आकार पटेल का लेख: दुनिया बदल रही है, लेकिन भारत का इसमें योगदान क्या है

हमारे आसपास की दुनिया तेजी से बदल रही है और हम बिना किसी योगदान के खुद भी बदल रहे हैं। ऐसा करने के लिए सबसे पहले तो हमें खुद से ईमानदारी बरतनी होगी। और अगर हम यह मानलें कि समस्या है, तभी उसका हल भी निकलेगा।

फोटो : सोशल मीडिया
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आकार पटेल

हाल ही में देश में स्मार्ट फोन उद्योग के बारे में कुछ रिपोर्ट्स प्रकाशित हुई हैं। उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण क्षेत्र है जिसकी सालाना विकास दर तेज़ी से बढ़ी है। भारतीय बाज़ार में स्मार्टफोन का लीडर चीन की कंपनी शियोमी है, जिसकी भारतीय बाजार में 30 फीसदी हिस्सेदारी है। दूसरे नंबर पर दक्षिण कोरिया की कंपनी सैमसंग है और तीसरे, चौथे और पांचवे नंबर पर फिर चीन की कंपनियां वीवो, ओप्पो और रियाल्मी हैं। भारतीय बाजार में भारत की कोई भी कंपनी कहीं नहीं है।

मैंने हाल ही में फाउंडिल फ्युएल नाम की वेबसाइट पर एक लेख पढ़ा जिसमें इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति का बयान था। इसमें लिखा था, “बीते 60 वर्षों में भारत में एक भी ऐसा अविष्कार नहीं हुआ जिसने दुनिया भर में घर-घर में पहचान बनाई हो।” उन्होंने आगे कहा कि भारत ने अविष्कार का कोई ऐसा विचार भी नहीं दिया जिसकी धूम मची हो और लोगों की जिंदगी उससे बेहतर हुई हो।

हमें दरअसल दो चीज़ों को मानना पड़ेगा। पहले तो यह कि क्या यह सच है? कम से कम मुझे तो कोई ऐसा अविष्कार या उत्पाद फौरन ध्यान नहीं आता, और अगर ऐसा होता तो वह कंपनी बहुत बड़ी हो गई होती। ऐसे में मैंने 2018 में देश की 10 बड़ी कंपनियों का सूची निकाली। इनमें इंडियन ऑयल कार्पोरेशन, रिलायंस इंडस्ट्रीज़, ओएनजीसी, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, टाटा मोटर्स, भारत पेट्रोलियम, हिंदुस्तान पेट्रोलियम, राजेश एक्सपोर्ट, टाटा स्टील और कोल इंडिया के नाम सामने आए। इनमें से दो, टाटा मोटर्स (ऑटोमोबाइल) और राजेश एक्सपोर्ट्स (ज्वेलरी) ही ऐसी कंपनियां हैं जो उपभोक्ता उत्पाद बनाती हैं, और इनका कोई भी ऐसा उत्पाद या प्रोडक्ट नहीं है जिसका डंका दुनिया में बजता हो। इससे स्पष्ट है कि नारायण मूर्ति जो कह रहे हैं वह सच है।


दूसरी बात यह कि हमें सोचना चाहिए कि आखिर ऐसा क्यों है? इसका जवाब आसान नहीं है, क्योंकि इससे हम ऐसे सिद्धांत की तरफ भटकेंगे जो कयासों पर आधारित होगा, लेकिन फिर भी चलिए कोशिश करते हैं। इसी इंटरव्यू में नारायण मूर्ति ने कहा कि, “पश्चिमी देशों के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले या वहां से निकले छात्रों के बराबर ही काबिलियत और ऊर्जा रखने के बावजूद हमारे युवाओं ने रिसर्च या शोध के क्षेत्र में कोई प्रभावी काम नहीं किया है।” उन्होंने बताया कि मेसाच्युसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नालॉजी (एमआईटी) की तर्ज पर ही पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आईआईटी स्थापित की थीं, लेकिन एमआईटी ने माइक्रोचिप और जीपीएस (ग्लोबल पोजीशनिंग सिस्टम) जैसे अविष्कार किए, लेकिन आईआईटी इस मामले में पीछे हैं। हकीकत यह है कि आईआईटी के पास दिखाने को ज्यादा कुछ है नहीं।

