आकार पटेल / मोदी सरकार के शासन की असलियत छिपाते दिखावे और हवा-हवाई समाधानों का दौर
दो पारी से ज़्यादा समय तक सत्ता में रहने के बाद सुशासन की बात करने में यही दिक्कत है। रिकॉर्ड हमारे सामने है, और हर दिन सामने आ रहा है। कितने भारतीय अभी भी दिखावे से सहमत हैं?

शासन मुश्किल काम है, और अच्छा शासन, यानी कुशल और प्रभावी शासन, और भी कठिन है। शासन के नतीजों के बजाए दिखावा करना एक बेहद घटिया विकल्प है, लेकिन जब शासन के ज़रिए नतीजे हासिल करना मुश्किल हो जाता है, तो नाकामियों को स्वीकारने के बजाए दिखावे पर ही निर्भर किया जाने लगता है।
जब एयरलाइंस का कारोबार ठप हो जाता है और पूरे भारत में एयरपोर्ट पर लोगों का गुस्सा और अफरा-तफरी नजर आती है, तो इसके समाधान के तौर पर एक एयरलाइंस के सीईओ की मंत्री के सामने हाथ जोड़े तस्वीर सर्कुलेट कर दी जाती है। यानी समस्या का हल निकाल लिया गया। जब एक ऐसे क्लब में आग लगने से दर्जनों लोगों की जान चली जाती है जो होना ही नहीं चाहिए था, तो इसका समाधान निकाला गया कि क्लब के बचे हुए हिस्से पर बुलडोज़र चला दिया जाए। भले ही ऐसे हजारों क्लब और स्ट्रक्चर सामने खड़े हों।
लोगों को तसल्ली देने का एक और समाधान निकाल गया है नाम बदलने का। न्यू इंडया में मनरेगा (महात्मा गांधी नेशनल रुरल इम्पलायमेंट गारंटी एक्ट) को अब पूज्य बापू रुरल इम्पलाएमेंट एक्ट के रूप में जाना जाएगा और इसका विस्तार किया जाए। दस साल पहले सत्ता में आने के चंदद महीनों बाद ही प्रधानमंत्री मोदी ने लोकसभा में कहा था कि उनकी सरकार मनरेगा को जारी रखेगी ताकि मनमोहन सिंह सरकार की नाकामियों को दिखाया जा सके। उनके शब्द थे, “मेरी राजनीतिक समझ कहती है कि मनरेगा को खत्म न किया जाए, क्योंकि यह पिछली सरकार की विफलताओं का जीता-जागता स्मारक है।” उन्होंने विपक्षी दलों की तरफ खिल्ली उड़ाने वाले अंदाज़ में देखते हुए कहा था कि, “इतने साल सत्ता में रहने के बाद आप लोगों ने गरीब आदमी को महीने के कुछ दिन गड्ढा खोदने के लायक ही समझा। और मैं गाजे-बाजे के साथ इसका ढोल पीटता रहूंगा।”
लेकिन मोदी ने इसके बजाय इस योजना को खुद ही खत्म होने की व्यवस्था कर दी, क्योंकि उनका दावा था कि उनकी सरकार बेहतर नौकरियां मुहैया कराएगा और मनरेगा की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। सरकार के सत्ता में आने के बाद, नितिन गडकरी ने संकेत दिया था कि मनरेगा को देश के एक तिहाई से भी कम जिलों तक सीमित कर दिया जाएगा और इस स्कीम को कम आकर्षक बनाने के लिए लाभार्थियों की मज़दूरी कम कर दी जाएगी और उसके भुगतान में देरी की जाएगी।
ऐसा माना जा रहा था कि मोदी की सरकार के दौर में रोज़गार पैदा होने से यह योजना बेकार हो जाएगी। दिसंबर 2014 तक, पांच राज्यों को छोड़कर बाकी सभी राज्यों को 2013 की तुलना में 2014 में मनरेगा के मद में केंद्र से काफी कम फंड मिला था। लेकिन जैसे-जैसे भारत की अर्थव्यवस्था कमजोर होने लगी और बेरोज़गारी बढ़ने लगी, मोदी ने स योजना में ज़्यादा निवेश करना शुरू कर दिया जिसे उन्होंने विफलताओं का स्मारक कहा था। 2014–15 में मनरेगा के मद में 32,000 करोड़ रुपये मिले, 2015–16 में 37,000 करोड़ रुपये, 2016–17 में 48,000 करोड़ रुपये, 2017–18 में 55,000 करोड़ रुपये, 2018–19 में, 61,000 करोड़ रुपये, 2019–20 में 71,000 करोड़ रुपये और 2020–21 में 111,000 करोड़ रुपये दिए गए। मोदी शासन में मनरेगा का बजट मनमोहन सिंह के समय के मुकाबले लगभग तीन गुना ज़्यादा था।
