर टैक्स लगाने का ऐलान हुआ था, उसे वापस ले लिया गया। सामाजिक कार्यों पर अपने मुनाफा न खर्च करने वाली कंपनियों को सजा देने का प्रावधान भी खत्म कर दिया गया। स्टार्टअप कंपनियों पर लगाया गया टैक्स भी सिरे से खत्म कर दिया गया। कारोबारी और उद्योगपतियों को भरोसा दिया गया कि टैक्स अधिकारी अब उन्हें परेशान नहीं करेंगे और उनका रवैया नर्म रहेगा।

जाहिर है ये सब बातें है, और इनमें पूर्व की सरकारें भी जो कुछ बोलती रही हैं, उन्हें भी जोड़ लें तो बात अलग ही हो जात है। ऐसा लगता है कि सरकार ने कुछ फैसले गलती से ले लिए थे जिनसे काफी नुकसान हुआ। अब देखना होगा कि इन फैसलों को वापस लेने के बाद क्या संकट खत्म होता है या नहीं।

यह सब कहने के पीछे मेरी मंशा कुछ इस तरह है:

एक मजबूत और निर्णायक नेतृत्व की इच्छा हम हमेशा जताते रहे हैं। देश का मौजूदा नेतृत्व दावा करता है कि वह मजबूत है और निर्णय लेने वाला है। इस दावे को उसके समर्थकों की हामी भी मिलती है। इस मजबूत नेतृत्व के कुछ फैसले से हमने जम्मू-कश्मीर का मौजूदा संकट, सीमापार किए गए कुछ हमले और नोटबंदी से हुई त्राहि भी देखी है।

तो फिर आखिर निर्णायक और मजबूत नेतृत्व है क्या? दरअसल ऐसे फैसले लेना मजबूत नेतृत्व माना जाता है जो इसी स्थिति में रहे किसी भी व्यक्ति ने इससे पहले नहीं लिए। इन फैसलों के नतीजे क्या हुए, यह साफ नहीं है। निर्णय लेने की क्षमता का सही अर्थ यही है। मजबूत नेतृत्व की हमारी समझ यही बताती है कि आखिर मजबूत नेता द्वारा लिए गए फैसले उसके पूर्व के नेतृत्व ने क्यों नहीं लिए या फिर अलग फैसले किए।


इस नजरिए से अगर इन फैसलों को देखें तो कथित मजबूत नेतृत्व की चमक कुछ फीकी पड़ती नजर आती है। शुरु में जो फैसला दृढ़ और मजबूती वाला लगा था, वह बाद में कुछ गफलत भरा नजर आता है। इसी तरह पहले जो फैसले कमजोर और अनिर्णय की स्थिति दर्शाते लगते हैं, बाद में वही फैसले सतर्कता जाहिर करते हैं।

फैसले वही अच्छे होते हैं जिनके नतीजे समझ में आएं। और ये फैसले कितने सही या गलत थे, इसे आंकने का भी तरीका है। मेरे कहने का अर्थ है कि जब हमारे सामने ए या बी में चुनने का विकल्प होता है, तो हमें नहीं पता होता कि किसी एक को चुनने से क्या होने वाला है।

हमारे पास किसी भी फैसले की संभावनाओं को समझने की क्षमता है कि कोई फैसला अच्छा या बुरा, क्या असर डालेगा। हम यह भी देख सकते हैं कि हमारे कदम से दूसरों पर किया असर होगा और उनकी क्या प्रतिक्रिया होगी। लेकिन यह थोड़ा जटिल है, खासतौर से युद्ध और अर्थव्यवस्था के मामलों में, और यह जल्दी समझ में नहीं आते।

ऐसी स्थितियों में हमेशा निर्णायक होना कोई बड़ी बात नहीं है। शब्दकोश में निर्णायक अर्थ ‘तुरंत और मजबूती के साथ फैसले लेने की योग्यता’ बताया गया है। लेकिन इन दिनों मजबूती का अर्थ किसी भी किस्म की आपत्ति या चेतावनी को खारिज करना बन गया है।

मेरे हिसाब से यह कोई अच्छी खूबी नहीं है, और मुझे नहीं लगता कि नेताओं में ऐसा होना चाहिए। निर्णायक नेता, खासतौर से ताकतवर, आमतौर पर अपने आसपास ऐसे लोगों को रखते हैं जो उनका विरोध नहीं करते। ऐसा इसलिए क्योंकि जो लोग किसी फैसले का विरोध करते हैं या चेतावनी देते हैं, वे ऐसे नेता के पास रहना ही नहीं चाहते तो उनके मिजाज के न हों।

दूसरी तरफ, वह लोग हैं जो किसी बात पर असहमत होते ही नहीं हैं। दरअसल यह एक सतर्क नेता का जिम्मा है कि वह हर नीति और फैसले को तौले और उस पर फैसला ले, ऐसे नेता अपने उन सलाहकारों की भी बात सुनें जो जोर देकर किसी फैसले का विरोध करते हैं, क्योंकि उन्हें पता होता है कि वे एक समझदारी भरे विमर्श में हैं और उनकी बात सुनी जा रही है।


निर्णायक होना एक ऐसी स्थिति है जो मुख्य तौर पर ऐसे व्यक्तियों से आती है जो निरपेक्ष होते हैं। यानी ये लोग सिर्फ अपने विश्वास और भरोसे के साथ काम करते हैं न कि किसी बुद्धिमानी भरी समझ से। ये लोग अपनी बात और फैसले को गहराई से महसूस करते हैं और उनसे अलग विचार को देखना तक नहीं चाहते।

निर्णायक नेतृत्व की इस समझ के संदर्भ में हमें मौजूदा राजनीतिक नेतृत्व के क्रियाकलापों की समीक्षा करना चाहिए।

और फिर हमें उस निर्णायक दिशा को भी देखना चाहिए जिसपर वित्त मंत्रालय ने हाल के फैसलों के ऐलान किया है। जाहिर है जब किसी फैसले की आंच कार्पोरेट सेक्टर तक पहुंचती है तो गलती को सार्वजनिक तौर पर मानना और उसे दुरुस्त करना आसान हो जाता है। लेकिन राजनीतिक व्यवस्था की निर्णायक क्षमता से जब गलतियां हों और उसका असर हम सब पर पड़ने लगे, तो इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है।

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