आकार पटेल का लेख: एक पार्टी के बहुमत वाली सरकार से नहीं होता विकास, आंकड़े बताते हैं कुछ अलग कहानी

भारत के सबसे बड़े आर्थिक सुधार 1991 में एक अल्पमत की सरकार में ही लागू हुए थे, जो अपने पूरे कार्यकाल के दौरान कभी भी गिरने की संभावनाओं से घिरी रही थी।

फोटो: सोशल मीडिया
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आकार पटेल

त्रिशंकु लोकसभा एक ऐसा शब्द है, जो स्टॉक मार्केट को भयभीत करता है। इस डर के पीछे सोच ये है कि हमारी अर्थव्यवस्था को एक मजबूत और निर्णायक नेतृत्व की जरूरत है और इस मामले में ऐसी सरकार विफल साबित होती है, जिसमें किसी एक पार्टी के पास बहुमत नहीं होता है। इसका नतीजा आर्थिक दिशा के अभाव के साथ जीडीपी का निम्न विकास होता है। गठबंधन सरकार में कैबिनेट के अंदर बहुत सारे निहित स्वार्थ होते हैं और क्या किया जा सकता है और क्या नहीं, इसको लेकर अक्सर क्षेत्रीय दलों के पास ‘वीटो’ अधिकार होता है। यही बात बहुमत प्राप्त सरकारों के पक्ष में और गठबंधन सरकारों के विरुद्ध विचारों का आधार होती है।

हाल के वर्षों के उदाहरण इस सोच का समर्थन नहीं करते हैं। यूपीए 1 गठबंधन (2005-2009) के पांच वर्षों में औसत सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि 8.5% रही, जो भारत के इतिहास में किसी भी सरकार के पांच वर्ष के दौरान रहे जीडीपी औसत का सर्वोच्च था। यह उपलब्धी उस सरकार के द्वारा हासिल की गई थी, जिसका नेतृत्व सिर्फ 145 सीटों वाली कांग्रेस कर रही थी। हमारे देश के कुछ सबसे बेहतरीन कानून, जिसमें से एक सूचना का अधिकार कानून है, इसी दौरान आए थे।

अगले चुनाव में जब इसी गठबंधन ने एक बार फिर से सत्ता संभाली तो कांग्रेस की सीटें बढ़कर 200 पहुंच गई थीं। आदर्श रूप से इसका मतलब था अधिक आजादी के साथ एक निर्णायक सरकार। और शायद ऐसा ही था। हालांकि, जीडीपी आंकड़े ऐसा नहीं दिखाते हैं। इस दौरान अर्थव्यवस्था सालाना 7% से कम के औसत से बढ़ी। यहां हमें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि यह वह समय था, जिसमें पूरी दुनिया एक वित्तीय संकट से उबर रही थी और उच्च विकास को प्राप्त करने के लिए बाहरी समर्थन बहुत कम था।

वास्तव में, पिछले 15 वर्षों के दौरान आर्थिक विकास की सबसे कमजोर अवधि ऐसे समय में आई है जब हमारे पास एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार है और वैश्विक अर्थव्यवस्था में उफान है। मेरा आशय सरकार के प्रदर्शन पर टिप्पणी करने का नहीं है। मेरी बात सिर्फ यह समझाने के लिए है कि एक बहुमत वाली सरकार और जीडीपी विकास में कोई संबंध नहीं है, जैसा कि शेयर बाजार और इसके विश्लेषकों के भय में दिखता है।

दूसरी चिंता यह है कि गठबंधन सरकारें प्रमुख सुधार के कदम नहीं उठा सकती हैं। हालांकि, भारत के सबसे बड़े आर्थिक सुधार 1991 में एक अल्पमत की सरकार में ही लागू हुए थे, जो अपने पूरे कार्यकाल के दौरान कभी भी गिरने की संभावनाओं से घिरी रही थी। 1998 का तथाकथित "ड्रीम बजट" एक गठबंधन सरकार द्वारा पेश किया गया था, जो शायद भारत के इतिहास में सबसे कम समय की सरकार थी (कांग्रेस द्वारा बाहर से समर्थित)। और इसलिए इस इतिहास को देखते हुए, यह समझ पाना आसान नहीं है कि क्यों बाजार यह सोचते है कि भारत के लिए गठबंधन एक बुरी चीज है।

