आकार पटेल का लेख: कितना कारगर होगा लॉकडाउन से औंधी गिरी अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए मोदी का ‘2 मिनट फार्मूला’

ऐसे प्रेजेंटेशन में न तो तर्क होते हैं और न ही डिटेल्स। इसमें समस्या के समाधान के लिए सुझाए गए उपायों से पैदा होने वाली नई समस्याओं पर चर्चा नहीं हुई होगी और न ही इस बात पर कि इसे लागू करने में होने वाली चूक को लेकर। आखिर इसके लिए समय ही कहां मिला होगा।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

न्यूज एजेंसी एएनआई ने इस सप्ताह एक हेडलाइन दी, “पीएम मोदी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए 50 अधिकारियों से सलाह-मशविरा कर रहे हैं...” बताया गया कि पीएम के साथ यह बैठक 90 मिनट तक चली और इसमें वित्त और वाणिज्य मंत्रालय के अधिकारियों ने मौजूदा आर्थिक स्थिति पर प्रेजेंटेशन भी दिया।

आखिर इस तरह की बैठक में और क्या हुआ होगा? अगर सभी 50 अधिकारियों ने अपनी राय दी होगी और सबको बोलने का मौका मिला होगा तो एक अधिकारी को 2 मिनट से ज्यादा मौका नहीं मिला होगा। लेकिन इस बात की बहुत कम संभावना है कि किसी ने बैठक में मौजूद सभी का परिचय कराया होगा और बैठक के एजेंडे के बारे में बताया होगा। इसलिए इसकी संभावना कम ही है कि सबको दो मिनट बोलने का मौका मिला होगा। शायद इनमें से बहुत से लोग तो कुछ बोले ही नहीं होंगे। लेकिन हेडलाइन थी कि प्रधानमंत्री ने अधिकारियों से उनकी राय जानी। आखिर दो मिनट में कोई अर्थव्यवस्था जैसे मुद्दे पर क्या राय दे सका होगा?

नरेंद्र मोदी को इसी तरह की बैठकें पसंद आती हैं। पहली बार जब मैं उनसे, टाइम्स ऑफ इंडिया के तत्कालीन संपादक दिलीप पडगांवकर और हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक बी जी बर्गीज के साथ मिला था। दोनों की अब मृत्यु हो चुकी है। हम लोग 2002 की गुजरात हिंसा पर एडिटर्स गिल्ड की रिपोर्ट के संबंध में उनसे मिले थे। इस बैठक में मोदी ने अपनी सरकार के सभी सचिवों को बुला लिया था, करीब दो दर्जन लोग कतारबंद होकर हमारे सवालों के जवाब दे रहे थे। इसमें कोई मंत्री नहीं था। शायद मोदी का यही स्टाइल था।

लेकिन सवाल है कि आखिर ऐसी बैठकों में क्या होता है और इनसे निकलता क्या है। बहुत से लोग ऐसी ही बातें करते दिखेंगे। इनमें से कई की बातें पहले से तय की हुई लगती हैं। समस्या तो पहले से सबको पता है। एएनआई की स्टोरी में कहा गया कि, “अर्थव्यवस्था को तेजी से पटरी पर लाने के लिए इस बैठक में उपायों पर चर्चा हुई। गौरतलब है कि हाल की तिमाहियों में मांग में भारी कमी दर्ज की गई है।”

तो फिर इसके दो मिनट इलाज का नुस्खा क्या है? शायद ऐसा हुआ होगा, “बड़े नोटों को बंद करने से कालेधन की समस्या हमेशा के लिए खत्म हो जाएगी। हम सभी को अपने बड़े नोट छोटे नोटों में बदलने के लिए कह सकते हैं और इससे कालेधन का पता चल जाएगा। इससे नकली नोटों और आतंकवाद की समस्या का भी समाधान हो जाएगा।”


फोटो : Getty Images
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ऐसे प्रेजेंटेशन में न तो तर्क होते हैं और न ही डिटेल्स। इसमें समस्या के समाधान के लिए सुझाए गए उपायों से पैदा होने वाली नई समस्याओं पर चर्चा नहीं हुई होगी और न ही इस बात पर कि इसे लागू करने में होने वाली चूक को लेकर। आखिर इसके लिए समय ही कहां मिला होगा। आखिर यह सिर्फ एक प्रेजेंटेशन ही तो है, और अगर आइडिया एकदम ओरिजनल है तो इसकी मंजूरी मिलने की संभावना अधिक है।

छोटी बैठकें और गंभीर विचार विमर्श के बिना लिए गए फैसलों की समस्या ही यह है। लेकिन जब 50 लोग जमा हों और छोटे-छोटे मशविरे दें, तो साफ है कि यही एक स्टाइल है।