अविष्कार और नवोत्पाद के मामले में हम दुनिया के सामने कहीं नहीं ठहरते, इसके और भी कई प्रमाण हैं। बीते साल चीन पहली बार दुनिया के उन 20 देशों में शामिल हुआ जिन्होंने अविष्कार आधारित अर्थव्यवस्था बनाई है। इस सूची को वर्ल्ड इंटलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गेनाइजेशन ने प्रकाशित किया है जिसमें अविष्कार और पेटेंट को आधार बनाया गया है। वैश्विक नवोत्पाद सूचकांक (ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स) के शीर्ष 10 देशों में स्विट्ज़रलैंड, नेदरलैंड, स्वीडन, यूके, सिंगापुर, अमेरिका, फिनलैंड, डेनमार्क, जर्मनी और आयरलैंड शामिल हैं।

इस सूची में चीन का 17वां स्थान है जिसने “एक ऐसी अर्थव्यवस्था बनाई है जिसमें सरकारी नीतियों के आधार पर तेज़ी से बदलाव हुआ और शोध और विकास को मजबूती मिली।”


जैसे-जैसे डिजिटल व्यवस्था और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का प्रभाव बढ़ रहा है, वैसे-वैसे दुनिया एक ऐतिहासिक बदलाव की तरफ अग्रसर हो रही है। खुद चलने वाली कारें और दवाओं और जेनेटिक्स के क्षेत्र में अद्भुत अविष्कार हो रहे हैं। इन सबमें हमारा कितना योगदान है। दुनिया की कुल आबादी के छठे हिस्से के बराबर आबादी वाले देश होने के बावजूद एक राष्ट्र के तौर पर इस सबमें हमारा कोई खास योगदान न होना चिंता की बात नहीं है?

ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स में भारत 57वें पायदान पर है। इस बात पर हमें आश्चर्य हो सकता है क्योंकि हम तो यही मानते रहे हैं कि भारत इंफार्मेशन टेक्नालॉजी की क्रांति में अग्रणी रहा है। लेकिन तथ्य कुछ और ही बताते हैं, इसीलिए नारायण मूर्ति जो कहते हैं उस पर गौर करने की जरूरत है।

अगर भारतीय भी विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले दूसरे देशों के छात्रों की तरह स्मार्ट हैं और उन्हें भी बराबरी के मौके मिले हैं तो फिर क्या कारण है कि हम कोई ऐसा अविष्कार नहीं कर पाए जिसे पूरी दुनिया ने मान्यता दी हो? आखिर स्मार्टफोन के मामले में भी हम अपने ही बाजार में दूसरी कंपनियों से पीछे हैं? एक वजह हम मान सकते हैं कि चीन के पास ज्यादा पूंजी है और उन्हें सरकार की भी मदद मिलती है, लेकिन असली वजह तो कुछ और ही है।

एक समस्या तो यह है कि हम सांस्कृतिक मूल्यों को महत्व देने लगे और शैक्षणिक तर्क हमें असहज करने लगे हैं। यह एक कारण है कि इस विषय पर कोई गंभीर शोध तक नहीं हो पा रहा है। आपके एक भी ऐसा अध्य्यन नहीं मिलेगा जिसमें इस बात को समझने की कोशिश की गई हो।


मैं नहीं समझता कि यह सरकार के स्तर का मामला है या फिर हाल की या फिर पिछली सरकारों की नाकामी का मामला है। यह तो हमारे समाज और हमारे मूल्यों से जुड़ी बात है, जिसे हम पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाते रहे हैं। मैं यह भी मानता हूं कि इसे लंबे समय तक अनदेखा नहीं किया जा सकता, क्योंकि हमारे आसपास की दुनिया तेजी से बदल रही है और हम बिना किसी योगदान के खुद भी बदल रहे हैं। ऐसा करने के लिए सबसे पहले तो हमें खुद से ईमानदारी बरतनी होगी। और अगर हम यह मानलें कि समस्या है, तभी उसका हल भी निकलेगा।

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