पिछले साल, पत्रकार टी एन निनान ने तीन सरकारों- यूपीए 1, यूपीए 2 और वर्तमान एनडीए सरकार के लिए विश्व बैंक के विश्वव्यापी शासन संकेतकों की तुलना की थी। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के मामले में, भारत का क्रम 2013 के 37.0 से बढ़कर 2016 में 47.1 रहा। हालांकि, यह 2006 में मनमोहन सिंह सरकार के 46.8 अंकों से बहुत अलग नहीं था। सरकार की प्रभावशीलता पर, 2014 में भारत का रैंक 45.2 था, जबकि यह 2016 में 57.2 था, और 2007 में यूपीए 1 में 57.3 था।

नियामक गुणवत्ता के मामले में 2012 में भारत का क्रम 35.1 और 2016 में 41.3 था, लेकिन 2006 में यह 45.1 पर उच्चतम था। निनान ने बताया कि राजनीतिक स्थिरता और हिंसा की अनुपस्थिति के मामले में भारत का रैंक खराब था। 2005 में भारत का रैंक 17.5 था और 2014 में 13.8 था। यह 2015 में 17.1 था, लेकिन 2016 में गिरकर 14.3 पर पहुंच गया, जो 2005 की तुलना में कम था। कानून के शासन के मामले में 2016 में देश का रैंक (52.4), 2013 (53.1) के रैंक से मामूली रूप से कम था और 2006 (58.4) की तुलना में काफी कम था। छठा और अंतिम सूचक आवाज और जवाबदेही है। इस मामले में भारत की रैंकिंग 2013 के 61.5 से गिरकर 2016 में 58.6 पर पहुंच गई।

निनान द्वारा पेश आंकड़े काफी स्पष्ट लगते हैं। इनसे हमें ऐसे कोई संकेत नहीं मिलते हैं जैसा बाजार और विश्लेषकों का मानना है कि एक 'मजबूत और निर्णायक' सरकार वो सब कुछ कर सकती है, जो एक 'कमजोर' गठबंधन सरकार नहीं कर सकती।

यह नेतृत्व और उसकी दिशा के बारे में है, न कि लोकसभा की संरचना के बारे में, जो कि सबसे महत्वपूर्ण कारक प्रतीत होता है। जब वास्तविक राष्ट्रीय हितों पर चर्चा की जा रही है, तो ऐसे में स्पष्ट बहुमत के अभाव के बावजूद भी सभी दलों को एक मंच पर लाना मुश्किल नहीं लगता है। मैं तर्क दूंगा कि ऐसे मौके भी होते हैं जब स्पष्ट बहुमत होना अच्छी बात नहीं भी हो सकती है। भारत जैसे बहुत ही विविधतापूर्ण देश में कुछ साहसी कदम उठाने की बजाय एक सतर्क, मध्य मार्ग अपनाना जो कि बेहतर साबित हो सकता है, अक्सर बेहतर और समझदारी भरा कदम साबित होता है।

हमें स्वीकार करना चाहिए कि एक पार्टी की सरकार का पक्ष लेने वाली इस सोच का कुछ हिस्सा पहले से तय कर ली गई सोच पर आधारित है। उदाहरण के तौर पर, सभी क्षेत्रीय पार्टियां भ्रष्ट हैं और हमेशा स्वार्थी तरीके से कार्य करेंगी। या जाति-आधारित पार्टियां समझदारी भरे निर्णय लेने के योग्य नहीं होती हैं। यह एक विश्लेषण से अधिक पूर्वाग्रह है, और हमारे लोकतंत्र में कोई भी पार्टी किसी दूसरे से किसी भी तरह से श्रेष्ठ होने का दावा नहीं कर सकती है।

मेरे ऐसा लिखने का कारण यह है कि उत्तर भारत की हाल की घटनाओं से यह संकेत मिलता है कि इस बात की संभावना है कि हम 2019 में एक त्रिशंकु लोकसभा की तरफ बढ़ रहे हैं या ऐसी स्थिति की ओर जिसमें सत्ताधारी दल के पास बहुमत नहीं होगा। अगर ऐसा जनमत सर्वेक्षणों का अनुमान होता है तो इस साल के अंत में, बाजार के विश्लेषक और व्यापार समाचार पत्र हमें बताएंगे कि ऐसा होना अर्थव्यवस्था और राजनीतिक स्थिरता के लिए एक खतरनाक बात है। हालांकि, हमारा इतिहास बताता है कि ये कोई समस्या नहीं है और हममें से बहुत से लोग ये भी सोचते हैं कि एक त्रिशंकु लोकसभा स्वागत योग्य है।

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