मैंने पहले भी मोदी के सरकार चलाने के तौर-तरीकों के बारे में लिखा है। मधु किश्वर को दिए इंटरव्यू में मोदी ने कहा था कि वह फाइलें नहीं पढ़ते हैं क्योंकि वह अकादमिक तरीकों से सरकार नहीं चला सकते। वह अपने लोगों से दो मिनट बात कहने को बोलते हैं और इसे समझकर फैसला कर लेते हैं।

लेकिन समस्या है कि मामला जब जटिल हो तो दो मिनट में तो नहीं समझाया जा सकता। कई बातें तो साफ ही नहीं होतीं। बहुत से धुंधले मुद्दे होते हैं। कई डिटेल्स साफ नहीं होतीं क्योंकि पर्याप्त डाटा या जानकारी उपलब्ध नहीं होती। कई बार मुद्दे के व्यापक विश्लेषण के बिना फैसले से होने वाली समस्याओँ और दिक्कतों को नहीं समझा जा सकता।

कालेधन का मुद्दा ऐसा ही था। चीन के साथ रिश्तों का मामला भी इसी किस्म की बात है और कोरोना वायरस से निपटने के लिए उठाए गए कदम भी इसकी मिसाल हैं। दो महीने लंबे लॉकडाउन का प्रभाव बेहद जटिल है। इसका अर्थव्यवसथा पर क्या असर होगा इसे बेहद गंभीर तरीके से समझने की जरूरत थी। इसी तरह नोटबंदी के असर की भी बात होनी थी।

ये सब लिखने में मेरा मकसद अनावश्यक रूप से आलोचना करना नहीं है। मोदी जो बी फैसला लेते हैं उसका हम सब पर असर होता है। और ऐसे में हमें देखना होगा कि देशहित में और लोगों की भलाई के लिए क्या बेहतर विकल्प हो सकते हैं। लेकिन फैसले जिस तरीके से लिए जा रहे हैं उसकी भी पड़ताल जरूरी है। एक और रिपोर्ट की बात करता हूं जो 18 जुलाई को इंडियन एक्सप्रेस में छपी है। हेडलाइन है, “मैन्युफैक्चरर्स फ्रेट एड सडन लॉकडाउन हिट्स लॉजिस्टिक्स ऑफ प्रोडक्शन..” यानी लॉजिस्टिक पर लॉकडाउन के प्रभाव से मैन्युफैकचरर्स परेशान।

इस स्टोरी में कई समस्याओं का जिक्र है। एक है कि 13 जुलाई को रात 8 बजे कर्नाटक ने अगले दिन से लॉकडाउन लगाने का ऐलान कर दिया और सारे उद्योगों को बंद करने का आदेश दिया। कार बनाने वाली कंपनी टोयोटा समेत कई कंपनियों ने अपने कर्मचारियों को घर जाने का निर्देश दे दिया, अपने वेंडर्स को भी सूचित कर दिया और एक बयान जारी कर दिया। लेकिन अगली ही शाम सरकार ने एक सर्कुलर जारी किया कि मैन्यूफैक्चरर्स को इस लॉकडाउन से छूट है। लेकिन तब तक कर्मचारी जा चुके थे। इस तरह करीब एक सप्ताह के लिए उत्पादन ठप हो गया।

दूसरी समस्या सप्लाई चेन की है। ऑटो सेक्टर में सारा काम एक ही जगह नहीं होता है। मेन फैक्टरी में असेंबलिंग होती है, लेकिन कल-पुर्जे देश के अलग-अलग हिस्सों में मौजूद कारखानों में बनते हैं। कई राज्यों में लॉकडाउन है ऐसे में अगर मेन असेंबली यूनिट खुली भी हो तो भी उत्पादन नहीं हो सकता। तमिलनाडु, ओडिशा, उत्तर प्रदेश, असम और की अन्य राज्यों में पूर्ण या आंशिक लॉकडाउन है। ऐसे में सप्लाई चेन में एकरूपता की समस्या है। इसी तरह कंपनिया अपने वेयरहाउस तक नहीं पहुंच पा रहीं क्योंकि उनके वेयरहाउस लॉकडाउन वाले इलाकों में हैं। एक और समस्या है कि पहले लॉकडाउन में ही बड़ी संख्या में मजदूर और कामगार अपने घरों को चले गए।

यह बहुत सारे जटिल मुद्दे हैं। इन पर फैसले लेने की जरूरत नहीं है। इनमें मुद्दा शासन का है। यानी राज्य या देश कैसे चलता रहे इसे सुनिश्चित करना है। यह सत्य है कि सरकार चलाने के लिए भारत एक जटिल और अराजक देश माना जाता है। सरकार कई बार अपने ही नियमों का पालन नहीं करती। ऐसे में लॉकडाउन से अर्थव्यवस्था को जो नुकसान हुआ है उसे बदला तो नहीं जा सकता। और कम से कम दो मिनट में तो इसका समाधान निकलने से रहा।

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