आकार पटेल का लेख: यूरोपीय यूनियन से कुछ तो सबक ले भारत तो कभी नहीं आएगी आर्थिक मंदी

भारत में एक ऐसी विचारधारा है जो लोकप्रिय है और सत्ता में भी है। यह विचारधारा दशकों से उस अखंड भारत की वकालत करती रही है जो काबुल से बरमा तक फैला है। लेकिन इसके साथ ही यह विचारधारा सार्क देशों के बीच सामान, पूंजी और सेवाओं के मुक्त आवागमन का कड़ा विरोध भी करती है।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

यूरोपीय यूनियन को दुनिया का सबसे बड़ा फ्री ट्रेड ज़ोन माना जाता है। यूरोपीय यूनियन के एकल बाजार में ही 50 करोड़ से ज़्यादा लोग हैं और इसकी अर्थव्यवस्था का आकार भारत की कुल अर्थव्यवस्था से करीब 10 गुना बड़ा है। इस यूनियन में सामान, पूंजी और सेवाओं का मुक्त आवागमन होता है। मसलन फ्रेंच वाइन बिना किसी रोक-टोक के इटली में बेची जा सकती है, जर्मनी की कारें बिना रोक के स्पेन में बेची जा सकती हैं और इंग्लैंड का ताकतवर सिक्यूरिटी एक्सचेंज पूरे यूरोप के लिए कारोबार कर सकता है।

पोलैंड और पुर्तगाल के लोग लंदन या कोपेनहेगन में बिना किसी रुकावट के जा सकते हैं और वहां अपना घर-परिवार बना सकते हैं। यह अपने आप में ऐसी व्यवस्था है जो दुनिया में कहीं और देखने को नहीं मिलती।

यूरोपीय यूनियन बनाने का विचार दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान आया था। लोगों ने सोचा कि अगर यूरोपीय देशों की अर्थव्यवस्था एक दूसरे से जोड़ दी जाएं तो आपस में युद्ध की संभावनाएं नगण्य हो जाएंगी। इस तरह यूरोपीय देशों ने एक-दूसरे से जुड़ने के लिए सबसे पहले स्टील उद्योग के जरिए शुरु किया। सैन्य उत्पादों के लिए स्टील सबसे अहम धातु है। धीरे-धीरे और भी उद्योग पनपे और यूरोपीय यूनियन का मौजूदा स्वरूप बन गया। यहां तक कि ज्यादातर यूरोपीय देशों की एक ही मुद्रा यूरो है। इटली ने लीरा का इस्तेमाल बंद किया तो फ्रांस ने फ्रेंक और जर्मनी ने ड्यूशमार्क का इस्तेमाल छोड़कर यूरो को अपना लिया।

हालांकि इन देशों में भाषाएं अलग-अलग हैं, लेकिन यूरोपीय देशों का मानना है कि उनकी सभ्यता का मूल एक ही है। इन देशों के बीच धार्मिक और सांस्कृतिक रिश्ते हैं। इसके अलावा ये अपने को एक दूसरे को जोड़ने में गर्व भी महसूस करते हैं जैसा कि चार्ल्स महान ने कोई 1000 साल पहले किया था।


युद्ध रोकने के लिए सामने आया यह विचार कामयाब रहा यह इसी से साबित हो जाता है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के कोई 75 साल बीतने के बाद भी कोई भी यूरोपीय देश एक-दूसरे के खिलाफ युद्ध में नहीं गया। फ्रांस और जर्मनी की पुरानी दुश्मनी खत्म हो चुकी है। इंग्लैंड अब खुद को यूरोप में संतुलन बनाए रखने के लिए सामने नहीं रखता। इस सबसे यही सामने आता है कि यूरोपीय यूनियन एक अच्छा विचार रहा।