तभी से, चालाकी के साथ मनरेगा के बजट को अपारदर्शी रखना और राज्यों को फंडिंग तक पहुंच से रोकने का काम शुरु कर दिया गया। साथ ही यह सुनिश्चित किया गया है कि मनरेगा की मांग पर कोई पारदर्शिता न हो। इसमें कोई शक नहीं कि अब यह नए नाम वाली योजना इन सभी समस्याओं को हल कर देगी।
हमारे यहां अच्छे शासन का ऐसा ही इतिहास रहा है- जो काम करने में मुश्किल थे और जिनके लिए बाकायदा योजना बनाने और उसे लागू करने की ज़रूरत थी, उनका पहले जिक्र तो किया गया और फिर छोड़ दिया गया। यह बात तब भी सच थी जब प्रोजेक्ट का नाम नमामि गंगे जैसा पवित्र था, जिसे जून 2014 में चुनाव जीतने के तुरंत बाद शुरू किया गया था। इसके तहत 'राष्ट्रीय नदी गंगा में प्रदूषण को प्रभावी ढंग से कम करने, संरक्षण और उसे फिर से नया जीवन देने के दोहरे उद्देश्यों को पूरा करने' के लिए प्रोजेक्ट को 20,000 करोड़ रुपये का बजट दिया गया था।
गंगा को उतनी सफाई की ज़रूरत नहीं थी, क्योंकि यह लगातार समुद्र में जाकर गिरती थी, बल्कि जरूरत तो यह पक्का करने की थी कि इसमें और प्रदूषक न मिलें। यह एक छोटी-छोटी समस्याओं वाली समस्या थी जो सैकड़ों जगहों से जुड़ी थी जहां नदी में गंदा पानी छोड़ा जा रहा था। जब यह पता चला कि सफाई के लिए बहुत ज़्यादा मेहनत करनी पड़ेगी, तो प्रोजेक्ट के प्रति उत्साह कम हो गया।
फरवरी 2017 में, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने कहा कि 'गंगा नदी के पानी की एक भी बूंद अब तक साफ नहीं हुई है', और सरकार की कोशिशें 'सिर्फ जनता का पैसा बर्बाद कर रही हैं'। अगले साल, 86 साल के पर्यावरणविद जी डी अग्रवाल, जो 111 दिनों से आमरण अनशन पर थे, उनकी मौत हो गई, उन्होंने पानी पीना भी छोड़ दिया था। कानपुर के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में प्रोफेसर और सेंट्रल पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड में काम कर चुके अग्रवाल गंगा की सुरक्षा के लिए कानून बनाने की मांग कर रहे थे। अग्रवाल की मौत से एक दिन पहले, गडकरी (जो उस समय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण के केंद्रीय मंत्री थे) ने कहा कि अग्रवाल की लगभग सभी मांगें मान ली गई हैं।
नमामि गंगे के लिए बजट 2016-17 में 2,500 करोड़ रुपये से घटकर 2017-18 में 2,300 करोड़ रुपये और फिर 2018-19 में 687 करोड़ रुपए रह गया। 2019-20 में, लगभग 375 करोड़ रुपये खर्च किए गए। उसी साल, इस प्रोजेक्ट को एक बड़े प्रोजेक्ट में मिला दिया गया जिसे अब जल शक्ति कहा जाता है। जब मार्च 2020 में लॉकडाउन के कारण प्रदूषण फैलाने वाली यूनिट्स अस्थायी रूप से बंद हो गईं, तो मोदी सरकार ने दावा किया कि गंगा साफ हो गई है।
'नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा' की सरकारी वेबसाइट पर इसे चलाने वाली काउंसिल की मीटिंग के मिनट्स मौजूद हैं। ऐसा लगता है कि 10 सालों में सिर्फ़ दो बैठकें हुई, एक 14 दिसंबर 2019 को और दूसरी 30 दिसंबर 2022 को।
10 साल और बेशुमार प्रचार-प्रसार और विज्ञापनों के बाद, क्या गंगा साफ़ हो गई है? विपक्ष का कहना है कि नहीं। '20,000 करोड़ रुपए खर्च करने के बावजूद गंगा नदी ज़्यादा गंदी क्यों हो गई है: कांग्रेस ने PM मोदी से पूछा' यह 14 मई 2024 की प्रेस ट्रस्ट ऑफ़ इंडिया की एक हेडलाइन है।
दो पारी से ज़्यादा समय तक सत्ता में रहने के बाद सुशासन की बात करने में यही दिक्कत है। रिकॉर्ड हमारे सामने है, और हर दिन सामने आ रहा है। कितने भारतीय अभी भी दिखावे से सहमत हैं? सहमति जताने वाले ज़्यादातर वे लोग होंगे जो यह मानना चाहते हैं कि न्यू इंडिया में सुशासन है।
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