लेकिन, एक काम और हुआ, कि सबकी अर्थव्यवस्था एक-दूसरे से जुड़ गई। राष्ट्रों को खुद को मजबूत करने के लिए लोग चाहिए, और सीमा की रुकावट के बिना लोगों का आवागमन इसमें मददगार साबित हुआ। पोलैंड के यूरोपीय यूनियन में शामिल होने के कोई 20 बरस पहले इंग्लैंड ने पोलैंड के शरणार्थियों के लिए अपनी सीमाएँ खोल दीं। एक अनुमान के मुताबिक इंग्लैंड में इस समय करीब 30 लाख आप्रवासी हैं और करीब 10 लाख ब्रिटिश नागरिक यूरोप के दूसरे देशों में रहते हैं। सबसे ज्यादा ब्रिटिश स्पेन में बसे हैं।

यूरोप का विस्तार पूर्व की ओर ज्यादा हुआ। इसने तुर्की के साथ कस्टम यूनियन बनाया, जो कि लंबे समय से इस दावे के साथ यूरोप का हिस्सा बनना चाहता है कि उसके देश का एक बड़ा हिस्सा, इस्तांबुल समेत यूरोप में है। इसके अलावा पूर्व सोवियत संघ के साथ भी यूरोप के रिश्ते गहरे हुए हैं।

भारत के लिए यह सब एक सबक है। हम अपने क्षेत्र में और दुनिया में भारत की स्थिति और भौगोलिक महत्व का इस्तेमाल नहीं कर पाए। न ही हम अपनी आर्थिक ताकत को यूरोप जैसी व्यवस्था में बदलकर दक्षिण एशिया में वर्चस्व स्थापित कर पाए।

दक्षिण एशिया क्षेत्रीय सहयोग संगठन यानी सार्क में नेपाल, बांग्लादेश, पाकिस्तन, श्रीलंका, भूटान, मालदीव और भारत हैं। इस संगठन के देशों में दुनिया की आबादी का पांचवा हिस्सा बसा है, फिर भी सिर्फ भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान ही मुख्य अर्थव्यवस्थाएं हैं। भूटान, श्रीलंका और नेपाल के साथ हमारा बहुत सीमित मुक्त आवागमन है, जबकि दोनों बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ कोई आवागमन नहीं। यह कहा जा सकता है कि अगर आप गैर भारतीय हैं तो आपको पाकिस्तान आने जाने का वीजा आसानी से मिल जाएगा।


व्यापार की बात आती है तो हमारी अर्थव्यवस्थाएं राष्ट्रवाद के चक्कर में पड़ जाती हैं। पाकिस्तान के साथ हमारा जो थोड़ा-बहुत व्यापार होता है, वह भी बात-बात पर बंद हो जाता है। जब हम एक दूसरे के साथ कारोबार नहीं कर रहे होते तो ज्यादा खुश रहते हैं। एक शुद्ध भारतीय होने के नाते सवाल यह है कि क्या सार्क में भी यूरोपीय यूनियन जैसी व्यवस्था बनाकर हमें फायदा होगा?

सवाल का जवाब सीधा है...हां। अगर हमारे बाजार में मांग घटती है तो हम अपने उत्पादकों को पाकिस्तान और बांग्लादेश में सीधे अपना सामान बेचने का रास्ता दिखा सकते हैं। भारतीय सामान की गुणवत्ता और कीमत के चलते इन दोनों देशों में ग्राहकों की कमी नहीं होगी।

यह काफी रोचक बात है कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के नेता तो एक दूसरे के साथ किसी किस्म का ट्रेड या कारोबार करने के पक्ष में नजर नहीं आते, लेकिन व्यापारी सिर्फ पाकिस्तान के ही भारत के साथ आर्थिक रिश्तों को विरोध कर रहे हं। भारत के व्यापारी और उद्योगपति तो हमेशा सरकार को मुक्त बाजार के लिए प्रेरित और उत्साहित करते रहे हैं, लेकिन इन आवाजों को हाल के दिनों में उन लोगों ने दबा दिया है जो सीमा पर स्थाई तनाव चाहते हैं।

भारत में इस समय एक अजीब सी स्थिति है। भारत में एक ऐसी विचारधारा है जो लोकप्रिय है और सत्ता में है। यह विचारधारा दशकों से उस अखंड भारत की वकालत करती रही है जो काबुल से बरमा तक फैला है। लेकिन इसके साथ ही यह विचारधारा सार्क देशों के बीच सामान, पूंजी और सेवाओं के मुक्त आवागमन का कड़ा विरोध भी करती है।

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